स्थानीय बोली और शिक्षा
पंकज चतुर्वेदी
हिंसा
से बेहाल बस्तर में सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी
बोली है दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर। वहां द्रविड़
परिवार की बोलियां भी हैं, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना
विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी
समझने में दिक्कत महसूस करता है। दोरली बोलने वाले बहुत कम हुआ करते थे,
पिछली जनगणना में शायद बीस हजार। फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली
दोनों तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले
में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बचों की दोरली में तेलुगु का घालमेल हो
चुका था। एक तो बड़ी मुश्किल से दोरली बोलने वाला शिक्षक मिला था और जब
उसने देखा कि उसके बचों की दोरली भी अपभ्रंश हो गई है तो उसकी चिंता असीम
हो गई कि अब पढ़ाई कैसे आगे बढ़ाई जाए। यह चिंता है कोटां गांव के शिक्षक
कट्टम सीताराम की।ठेठ गांव के बचों को पढ़ाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का, लेकिन ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उन्होंने उसे देखा होता है। और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है, उसे ईंख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बचे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग, आकृति, अंक, श}द की दुनिया में बचे का प्रवेश ही बेहद नीरस और अनमना-सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढ़ती जाती है।
संप्रेषणीयता की दुनिया में बचे के साथ दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते से ही से शुरू हुआ-घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, आओ, मिजो, मिसिंग, खासी, गढ़वाली, राजस्थानी, बुंदेली या भीली, गोंडी, धुरबी या ऐसी ही ‘अपनी’ बोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी या अंग्रेजी या राय की भाषा में। और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है-‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’। बचा इसी भ्रम की स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषा को जो उसे सभ्य बनाने का वायदा करती है या फिर जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है। अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्र भाषा ही बचे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है। अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में स का उचारण ह होता है और बचा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्यपुस्तक पढ़ता है तो उसे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता गलत उचारण करते हैं। बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातीय बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौथाई होते ही नहीं हैं। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बचा जब स्कूल आता है तो उसके पास श}दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एक साथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
स्थानीय बोलियों में प्राथमिक शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि बचा अपने कुल-परिवार की बोली में जो ज्ञान सीखता है, उसमें उसे अपने मां-बाप की भावनाओं का स्वाद महसूस होता है। वह भले ही स्कूल जाने वाली या अक्षर ज्ञान वाली पहली पीढ़ी हो, लेकिन उसे पाठ से उसके मां-बाप बिल्कुल अनभिज्ञ नहीं होते। जब बचा खुद को अभिव्यक्त करना, भाषा का संप्रेषण सीख ले तो उसे खड़ी बोली या राय की बोली में पारंगत किया जाए। फिर साथ में करीबी इलाके की एक भाषा और अंग्रेजी को पढ़ाना कक्षा छह से पहले करना ही नहीं चाहिए। इस तरह बचे अपनी शिक्षा में कुछ अपनापन महसूस करेंगे। हां, पूरी प्रक्रिया में दिक्कतें भी हैं, हो सकता है कि दंडामी गोंडी वाले इलाके में दंडामी गोंडी बोलने वाला शिक्षक तलाशना मुश्किल हो, परंतु जब एक बार यह बोली भी रोजगार पाने का जरिया बनती दिखेगी तो लोग जरूर इसमें पढ़ाई करना पसंद करेंगे। इसी तरह स्थानीय आशा कार्यकर्ता, पंचायत सचिव जैसे पद भी स्थानीय बोली के जानकारों को ही देने की रीति से सरकार के साथ लोगों में संवाद बढ़ेगा व उन बोलियों में पढ़ाई करने वाले भी हिचकिचाएंगे नहीं।
कुछ ‘विकासवादी’ यह कहते नहीं अघाते हैं कि भाषाओं का नष्ट होना या ‘ज्ञान’ की भाषा में शिक्षा देना स्वाभविक प्रक्रिया है और इस पर विलाप करने वाले या तो ‘पागलपन’ से ग्रस्त होते हैं या फिर वे ‘शुद्ध नस्ल’ के फासीवादी। जरा विकास के चरम पर पहुंच गए मुल्कों की सामामजिक व सांस्कृतिक दरिद्रता पर गौर करें कि वहां इंसान महज मशीन बन कर रह गया है। मानवीय संवेदनाएं शून्य हैं और अब वे शांति, आध्यात्म के लिए ‘पूर्व’ की ओर देख रहे हैं। यदि कोई समाज अपने अनुभवों से सीखता नहीं है और वही रास्ता अपनाता है जो संवेदना-शून्य समाज का निर्माण करे तो जाहिर है कि यह एक आत्मघाती कदम ही होगा। इंसान को इंसान बना रहने के लिए स्थानीयता पर गर्व का भाव, भाषा-संस्कार में विविधत जरूरी है। और इसलिए भी प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय बोली-भाषा को शामिल करना व उसे जीवंत रखना जरूरी है।
आए रोज अखबारों में छपता रहता है कि यूनेस्को बार-बार चेता रहा है कि भारत में बोली-भाषाएं गुम हो रही हैं और इनमें भी सबसे बड़ा संकट आदिवासी बोलियों पर है। अंग्रेजीदां-शहरी युवा या तो इससे बेपरवाह रहते हैं या यह सवाल करने से भी नहीं चूकते कि हम क्या करेंगे इन ‘गंवार-बोलियों’ को बचा कर। यह जान लेना जरूरी है कि गूगल बाबा या पुस्तकों में इतना ज्ञान, सूचना, संस्कृति, साहित्य उपल}ध नहीं हैं जितना कि हमारे पारंपरिक मूल निवासियों के पास हैं। उनका ज्ञान निहायत मौखिक है और वह भीली, गोंडी, धुरबी, दोरली, आओ, मिसिंग, खासी, जैसी छोटी-छोटी बोलियों में ही है। उस ज्ञान को जिंदा रखने के लिए उन बोलियों को भी जीवंत रखना जरूरी है और देश की विविधता, जीवन, ज्ञान, गीत, संगीत, हस्तकला को आने वाली पीढ़ियों तक मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए बोलियों को जिंदा रखना भी जरूरी है। यदि हम चाहते हैं कि स्थानीय समाज के बो स्कूल में हंसते-खेलते जाएं, उसे वहां कुछ अटपटा ना लगे तो उसकी अपनी बोली में भाषा का प्रारंभिक पाठ अनिवार्य होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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