सल्फास : कीटनाशक या मनुष्यनाशक
पंकज चतुर्वेदी,
एक सेवानिवृत फौजी ने भावनाओं में बह कर या फिर जल्दबाजी में एक निराशाजनक फैसला किया और दिल्ली में इंडिया गेट के पास आत्महत्या कर ली। उसने अपने बेटे को फोन पर बताया उन्होंने सल्फास की तीन गोलियां खाई हैं। पूरे देश में आए रोज किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाओं में अधिकांश का माध्यम यही सल्फास होता है। वैसे ‘एल्यूमिनीयम फास्फाइड पेस्टीसाइड एक्ट 1968’ के तहत ‘सल्फास’ की बिक्री का अधिकार केवल सरकारी या अर्ध सरकारी संस्थाओं को ही है। यह बात दीगर है कि यह कीटनाशक प्रदेश के किसी भी कस्बे में सहजता से सस्ते में खरीदा जा सकता है।
एल्यूमिनीयम फास्फाइड एक ऐसा कीटनाशक है, जो गोदामों में रखे अनाज को चूहों, कीड़े-मकोड़ों से बचाने का एकमात्र उपाय माना जाता है। आम बोलचाल की भाषा में उस जहर का नाम ‘सल्फास’ पड़ गया है। लोकप्रिय सल्फास एक्सेल इंडस्ट्रीज लिमिटेड, जोगेश्वरी, मुंबई का उत्पादन है। यूनाइटेड फास्फोरस लिमिटेड, वापी (गुजरात) का ‘क्यूकफास’ भी इसी तरह का है। ऐसा ही एक अन्य उत्पाद सल्फ्यूम है। इन सभी कीटनाशकों में 56 फीसदी एल्यूमिनीयम फास्फाइड और 44 फीसदी एल्यूमिनीयम कार्बोनेट होता है। ये सभी दवाइयां (?) बाजार में सल्फास के नाम से ही बिकती हैं। इनके 10, 30 और 100 गोलियों के पैक मिलते हैं। एक गोली का वजन तीन ग्राम होता है। स्वस्थ व्यक्ति की सुनिश्चित मौत के लिए इसकी एक गोली ही काफी होती है।
एल्यूमिनीयम फास्फाइड हवा में मौजूद आक्सीजन के संपर्क में आ कर जानलेवा ‘फास्जीन’ गैस उत्पन्न करता है। यह गैस यदि किसी भी जीवधारी के रक्त में मिल जाए तो शरीर का लीवर, गुर्दा और दिल बुरी तरह प्रभावित हो जाता है। इंसान की भारी उलटियों, दस्त के कारण मौत हो जाती है। इस कीटनाशक के व्यापक दुरूपयोग के मद्देनज़र सरकार ने इसकी बिक्री पर कई वर्षों पहले पाबंदी लगा दी थी। 1977 से इसकी बिक्री के लाइसेंस ही जारी नहीं हुए है। इसके बावजूद भारत में होने वाली कुल आत्महत्याओं में से एक-तिहाई का साधन यही ‘सल्फास’ है।
सल्फास को बाजार में बेचना गैर कानूनी है। सिर्फ रसद विभाग, वेयर हाउस जैसे महकमों में इसकी सरकारी खरीद की ही अनुमति है। परंतु कृषि उत्पाद बेचने वाली हर दुकान पर इसे आसानी से खरीदा जा सकता है। आम आदमी की पहुंच में सस्ते में उपलब्ध आत्महत्या के साधनों में ‘सल्फास’ सबसे शर्तिया नुस्खा है। बाजार में बिकने वाले सल्फास के पैकेट पर लिखा होता है कि इसका सेवन कर चुके व्यक्ति को पोटेशियम परमेगनेट से गरारे और नसों के जरिए हाइड्रोजन ग्लुकोज देना चाहिए। यह इलाज 10 मिनट के भीतर होना जरूरी है। चूंकि सल्फास खाने वाले व्यक्ति को पहचानना, उसे डॉक्टर तक ले जाना आदि 10 मिनट में संभव नहीं है, सो, बिरले ही ऐसे मामले होते हैं जिनमें किसी की जान बची हो।
इस जानलेवा सल्फास की बिक्री पर कागजी रोक से आम किसान भी खुश नहीं है। किसान का कहना है कि जब बंदूक से हत्याएं होती हैं तो सरकार उसके उत्पादन पर तो रोक नहीं लगाती है। तब उनके कृषि उत्पादों को नष्ट होने से बचाने वाली दवा को ‘आत्महत्या’ का साधन करार दे कर रोक लगाना कहीं तक उचित है। खेतों में बिल बना कर चूहे लाखों टन अनाज चट कर जाते हैं, इसका एकमात्र इलाज सल्फास ही है।
इस जानलेवा सल्फास की बिक्री पर कागजी रोक से आम किसान भी खुश नहीं है। किसान का कहना है कि जब बंदूक से हत्याएं होती हैं तो सरकार उसके उत्पादन पर तो रोक नहीं लगाती है। तब उनके कृषि उत्पादों को नष्ट होने से बचाने वाली दवा को ‘आत्महत्या’ का साधन करार दे कर रोक लगाना कहीं तक उचित है। खेतों में बिल बना कर चूहे लाखों टन अनाज चट कर जाते हैं, इसका एकमात्र इलाज सल्फास ही है।
भारत में ‘सल्फास’ पर पाबंदी ‘इनसेक्टीसाइड एक्ट’ के तहत लगी है। यह असंज्ञेय व अहस्तक्षेपणीय अपराध है। यानि पुलिस को सल्फास विक्रेताओं के खिलाफ मामला दर्ज करने या तफ्तीश करने का कतई अधिकार नहीं है। इस तरह के प्रकरण सिर्फ ‘ कीटनाशक इंस्पेक्टर’ ही दर्ज कर सकते हैं। मगर मध्यप्रदेश में कृषि विभाग के पास ऐसे अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान ही नहीं है। वैसे किसी भी प्रतिबंधित वस्तु की बिक्री करना ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ के तहत दंडनीय अपराध है। रसद या मापतौल विभाग इस पर कार्यवाही करे तो विक्रेता को छह महीने की कैद या दो हजार रूपए जुर्माना हो सकता है। चूंकि ये दवाएं खुले बाजार में बिक्री के लिए होती नहीं हैं, सो इन पर ईसी एक्ट 1977 के तहत पैकेटों पर कर सहित कीमत आदि कई जरूरी सूचनाएं होती ही नहीं हैं। इसे 15 से 20 रूपए प्रति 10 गोली पैकेट की दर से बेचा जाता है । इसका कोई बिल-वाउचर नहीं दिया जाता है। यानि पूरी तरह अवैध रूप से बिक रही ये दवा शासन के कई कायदे-कानूनों को तोड़ रही है।
पूरे देश में आज तक इस गैर कानूनी तिजारत पर एक भी वैधानिक कार्यवाही नहीं हुई है। हमारे नीति निर्धासक यह जानते हैं कि किसानों के पास सल्फास का कोई विकल्प नहीं है। तब इसकी बिक्री की प्रक्रिया में सुधार करना अधिक जरूरी है। सल्फास की बिक्री का कोटा जारी करना, इसके साथ इसकी ‘एंटी डोज’ को बेचना, इसके दुरूपयोग से बचाव कर सकते हैं। यदि इन गोलियों को जालीदार ऐसी कठोर डिब्बियों में बेचा जाए, जिनसे गोली का निकलना संभव ना हो तो खुदकुशी करने वालो से इसे बचाया जा सकता है। चूंकि गोली की गैस ही कारगर कीटनाशक होती है, जालीदार डिब्बी से गैस तो निकलेगी गोली नहीं।
कुछ साल पहले भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने एल्यूमिनीयम फास्फाइड के गलत इस्तेमाल को रोकने और उस पर नियंत्रण के लिए एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1993 में ही मंत्रालय को सौंप दी थी। इतने साल बीत गए हैं, लेकिन सरकार ने उस रिपोर्ट पर चढ़ गई धूल को झाड़ने की भी सुध नहीं ली है।
पाबंदी के बावजूद सल्फास खा कर मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी होना और इस दवा के अभाव में खेती का भारी नुकसान होना, दोनों ही परस्पर विरोधी व विचारणीय सवाल हैं। जाहिर है कि इस पर पाबंदी महज एक रद्दी टुकड़ा मात्र हैं। अतः जरूरी है कि किसानों के हित में इसकी बिक्री पर कोई नई नीति तैयार की जाए।
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