विकल्प के अभाव का रोना
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद में पिछले एक साल से प्रयास हो रहे हैं कि लोग पॉलिथीन का प्रयोग बंद कर दें। कभी रैली तो कभी बाजार जा कर समझाइश तो कभी अफसरों के साथ जब्ती। विडंबना है कि हर एक इंसान यह मानता है कि पॉलिथीन बहुत नुकसान कर रही है, लेकिन उसका मोह ऐसा है कि किसी ना किसी बहाने से उसे छोड़ नहीं पा रहा है। देशभर की नगर निगमों के बजट का बड़ा हिस्सा सीवर व नालों की सफाई में जाता है और परिणाम-शून्य ही रहते हैं और इसका बड़ा कारण पूरे मल-जल प्रणाली में पॉलिथीन का अंबार होना है। यह पहला मामला नहीं है जब स्थानीय प्रशासन ने पॉलीथीन पर पाबंदी की पहल की हो, रीवा, भुवनेश्वर, शिमला, देहरादून, बरेली, देवास बनारस.. देश के हर राय के कई सौ शहर यह प्रयास कर रहे हैं, लेकिन नतीजा अपेक्षित नहीं आने का सबसे बड़ा कारण विकल्प का अभाव है।
कचे तेल के परिशोधन से मिलने वाले डीजल, पेट्रोल आदि की तरह पॉलिथीन बनाने का मसाला भी पेट्रो उत्पाद ही है। यह इंसान और जानवर दोनों के लिए जानलेवा है। घटिया पॉलिथीन का प्रयोग सांस और त्वचा संबंधी रोगों तथा कैंसर का खतरा बढ़ाता है। पॉलिथीन की थैलियां नष्ट नहीं होती हैं और धरती की उपजाऊ क्षमता को नष्ट कर इसे जहरीला बना रही हैं। साथ ही मिट्टी में इनके दबे रहने के कारण मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी कम होती जा रही है, जिससे भूजल के स्तर पर असर पड़ता है। पॉलिथीन खाने से गायों व अन्य जानवरों के मरने की घटनाएं तो अब आम हो गई है। फिर भी बाजार से सब्जी लाना हो या पैक दूध या फिर किराना या कपड़े, पॉलिथीन के प्रति लोभ ना तो दुकानदार छोड़ पा रहे हैं ना ही खरीदार। मंदिरों, ऐतिहासिक धरोहरों, पार्क, अभ्यारण्य, रैलियों, जुलूसों, शोभा यात्रओं आदि में धड़ल्ले से इसका उपयोग हो रहा है। शहरों की सुंदरता पर इससे ग्रहण लग रहा है। पॉलिथीन न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी नष्ट करने पर आमादा है। यह मानवोचित गुण है कि इंसान जब किसी सुविधा का आदी हो जाता है तो उसे तभी छोड़ पाता है जब उसका विकल्प हो। यह भी सच है कि पॉलिथीन बीते दो दशक के दौरान बीस लाख से यादा लोगों के जीवकोपार्जन का जरिया बन चुका है, जो कि इसके उत्पादन, व्यवसाय, पुरानी पन्नी एकत्र करने व उसे कबाड़ी को बेचने जैसे काम में लगे हैं। वहीं पॉलिथीन के विकल्प के रूप में जो सिंथेटिक थैले बाजार में डाले गए हैं, वे एक तो महंगे हैं, दूसरे कमजोर और तीसरे वे भी प्राकृतिक या घुलनशील सामग्री से नहीं बने हैं और उनके भी कई विषम प्रभाव हैं। कुछ स्थानों पर कागज के बैग और लिफाफे बनाकर मुफ्त में बांटे भी गए लेकिन मांग की तुलना में उनकी आपूर्ति कम थी।
यदि वास्तव में बाजार से पॉलिथीन का विकल्प तलाशना है तो पुराने कपड़े के थैले बनवाना एकमात्र विकल्प है। इससे कई लोगों को विकल्प मिलता है। पॉलिथीन निर्माण की छोटी-छोटी इकाई लगाए लोगों को कपड़े के थैले बनाने का, उसके व्यापार में लगे लोगों को उसे दुकानदार तक पहुंचाने का विकल्प मिलता है। आम लोगों को सामाना लाने-ले जाने का भी विकल्प मिलता है। यह सच है कि जिस तरह पॉलिथीन की मांग है उतनी कपड़े के थैले की नहीं होगी, क्योंकि थैला कई-कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन कपड़े के थैले की कीमत, उत्पादन की गति भी उसी तरह पॉलिथीन के मानिंद तेज नहीं होगी। सबसे बड़ी दिक्कत है दूध, जूस, बनी हुई करी वाली सब्जी आदि के व्यापार की। इसके लिए एल्यूमिनियम या अन्य मिश्रित धातु के खाद्य-पदार्थ के लिए माकूल कंटेनर बनाए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात घर से बर्तन ले जाने की आदत। फिर से लौट आए तो खाने का स्वाद, उसकी गुणवत्ता, दोनों ही बनी रहेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि पॉलिथीन में पैक दूध या गरम करी उसके जहर को भी आपके पेट तक पहुंचाती है। आजकल बाजार माइक्रोवेव में गरम करने लायक एयरटाइट बर्तनों से पटा पड़ा है, ऐसे कई-कई साल तक इस्तेमाल होने वाले बर्तनों को भी विकल्प के तौर पर विचार किया जा सकता है। प्लास्टिक से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बॉयो प्लास्टिक को बढ़ावा देना चाहिए। बायो प्लास्टिक चीनी, चुकंदर, भुट्टा जैसे जैविक रूप से अपघटित होने वाले पदार्थो के इस्तेमाल से बनाई जाती है। हो सकता है कि शुरुआत में कुछ साल पन्नी की जगह कपड़े के थैले व अन्य विकल्प के लिए कुछ सब्सिडी दी जाए तो लोग अपनी आदत बदलने को तैयार हो जाएंगे। लेकिन यह व्यय पॉलीथीन से हो रहे व्यापक नुकसान की तुलना में बहेद कम ही होगा।
सनद रहे कि 40 माइक्रान से कम पतली पन्नी सबसे यादा खतरनाक होती है। सरकारी अमलों को ऐसी पॉलिथीन उत्पादन करने वाले कारखानों को ही बंद करवाना पड़ेगा। वहीं प्लास्टिक कचरा बीन कर पेट पालने वालों के लिए विकल्प के तौर पर बेंगलुरु के प्रयोग पर विचार कर सकते हैं, जहां लावारिस फेंकी गई पन्नियों को अन्य कचरे के साथ ट्रीटमेंट करके खाद बनाई जा रही है। हिमाचल प्रदेश में ऐसी पन्नियों को डामर के साथ गला कर सड़क बनाने का काम चल रहा है। जर्मनी में प्लास्टिक के कचरे से बिजली का निर्माण भी किया जा रहा है। स्वीट्जरलैंड में भी कचरे से बिजली उत्पादित की जा रही है। विकल्प तो और भी बहुत कुछ हैं, बस जरूरत है तो एक नियोजित दूरगामी योजना और उसके क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त इछाशक्ति की।
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