मानसिक रोगियों की कौन ले सुध
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक देश में पागलखानों की हालत बदतर है। इन्हेंसुधारने के लिए कुछ साल पहले बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान में एक परियोजना शुरू की गई थी, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। 1987 में सुप्रीम कोर्ट भी मानसिक अस्पतालों में बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के निर्देश दिए थे। आदेश के बाद दो-चार दिन तो सरकार सक्रिय दिखी, पर हालात तनिक भी नहीं सुधारे
विश्व स्वास्थ्य संगठन और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक ताजा शोध से पता चला है कि आज देश में चौथी सबसे बड़ी बीमारी अवसाद या डिप्रेशन है। कोई साढ़े पांच करोड़ लोग इसके शिकार हैं। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों को यह पता नहीं होगा कि उन्हें किसी इलाज की जरूरत है। इसकी आशंका है कि 2020 तक देश की सबसे बड़ी दूसरी बीमारी हार्ट अटैक के बाद अवसाद हो सकता है। बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढीले होना; इस दौर की कुछ ऐसी त्रसदियां हैं जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही है। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर आते नहीं हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तो बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अब भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। 1इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि ‘जय विझान’ के युग में मनोविकारों को एक रोग के बनिस्पत ऊपरी व्याधि या नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है। तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए डॉक्टरों के बजाय पीर-फकीरों, मजार-मंदिरों पर अधिक भीड़ होती है। सामान्य डॉक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं। इसके चलते ओझा, पुरोहित, मौलवी, तथाकथित यौन विशेषज्ञ, अवैध रूप से मनोचिकित्सक का दुष्कार्य कर रहे हैं। ‘नंग-धड़ंग, सिर पर कचरे का बोझ, जहां कहीं जगह मिली सो गए, कुछ भी खा लिया, किसी ने छेड़ा तो पत्थर चला दिए ।’ भारत के हर शहर-कस्बे में ऐसे महिला या पुरुष चरित्रों की मौजूदगी लगभग जरूरी है। आम लोगों की निगाह में ये भूत-प्रेत के प्रकोपधारी, मजनू, बदमाश या फिर देशी-विदेशी जासूस होते हैं। यह विडंबना है कि वे जो हैं, उसे न तो उनके अपने स्वीकारते हैं और न ही पराए। केंद्र सरकार ने आजादी के बाद पहली बार राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की घोषणा की है।
मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1858 और भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी और केवल पागलखाने में भर्ती मरीजों पर ही विचार किया गया था। पागलपन कानून 1912 के तहत अदालती प्रमाण पत्र के जरिए मरीजों को केवल पागलखानों में इलाज की सीमा तय की गई थी, लेकिन 1987 में इस कानून में बदलाव किया गया और मरीज को खुद की इच्छा पर भर्ती होने, सामान्य अस्पतालों में भी इलाज कराने जैसी सुविधाएं दी गई हैं। आजादी के बाद भारत में इस संबंध में पहला कानून बनाने में 31 वर्ष का समय लगा और उसके नौ वर्ष के बाद मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 अस्तित्व में आया। परंतु इस अधिनियम में कई खामियां होने के कारण इसे कभी किसी राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेश में लागू नहीं किया गया। बहरहाल, अवसाद केवल रोगी के परिवार के लिए ही चिंता का विषय नहीं है, यह देश के विकास की गति में भी बाधक है। अनुमान है कि अवसाद के कारण यदि किसी व्यक्ति की कार्य क्षमता प्रभवित होती है तो वह अर्थव्यवस्था को औसतन दस हाजर डॉलर प्रति वर्ष का नुकसान करता है। भारत में 15 साल से कम उम्र के बच्चे भी अवसाद के शिकार हो रहे हैं। वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था। एक दस्तावेज के मुताबिक करीब तेरह करोड़ भारतीयों को किसी न किसी रूप में मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। इनमें अवसादग्रस्त सबसे ज्यादा हैं। प्रत्येक हजार जनसंख्या में 10 से 20 लोग जटिल मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं जबकि दुखदाई और आर्थिक अक्षमता पैदा करने वाले भावुक रोगों के शिकार लोगों की संख्या इसका तीन से पांच गुना है। आम डॉक्टर के पास आने वाले आधे मरीज उदासी,भूख, नींद और सेक्स इच्छा में कमी आना, हस्त मैथुन, स्वप्न दोष जैसी शिकायतें ले कर आते हैं। वास्तव में वे किसी न किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं।1इतने लोगों के इलाज के लिए कोई 32 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि देशभर में इनकी संख्या बामुश्किल साढ़े तीन हजार है और इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं। दिनों दिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है। विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं। दहशत और भय के इस रूप को फोबिया कहा जाता है। इसकी शुरुआत होती है चिड़चिड़ेपन से। बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना ऐसे ‘रोगियों’ की आदत बन जाती हैं। काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना इनके प्रारंभिक लक्षण हैं। भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है। जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के खौफनाक रूप से ही जाने जाते हैं। ये जर्जर, डरावनी और संदिग्ध इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैये और सरकारी उदासीनता की मूक गवाह हैं। 1कार्यक्रम,1982 में रोगियों के पुनर्वास, इसके कारणों पर नियंत्रण, दूरस्थ अंचलों के डॉक्टरों को विशेष ट्रेनिंग सहित न जाने क्या-क्या लुभावने कार्यक्रम दर्ज हैं लेकिन जमीन पर मानसिक रोगी सरकार व समाज दोनों की हेय दृष्टि से आहत है। देश में केवल 43 सरकारी मानसिक रोग अस्पताल हैं, इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था महज तीन जगह ही है। इनमें 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत का एक फीसद भी नहीं है। देशभर में महज 2,219 मानसिक रोग चिकित्सक उपलब्ध हैं जबकि जरूरत है 9,696 की। यहां तक कि जरूरत की पचास फीसद नर्स भी उपलब्ध नहीं हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है। अनुमान है कि भारत में कोई सात करोड़ लोग छोटे-बड़े मानसिक रोग के शिकार हैं जबकि देश के स्वास्थ्य बजट का महज 0.06 फीसद ही मानसिक रोग के मद में जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देश भर के पागलखानों की हालत बदतर है। इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान (निमहान्स) में एक परियोजना शुरू की गई थी, लेकिन उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है। आज भी अधिकांश मानसिक रोगी बगैर इलाज के अपने हाल में अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं।
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