दूषित पानी पीने को अभिशप्त
मध्य
प्रदेश के सवा दर्जन से ज्यादा जिलों में ग्रामीण वैसा पानी पीने को मजबूर
हैं जिसमें फ्लोरोसिस का आधिक्य है और जिससे विकलांगता बढ़ रही है
दो दशक पहले मध्य प्रदेश में मंडला जिले के तिलक्ष्पानी के बाशिंदों का
जीवन देश के अन्य हजारों आदिवासी गांवों की ही तरह था। वहां थोड़ी बहुत
दिक्कत पानी की जरूर थी, लेकिन अचानक अफसरों को इन आदिवासियों की जल समस्या
खटकने लगी। तुरत-फुरत हैंडपंप रोप दिए गए, लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह
जल जीवनदायी नहीं, जहर है। महज 542 की आबादी वाले इस गांव में 85 बच्चे
विकलांग हो गए। सन दो हजार तक की रिपोर्ट बताती है कि यहां तीन से बारह साल
के अधिकांश बच्चों के हाथ-पैर टेढ़े हैं। वे घिसट-घिसट कर चलते हैं और
उनकी हड्डियों और जोड़ों में असहनीय दर्द रहता है। जब मीडिया में शोर मचा
तो हैंडपंप बंद किए गए, लेकिन तब तक हालात बिगड़ चुके थे। अब भले ही आज
वहां अंग टेढ़े होने की शिकायत न हो, लेकिन दांतों की खराबी गांव के हर
वाशिंदे की त्रसदी है। यह हृदय विदारक कहानी अकेले तिलक्ष्पानी की ही नहीं
है। मध्य प्रदेश के 15 जिलों के 80 विकास खंडों के कोई 14 हजार गांवों की
सूरत लगभग ऐसे ही है। इनमें 2,286 गांव अत्यधिक प्रभावित और 5,402
संवेदनशील कहे गए हैं। यह बात हाल ही में राज्य के स्वास्थ्य विभाग की ओर
से केंद्र सरकार को भेजी रिपोर्ट में स्वीकर की गई है। रिपोर्ट में कहा गया
है कि प्रदेश में फ्लोरोसिस बेकाबू होता जा रहा है। हालांकि इस समस्या को
उपजाने में समाज के उन्हीं लोगों का योगदान अधिक रहा है, जो इन दिनों इसके
निदान का एकमात्र जरिया भूगर्भ जल दोहन बता रहे हैं। 1टेक्नोलॉजी मिशन
नामक करामाती केंद्र सरकार पोषित प्रोजेक्ट के शुरुआती दिनों की बात है।
नेता-इंजीनियर की साझा लॉबी गांव-गांव में ट्रक पर लदी बोरिंग मशीनें लिए
घूमती थी। जहां जिसने कहा कि पानी की दिक्कत है, तत्काल जमीन की छाती छेद
कर नलकूप रोप दिए गए। हां, जनता की वाह-वाही तो मिलती ही, जो वोट की फसल बन
कर कटती भी थी यानी एक तीर से दो शिकार-नोट भी और वोट भी। मगर जनता तो
जानती नहीं थी और हैंडपंप मंडली जानबूझ कर अनभिज्ञ बनी रही कि इस तीर से दो
नहीं तीन शिकार हो रहे हैं। बगैर जांच परख के लगाए गए नलकूपों ने पानी के
साथ-साथ वह बीमारियां भी उगलीं, जिनसे लोगों की अगली पीढ़ियां भी अछूती
नहीं रहीं। ऐसा ही एक विकार पानी में फ्लोराइड के आधिक्य के कारण उपजा।
फ्लोराइड पानी का एक स्वाभाविक-प्राकृतिक अंश है और इसकी 0.5 से 1.5 पीपीएम
मात्र मान्य है लेकिन मध्य प्रदेश के हजारों हैंडपंपों से निकले पानी में
यह मात्र 4.66 से 10 पीपीएम और उससे भी अधिक है। पाताल का पानी पी-पी कर
राज्य के ये 14 जिले अब विकलांगों का जमावड़ा बन चुके हैं। इनमें रतलाम,
बैतूल, रायसेन, राजगढ़, मंडला, सीहोर, धार, अलीराजपुर, झाबुआ, खरगौन,
छिंदवाड़ा, डिंडोरी, सिवनी, शाजापुर और उज्जैन जैसे जिले शामिल हैं। इसके
अलावा भी कई ऐसे जिले हैं जहां कुछ या बहुत से गांव फ्लोराइड के आधिक्य से
तंग हैं। समस्या इतनी गंभीर है और राज्य सरकार अपने इस मद के बजट का बड़ा
हिस्सा महज सर्वे में खर्च करती है। फिर कुछ गांवों में विटामिन या
कैल्शियम बांट दिया जाता है। दुखद है कि समस्याग्रस्त गांवों में पेयजल की
वैकल्पिक या सुरक्षित व्यवस्था करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए
जाते।1फ्लोराइड की थोड़ी मात्र दांतों के उचित विकास के लिए आवश्यक हैं।
परंतु इसकी मात्र निर्धारित सीमा से अधिक होने पर दांतों में गंदे धब्बे हो
जाते हैं। लगातार अधिक फ्लोराइड पानी के साथ शरीर में जाते रहने से रीढ़,
टांगों, पसलियों और खोपड़ी की हड्डियां प्रभावित होती हैं। ये हड्डियां बढ़
जाती हैं, जकड़ और झुक जाती हैं। जरा सा दवाब पड़ने पर ये टूट भी सकती
हैं। ‘फ्लोरोसिस’ के नाम से पहचाने वाले इस रोग का कोई इलाज नहीं है।1मध्य
प्रदेश के झाबुआ, सिवनी, शिवपुरी, छतरपुर, बैतूल, मंडला और उज्जैन व
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिलों के भूमिगत पानी में फ्लोराइड की मात्र निर्धारित
सीमा से बहुत अधिक है। आदिवासी बाहुल्य झाबुआ जिले के 78 गांवों में 178
हैंडपंप फ्लोराइड आधिक्य के कारण बंद किया जाना सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज
है, लेकिन उन सभी से पानी खींचा जाना यथावत जारी है। नानपुर कस्बे के सभी
हैंडपंपों से निकलने वाले पानी को पीने के अयोग्य घोषित किया गया है। जब
सरकारी अमले उन्हें बंद करवाने पहुंचे तो जनता ने उन्हें खदेड़ दिया। ठीक
यही बड़ी, राजावट, लक्षमणी, ढोलखेड़ा, सेजगांव और तीती में भी हुआ। चूंकि
यहां पेय जल के अन्य कोई स्नोत शेष नहीं बचे हैं। सो हैंडपंप बंद होने पर
जनता को नदी-पोखरों का पानी पीना होगा, जिससे हैजा,आंत्रशोथ,पीलिया जैसी
बीमारियां होंगी। इससे अच्छा वे फ्लोरोसिस से तिल-तिल मरना मानते हैं। बगैर
वैकल्पिक व्यवस्था किए फ्लोराइड वाले हैंडपंपों को बंद करना जनता को रास
नहीं आ रहा है। नतीजतन जिले के हर गांव में 20 से 25 फीसदी लोग पीले दांत,
टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियों वाले हैं। चूंिक कहीं भी पेय जल के लिए और कोई
व्यवस्था है नहीं है, सो जनता जान कर भी जहर पी रही है। कई गांवों के हालात
तो इतने बदतर हैं कि वहां मवेशी भी फ्लोराइड की चपेट में आ गए हैं। मेडिकल
रिपोर्ट बताती है कि गाय-भैंसों के दूध में फ्लोराइड की मात्र बेतहाशा
बढ़ी हुई्र है, जिसका सेवन साक्षात विकलांगता को आमंत्रण देना है। ऐसी कई
और रिपोटेर्ं भी महज सरकारी लाल बस्तों में धूल खा रही हैं। जहां एक तरफ
लाखों लोग फ्लोरोसिस के अभिशाप से घिसट रहे हैं, वहीं प्रदेश के लोक
स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की रुचि अधिक से अधिक ‘फ्लोरोडीशन संयंत्र’
खरीदने में है। यह किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी खरीद-फरोख्त में किनके
और कैसे वारे-न्यारे होते हैं। इस बात को सभी स्वीकारते हैं कि जहां
फ्लोरोसिस का आतंक इतना व्यापक हो, वहां ये इक्का-दुक्का संयंत्र फिजूल ही
होते हैं। फ्लोराइड से निबटने में ‘नालगोंडा विधि’ खासी कारगर रही है। इससे
दस लीटर प्रति व्यक्ति हर रोज के हिसाब छह सदस्यों के एक परिवार को साल भर
तक पानी शुद्ध करने का खर्चा मात्र 15 से 20 रुपये आता है। इसका उपयोग आधे
घंटे की ट्रेनिंग के बाद लोग अपने ही घर में कर सकते हैं। काश सरकार ने इस
दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किए होते।
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