महंगी पड़ सकती है खेती-किसानी से बेपरवाही
पंकज चतुर्वेदीइन दिनों देश में बाहर की कंपनियों को कारखाने लगाने के लिए न्योतने का दौर चल रहा है। जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी के जीवकोपार्जन के जरिए पर सभी मौन हैं। तेजी से विस्तार पर रहे षहरी मध्य वर्ग, कारपोरेट और आम लोगों के जनमानस को प्रभावित करने वाले मीडिया खेती-किसानी के मसले में लगभग अनभिज्ञ है । यही कारण है कि खेती के बढते खर्चे, फसल का माकूल दाम ना मिलने, किसान-उपभोक्ता के बीच कई-कई बिचौलियों की मौजूदगी, फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोडाउन व कोल्ड स्टोरेज और प्रस्तावित कारखाने लगाने और उसमें काम करने वालों के आवास के लिए जमीन की जरूरत पूरा करने के वास्ते अन्न उगाने वाले खेतों को उजाड़ने जैसे विशय अभी तक गौण हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है। इस साल देश के 11 राज्यों में अल्प वर्शा के कारण भयंकर सूखा पड़ा है जो लगभग देश की खेती जोत का आधे से अधिक हिस्सा है। सनद रहे एक बार सूखे का मार खाया किसान दशको तक उधार में दबा रहता है और तभी वह खेती छोड़ देता है।
भारत में कारें बढ़ रही हैं, मोटर साईकिल की बिक्री किसी भी विकासशील देश में सबसे अधिक है, मोबाईल क्रांति हो गई है, षापिंग मॉल कस्बों-गांवों की ओर जा रहे हैं । कुल मिला कर लगता है कि देश प्रगति कर रहा है। सरकार मकान, सड़के बना कर आधारभूत सुविधाएं विकसित करने का दावा कर रही है। देश प्रगति कर रहा है तो जाहिर है कि आम आदमी की न्यूनतम जरूरतों का पूर्ति सहजता से हो रही है । तस्वीर का दूसरा पहलू भारत के बारे में चला आ रहा पारंपरिक वक्तव्य है - भारत एक कृशि-प्रधान देश है । देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई हे। यहां गौर करने लायक बात है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही है।
पहले और दूसरे पहलू के बीच कहीं संवादहीनता है । इसका प्रमाण है कि गत् सात सालों के दौरान देश के विभिन्न इलाकों के लगभग 45 हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं । अपनी जान देने का दुःसाहसी व दुभाग्यपूर्ण निर्णय लेने वाले की कुंठा का कारण कार या मोटर साईकिल न खरीद पाना या मॉल में पिज्जा न खा पाना कतई नहीं था । अधिकांश मरने वालों पर खेती के खर्चों की पूर्ति के लिए उठाए गए कर्जे का बोझ था । किसान का खेत केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं होता है, वह आधुानिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से पूरे देश तकदीर लिखता है । हमारे भाग्यविधाता अपने अनुभवों से सीख नहीं ले रहे हैं कि किसान को कर्ज नहीं बेहतर बाजार चाहिए। उसे अच्छे बीज, खाद और दवाएं चाहिए। कृशि में सुधार के लिए पूंजी से कहीं ज्यादा जरूरत गांव-खेत तक संवेदनशल नीति की है।
कृशि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसान ही कम हो रहे हैं। सन 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई। वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई। आज भले ही हम बढिया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिंतित नहीं हैं, लेकिन आनेवाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम-सुफलाम नहीं कह पाएंगे। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में जुताई का क्षेत्र घट रहा है। सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है, जहां किसानों की संख्या में 31 लाख की कमी आई है। बिहार में भी करीब 10 लाख लोग किसानी छोड. चुके हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि किसानों ने खेती छोड़कर कोई दूसरा काम-धंधा नहीं किया है बल्कि उनमें से ज्यादातर खाली बैठे हैं। इन्होंने जमीन बेच कर कोई नया काम-धंधा शुरू नहीं किया है बल्कि आज वे किसान से खेतिहर मजदूर बन गए हैं। वे अब मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी कर रहे हैं। सन 2001 में देश की कुल आबादी का 31.7 फीसदी किसान थे, जो सन 2011 में महज 24.6 प्रतिशत रह गए। आखिर ऐसा होना लाजिमी भी है। बीते साल ही संसद में सरकार ने कहा था कि महज किसानी कर घर का गुजारा चलाना संभव नहीं है। भारत सरकार के दस्तावेज कहते हैं कि 1.16 हैक्टेयर जमीन पर गेंहू उगाने पर एक फसल, एक मौसम में किसान को केवल रू.2527 और धान उगाने पर रू. 2223 ही बचते हैं। यह आंकड़े उस हालात में है जब मान लिया जाए कि राश्ट्रीय कृशि लागत औसतन रू. 716 प्रति हैक्टेयर है। हालांकि किसान कहते हैं कि लागत इससे कम से कम बीस फीसदी ज्यादा आ रही है। तिस पर प्राकृतिक विपदा, बाढ़-सुखाड़, आले, जंगली जानवर का खतरा अलग। सनद रहे मुल्क में किसान के पास औसत जमीन 1.16 हैक्टेयर ही है।
उधर, इन्हीं 10 वर्षों के दौरान देश में कॉरपोरेट घरानों ने 22.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करके उस पर खेती शुरू की है। कॉरपोरेट घरानों का तर्क है कि छोटे-छोटे रकबों की अपेक्षा बड़े स्तर पर मशीनों और दूसरे साधनों से खेती करना ज्यादा फायदेमंद है। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कॉरपोरेट घरानों ने बड़े-बड़े कृषि फार्म खोल कर खेती शुरू कर दी है।
देश के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। सरकार चाहती है कि किसान पारंपरिक खेती के तरीके को छोड़ नए तकनीक अपनाए । इससे खेती की लागत बढ़ रही है और इसकी तुलना में लाभ घट रहा है ।
गंभीरता से देखें तो इस साजिश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है । हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेशनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हैं कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं । किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण किस स्तर पर है, इसकी बानगी यही है कि देश के किसान को आलू उगाने पर माकूल दाम ना मिलने पर सड़कों पर फैंकना पड़ता है तो दूसरी ओर उसके दाम बढ़ने से रोकने के लिए विदेश से भी मंगवाना पड़ता है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
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