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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

Grabage is byproduct of modern society


यह कूड़ा तो हमने ही बढ़ाया है

                                                                                                                                      पंकज चतुर्वेदी

हालांकि दिल्ली के गाजीपुर के कूड़ा घर की क्षमता सन 2006 में आवष्यकता से अधिक हो गई थी,अदालत चेता रही थी कि पचास मीटर उंचा कूड़े का ढेर धरती, समाज के लिए खतरनाक है, लेकिन जब तक कोई इसकी सुध लेता, बड़ा हादसा हो गया। अब सरकार की चिंता है कि कूड़े की नई खत्ती कहां बनाई जाए। यह सच है कि हर दिन कूड़ा तो निकलना ही है और उसके निबटान की आधुनिक वैज्ञानिक तरीके खोजे जाने चाहिए, लेकिन उसे भी अनिवार्य है कि समाज कूड़े को कम करना सीखे। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना है कि यह कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चौगुना बढ़ रहा है।

नेषनल इनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देष में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है।  हमारे देष में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलात है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी कूड़ा-कबाड़ा,  घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देष के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाष रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है।  यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है।  राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है।  कागज, प्लास्टिक, धातु  जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। सनद रहे दिल्ली तो बानगी है, ठीक यहीह ालात लखनउ, पटना, गौहाटी, सतना, जयपुर या चंडीगढ़ के भी हैं। हम कूड़ा निकाल कर षहर से दूर कहीं फैंक देते है। और फिर वही कूड़ा हमारी जमीन, जल और जीवन को जहरीला करता जाता है। सुंदर षहरों में तनिक सी बरसात के बाद बनते दरिया हों या फिर भजल के जहरीला होने की चिंता या फिर तालाब समाप्त होने व नदियों के उथला होने के सरोकार, जरा गंभीरता से देखें तो यह सबकुछ उस कूड़े के कुप्रभाव हें जिसके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होने पर स्थानीय निकाय के कूड़ा-प्रबंधक चुपके से उसे कहीं भी फैंक आते हैं।

कोई नहीं चाहता कि उसके करीब कूड़ा निश्पादन का काम हो लेकिन असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं।  देष की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दषक पहले एक व्यक्ति साल भर में बामुष्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह षेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही बाजार में मिलते हैं। हमारा बाथ्रूम और किचन तो कूड़े का बड़ा उत्पादनकर्ता बन गया है।
अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देष में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई  और खुषबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है।
सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाईल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम परा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। षेश हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांष सामग्री गलती-’सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने  और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने  का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है।  भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निबटान दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से ले कर छोटे कस्बों तक संदिग्ध व लापरवाहीपूर्ण रहा है।
राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है। अभी हर रोज सात हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएगा। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पोलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जमीन और जल को जहर बना रहा है। हाल ही में गाजियाबाद नगर निगम ने दिल्ली नगर निगम के ऐसे दो ट्रकों को पकड़ कर पांच-पाच हजार का जुर्माना लगाया था जो दिल्ली का कचरा सीमावर्ती गाजियाबाद की कोलेनियों में रात में चुपके से फैंक रहे थे।
कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है, सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य प्रयास भी कर रही है। लेकिन असल में कोषिष तो कचरे को कम करने की होना चाहिए। इसके लिए केरल के कन्नूर जिले का उदाहरण सामने है कि जब जिला प्रषासन व समाज ने ठान लिया तो अब वहां ना तो पॉलीथील मिलती है और ना ही डिस्पोजेबल बर्तन और ना ही रिफील वाले बॉलपेन ।
प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर व मोबाईल के आयात पर रोक तथा बेकार उपकरणों को निबटाने के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करना, होगा। सामानों की मरम्मत करने वाले हाथों को तकनीकी रूप से सषक्त बनाने व उन्हें मदद करने से उपकरणों को कंडम कर फैंकने की प्रवृति पर रोक लग सकती है। वाहनों के नकली व घटिया पार्ट्स की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी। सबसे बड़ी बात उच्च होती जीवन-षैली में कचरा-नियंत्रण और उसका निबटान की षिक्षा स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाना जरूरी है।

पंकज चतुर्वेदी
संपर्क- 9891928376



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