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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हत्यारा बनाता परीक्षा का खौफ
पंकज चतुर्वेदी


इसी साल सितंबर महीने में गुरूग्राम के रेयान स्कूल में एक सात साल के बच्चे की हत्या को जो खुलासा सीबीआई ने किया है, यदि यह सच है तो एक महज अपराध नहीं है; यह हमारे पूरी शिक्षा प्रणाली पर सवालिया निशान है। कक्षा 11 में पढ़ने वाला एक बच्चा महज अपनी परीक्षा को कुछ दिन आगे खिसकाने के लिए एक मासूम का गला काट देता है। परीक्षा के परिणाम मनोनकूल ना आने पर आत्महत्या कर लेना तो भारतीय शिक्षा प्रणाली का पुराना रोग रहा है, लेकिन अब यह सोच कर आत्मा कांप जाती है कि शिखा में नंबर की अंधी दौड़ बच्चों को हत्यारा व अपराधी भी बना रही है। याद करें कि हाल ही के वर्षों में दिली व अन्य राज्यों से परीक्षा के परिणाम से रूष्ट बच्चों द्वारा अपने शिक्षक पर हमला और यहां तक कि हत्या करने के कुछ मामले सामने आए हैं। गुरूग्राम की घटना इस लिए ज्यादा भयावह है कि बगैर किसी प्रतिशोध-भाव या नफरत के केवल इस लिए हत्या कर दी जाए कि स्कूल का इम्तेहान कुछ दिन आगे खिसक जाएगा।

जरा गौर करंे कक्षा 11  के बच्चे यानि बामुश्किल 16 से 18 साल के। बीते दस-बारह साल से स्कूल में जा रहे होंगे , इस दौरान उसने कम से कम 70 पाठ्य पुस्तकें भी पढ़ी होंगी, लेकिन वहां बिताया समय, शिक्षक के उदबोधन और बांची गई पुस्तकें उसकों इतनी सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पाईं। उसमें अपने परिवार ,शिक्षक व समाज के प्रति भरोसा नहीं पैदा कर र्पाइं कि महज एक इम्तेहान के नतीजे के अच्छे नहंी होने से वे लेाग उसे स्वीकार करेंगे, अपनों की तरह, उसे ढांढस बंधाएंगे व आगे की तैयारी के लिए साथ देंगे। साफ जाहिर है कि बच्चे ना तो कुछ सीख रहे हैं और ना ही जो पढ रहे हैं उसका आनंद ले पा रहे हैं, बस एक ही धुन है या दवाब है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं।

यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना ना सिखा सके, जो विशम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना ना सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है ? कक्षा दस के बच्चे का अव्वल आना इस लिए जरूरी है कि वह अपने मां-बाप की पसंद के विशय से अगली कक्षा में दाखिला ले पाए। ज्यादा नंबर तो साईंस , उससे कम तो कार्मस और सबसे कम तो आर्टस या ह्यूमेनेटेरियन। बचपन, शिक्षा, सीखना सब कुछ इम्तेहान के सामने कहीं गौण हो गया है । रह गई हैं तो केवल नंबरों की दौड़, जिसमें धन, धर्म , षरीर, समाज सब कुछ दांव पर लग गया है ।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे । जबकि हिंदी के मूुल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखंे तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है । कोई बच्चा ‘‘हैं’’ जैसे षब्दो ंमें बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी केा छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है । कोई बच्चा ‘स’ , ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाता है । स्पश्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए । यानी मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है ।
वास्तव में परीक्षाओं का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । एम.ए. पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की स्लीप नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्च होल्डर में बल्ब लगानाया साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहतास है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताउ है। यह बात सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकारते हैं ,इसके बावजूद बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।
कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेश ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है । बच्चा जो कुछ करना, पढना या प्रयास करना चाहता है, वह सबकुछ उसे स्कूल में मिलता नहीं और उसे वह भवन एक घुटनभरी चाहदीवारी लगता है। इसी का परिणाम है कि बचचें वहां से भागने, वहां की प्रक्रिया से बचने का प्रयास करते हें और उसकी परम परिणिति एक हत्या के रूप में सामने आई है।

वर्ष 1988 में लागू शिक्षा नीति (जिसकी चर्चा नई शिक्षा नीति के नाम से होती रही है) के 119 पृष्ठों के प्रचलित दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलानेे तथा खाईयों को कम करके बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में परिवर्तन से आ जाएगा । दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्त्रोतों की बात आ गई है । उसमें बार-बार आय व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। इसे पढ़ कर मन में सहज ही प्रश्न उठता था कि देश की समूची आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढ़ांचे पर विचार हो जाएगा । सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा तब शिक्षा का ।  कई बजट आए और औंधे मुंह गिरे । लेकिन देश की आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण नहीं हो पाया । ऐसा हुआ नहीं सो शिक्षा में बदलाव का यह दस्तावेज भी किसी  सरकारी दफ्तर की धूल से अटी फाईल की तरह कहीं गुमनामी के दिन काट रहा है।

और अब तो परीक्षा या उसके परिणाम का भय बच्चे को इस हद तक कंुठित बना रहा है कि वह किसी की गर्दन काटने जैसे निर्मम अपराध से नहीं हिचक रहा। यह तो अदालत तय करेगी कि क्या वास्तव में ग्यारहवीं के बच्चे ने उस सात साल के बच्चे का गला काटा कि नहीं, लेकिन यह समय की मांग है कि परीक्षा व उससे उगाहे नंबरों की गला-काट दौड़ पर मानवीय और व्याहवारिक रूप से विचार किया जाए।

पंकज चतुर्वेदी



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