खेत को आस्था का विषय बनाएं
पंकज चतुर्वेदी
श्रावण शुरू होते ही मध्य भारत या गोबर पट्टी के ग्रामीण अंचलों में में बहुरा चौथ, ऋषि पंचमी, हर छट जैसे कई पर्व-त्योहार लोक जीवन में होने लगते है। जब खेती को बिसरा चुके परिवार के लोगों को भी , भले ही परंपरा के नाम पर खेत-खलिहान की याद आ जाते हैं । ऐसे ही संस्कार देश के अन्य हिस्सों में मनाए जाते हैं। इनमें पूजा और आहार दोनो ही खेती-किसानी पर केंद्रित होते हैं। यह सिलसिला दीवाली और उसके आगे होली तक चलता रहता है, जब लोग अपने पूजा या संस्कार के लिए खेत-खलिहान को तलाशते हैं। असल में खेत , किसान, फसल हमारे लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केंद्र हैं, लेकिन विडंबना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साजिश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं ।
एक तरफ देश की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुू की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है। दाल की फसल आने से पहले ही पता चल गया कि आवक कम होगी व बाजार रंग दिखा चुका है। जब किसान अपनी मेहनत की फसल सड़क पर इस लिए फैंक देता है क्योंकि उसे मेहनम का वाजिब दाम नहीं अमलता तो समाज उसमें अन्याय और सियासत तलाशता है, लेकिन खेती को सहेजने के लिए मध्य वर्ग कभी उसके साथ खड़ा नहीं दिखता।
यदि ताजातरीन जनगणना को देखें तो पता चलता है कि देश में पिछले एक दशक के दौरान किसानों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इन दस वर्षों में किसानों की 90 लाख कम हो गई है। आजादी के बाद पहली बार जनगणना उनकी घटती संख्या दिखाई दी है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि किसानों ने खेती छोड़कर कोई दूसरा काम-धंधा नहीं किया है बल्कि उनमें से ज्यादातर खाली बैठे हैं। इन्होंने जमीन बेच कर कोई नया काम-धंधा शुरू नहीं किया है बल्कि आज वे किसान से खेतिहर मजदूर बन गए हैं। वे अब मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी कर रहे हैं।
सन 2001 में देश में कुल आबादी का 31.7 फीसदी किसान थे जो 2011 में सिमट कर 24.6 रह गया है। अब यह सिमट कर 20 फीसदी के आसपास रह गया है। जानना जरूरी है कि देश में इस तरह से कृषि भूमि का रकबा घटना बेहद खतरनाक संकेत है। रहा है, वह देश की अर्थव्यवस्था के लिए कतई ठीक नहीं है। इससे भविष्य में अनाज के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता खत्म हो सकती है, जो कि देश के लिए घातक होगा।
दूसरी तरफ इन्हीं 10 सालों में देश में कॉरपोरेट घरानों ने 22.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया और उस पर खेती शुरू की है। कॉरपोरेट घराने बड़ रकबों पर मशीनों से खेती करने को फायदे का सौदा मानते है।। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कॉरपोरेट घरानों ने बड़े-बड़े कृषि फार्म खोल कर खेती शुरू कर दी है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खेती का भी कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चले जाना शुभ संकेत नहीं है। इससे देश की कोई भी भावी सरकार पूरी तरह से उनकी गुलाम बनकर रह जाएगी। उनका कहना है कि बैंकों की कृषि संबंधी नीतियां, लागत से कम उपज, सरकार द्वारा समर्थन मूल्य में अपेक्षाकृत कम वृद्धि, सिंचाई की असुविधा, प्राकृतिक प्रकोप, उद्योगीकरण, शहरीकरण के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण और कृषि का क्षेत्र असंगठित होना- ये कारण हैं कि देश में कृषि भू-स्वामियों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। कॉरपोरेट घराने जिस तरह से नकदी खेती तथा मशीनीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं उससे लाखों किसान विस्थापित होते जा रहे हैं।
देश में किसानों की दुर्दशा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक के 50 फीसदी से ज्यादा किसान आज कर्ज में डूबे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में पांच लाख से ज्यादा ग्रामीण खुदकुशी कर चुके हैं जिनमें अधिकाश्ंा किसान या खेतों में काम करने वाले मजदूर थे। इनमें से अधिकांश देश का पेट भरने के चक्कर में अपने ऊपर कर्जा चढ़वाते गए़ । फिर या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब ले कर मंडी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला।
संसद में स्वीकार किया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति किसान केवल 1.16 हेक्टेयर जमीन बची है। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता थाजो अब बामुश्किल 14 फीसदी है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।
देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देश की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिशत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। इस बीच मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और मजदूर ना मिलने से हैरान-परेशान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं। गंभीरता से देखें तो इस साजिश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है ।
हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेशनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हैं कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं । परेशान किसान खेती से मुंह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं।। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना। किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हर स्तर पर है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिशत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देश में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं।
यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी हो। किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व स्वास्थय की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए। खेती अकेले पेट भरने का नहीं भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक पहचान भी हैं और इसके बेरंग होने का मतलब असली भारत का रंगहीन होना होगा।
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