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रविवार, 3 दिसंबर 2017

Bundelkhand again tends to drought



फिर सूखे की ओर बुंदेलखंड

बुंदेलखंड की असली समस्या अल्पवर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों से, पीढ़ियों से रही है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीना जानते थे। पर आधुनिकता के अंधड़ में पारंपरिक जल-प्रबंधन नष्ट हो गया और उसकी जगह सूखा व सरकारी राहत ने ले ली। इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि यहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है।

बुंदेलखंड के गांवों के लोग पलायन कर रहे हैं- पानी की कमी के चलते। अगली बरसात दस महीने दूर है और बुंदेलखंड से जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें आने लगी हैं। वैसे मध्यप्रदेश के तेईस जिलों की एक सौ दस तहसीलों को राज्य सरकार ने सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है, जिनमें बुंदेलखंड में आने वाले सभी जिले शामिल हैं। हालांकि इस घोषणा से सूखा प्रभावितों की दिक्कतों में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे, सभी शामिल हैं। इन सभी के क्षरण को रोकने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालात सुधरेंगे नहीं।  टीकमगढ़ जिले के गांवों की चालीस फीसद आबादी अभी से महानगरों की ओर रोजगार के लिए पलायन कर चुकी है। छतरपुर, दमोह, पन्ना के हालात भी लगभग ऐसे ही हैं। असल में इस इलाके में जीविका का मूल जरिया खेती है, और खेती बरसात पर निर्भर है। बीते दस सालों में यह आठवां साल है जब औसत से बहुत कम बरसात से यहां की धरती रीती रह गई है। अनुमान है कि मप्र के हिस्से के बुंदेलखंड में कुल 30 लाख हैक्टर जमीन है जिसमें से 24 लाख हैक्टर खेती के लायक है। लेकिन इसमें से सिंचाई की सुविधा महज चार लाख हैक्टर को ही उपलब्ध है। केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड में बरसात का महज दस फीसद पानी जमा हो पाता है। शेष पानी बड़ी नदियों में बह कर चला जाता है।
असल में यहां की पारंपरिक जल-संचय व्यवस्था का दुश्मन यहीं का समाज बना है। बुंदेलखंड के सभी गांवों, कस्बों, शहरों की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है- चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को, सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले की सीमा तय करने वाले पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाइयां हैं। पहाड़ उजड़े तो उनकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से आता? इस तरह गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है।
यहां मवेशी न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार होते हैं, बल्कि उनके खुरों से जमीन का बंजरपन भी समाप्त होता है। सूखे के कारण सख्त हो गई भूमि पर जब गाय के पग पड़ते हैं तो वह जल सोखने लायक भुरभुरी होती है। विडंबना है कि समूचे बुंदेलखंड में सार्वजनिक गोचर भूमियों पर जमकर कब्जे हुए और आज गोपालकों के सामने पेट भरने का संकट है, तभी इन दिनों लाखों-लाख गायें सड़कों पर आवारा घूम रही हैं। जब तक गोचर, गाय और पशुपालक को संरक्षण नहीं मिलेगा, बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। कभी बुंदेलखंड के पैंतालीस फीसद हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर छह प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले सौर, कौंदर, कौल और गोंड आदिवासियों की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीविकोपार्जन चलाते थे, सूखे-गिरे पेड़ों को र्इंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों से, पीढ़ियों से रही है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीना जानते थे। पर आधुनिकता के अंधड़ में पारंपरिक जल-प्रबंधन नष्ट हो गया और उसकी जगह सूखा व सरकारी राहत ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार अफसरों, नेताओं सभी को होता है! लेकिन प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होते आ रहे इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि यहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ों वाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गोचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाबों को सरकार की बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थायी संगठन बनाने होंगे। दूसरा, इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में बेतवा, केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां उथली हो गई हैं। दूसरे, उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांधकर या नदियों को पारंपरिक तालाबों से जोड़ कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुंदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने में स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद््देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल-स्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो न सूरत बदलेगी और न ही सीरत।

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