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मंगलवार, 13 मार्च 2018

Traditional water tank can fight with drought

 तालाबों को सहेजने की दरकार


अगर जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा स्थिति में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर खेत को सिंचाई, सभी को पेयजल और लाखों हाथों को रोजगार मिल सकता है

dainik jagran, national edition, 14-3-18

अब तो देश के 32 फीसद हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है-बारहों महीने वहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसद आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों जैसे-तालाब, कुंए, बावड़ी की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 1विशेषज्ञों का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिलीमीटर है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है।1अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते थे। उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते थे। बदले में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता था। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था। तालाब तो लोक की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इन्हें सरकारी बाबुओं के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चैपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देसी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई। यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेशकीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो न तो तालाबों में गाद बचेगी, न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।11944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। कमीशन की र्पिाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी केबाद तालाबों की देखरेख तो दूर, उनकी उपेक्षा शुरू हो गई। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना, देश के जल संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। वहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। तालाब मछली, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी और हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।1गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं। पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं। फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है-न भरेगा पानी, न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह राजस्थान में उदयपुर से लेकर जैसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे सुल्तानपुर लेक या फिर यूपी के चरखारी व झांसी हो या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील, सभी जगह एक ही कहानी है। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं। सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट होने का खामियाजा भुगतने और अपने किए या फिर अपनी निष्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एकसमान ही हैं। कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्रहि-त्रहि के लिए गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके में चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं है। लोग नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल स्रोतों-कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करते हैं, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली बावड़ियों-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया। 1यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा स्थिति में भी बचा लिया जाए तो वहां के प्रति इंच खेत को सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए। इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए।1(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)

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