विकास का सहयात्री बने पर्यावरण संरक्षण
पंकज चतुर्वेदी
विकास मूलत: प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है। केवल सड़क, कारखाने, तेज गति की ट्रेन आदि ही विकास शब्द को परिभाषित नहीं करते हैं। देश के हर बाशिंदे -चाहे वे इंसान हों या फिर जीव-जंतु, साफ हवा में सांस लेने के लिए नदी-तालाब, समुद्र स्वच्छ हों, लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी उन्मुक्त हो कर अपने नैसर्गिक स्वरूप में जीवन यापन करें-ऐसा विकास ही जनभावनाओं की संकल्पना होता है। तमिलनाडु का एक शहर है रानीपेट। वहां हजारों चमड़े के कारखाने हैं और वहां की प्रति व्यक्ति आय राज्य में सबसे ऊंची है, लेकिन दूसरी तरफ उसे दुनिया के चुनिंदा दूषित नगरों में गिना जाता है।1गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए गंगा एक्शन प्लान के तहत अभी तक हुए कामों की समीक्षा का काम शुरू होना एक अच्छा कदम है, लेकिन यह भी समझना जरूरी होगा कि यमुना, हिंडन, सिंध जैसी नदियों की हालत सुधारे बगैर गंगा में सुधार होना असंभव है। ध्यान रहे, पूवरेत्तर में ब्रह्मपुत्र है तो दक्षिण में मैली होती कावेरी, छत्तीसगढ़ में इंद्रावती- हर जगह की कहानी एक सी ही है। देश की संस्कृति, सभ्यता, लोकाचार के अनुसार सभी छोटी-बड़ी नदियां गंगा की ही तरह पवित्र, जन-आस्थाओं की प्रतीक और पर्यावरण के लिए जरूरी हैं। जिस तरह प्रकृति का तापमान बढ़ रहा है, उसको देखते हुए हिमाचल के ग्लेशियर से लेकर गांव-कस्बे की ताल-तलैया को संरक्षित करना सरकार की योजना में होना चाहिए, वरना गंगा सफाई अभी तक उछाले गए नारों से अलग नहीं होगी। बढ़ती आबादी, जल संकट से निबटने के लिए पाताल फोड़ कर पानी निकालने के बजाय बारिश की हर बूंद को सहेजने की छोटी-छोटी योजनाएं समय की मांग हैं। पर्यावरण मंत्रलय के सामने सबसे बड़ी चुनौती नदी जोड़ने की परियोजनाओं को लेकर है। अभी तक तो यही सामने आया है कि हजारों करोड़ खर्च कर नदियों को जोड़ने के बाद जिस स्तर पर जंगल व खेतों का नुकसान होना है, उसकी तुलना में फायदे बहुत कम हैं।1साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता शहरीकरण एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है।1असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का- सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है, जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। अब सौ नए शहर बसाने की तैयारी हो रही है। बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि नए बने शहर ऊर्जा, यातायात, गंदगी निस्तारण, पानी के मामलों में अपने संसाधनों पर ही निर्भर होंगे, अन्यथा यह प्रयोग देश के लिए नया पर्यावरणीय संकट होगा।1देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं कि कहीं भारत आने वाली सदी में अरबन स्लम या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए!1भारत में तस्करों की पसंद वह नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका है। पाश्चात्य देश उसका महत्व समझ रहे हैं। नैसर्गिक संपदा की तस्करी महज नैतिक और कानून सम्मत अपराध ही नहीं, बल्कि देश की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातियों के पौधों की जानकारी है। इनमें से कई भोजन या दवाइयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं । दुर्लभ कछुओं, केकड़ों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सामने आ चुके हैं।1 हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर और नेवले भी जरूरी हैं, लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करों की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं। भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वषों के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं और इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है। इस तरह जैव विविधता को लुप्त होने से बचाना और उसे समृद्ध करना भी सरकार के लिए बड़ा काम होगा।1कानून और योजनाएं सरकार भले ही बहुत सी बना ले, लेकिन जब तक आम लोगों को पर्यावरणीय संरक्षण के सरोकारों से जोड़ा नहीं जाएगा, सरकार का हर प्रयास अधूरा रहेगा। यह जरूरी है कि सरकार शिक्षा, समाज, शोध सभी स्तर पर पर्यावरण के प्रति जागरूकता को अपने एजेंडे में प्राथमिकता से शामिल करे।1 ’ लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।पंकज चतुर्वेदी11विकास मूलत: प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है। केवल सड़क, कारखाने, तेज गति की ट्रेन आदि ही विकास शब्द को परिभाषित नहीं करते हैं। देश के हर बाशिंदे -चाहे वे इंसान हों या फिर जीव-जंतु, साफ हवा में सांस लेने के लिए नदी-तालाब, समुद्र स्वच्छ हों, लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी उन्मुक्त हो कर अपने नैसर्गिक स्वरूप में जीवन यापन करें-ऐसा विकास ही जनभावनाओं की संकल्पना होता है। तमिलनाडु का एक शहर है रानीपेट। वहां हजारों चमड़े के कारखाने हैं और वहां की प्रति व्यक्ति आय राज्य में सबसे ऊंची है, लेकिन दूसरी तरफ उसे दुनिया के चुनिंदा दूषित नगरों में गिना जाता है।1गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए गंगा एक्शन प्लान के तहत अभी तक हुए कामों की समीक्षा का काम शुरू होना एक अच्छा कदम है, लेकिन यह भी समझना जरूरी होगा कि यमुना, हिंडन, सिंध जैसी नदियों की हालत सुधारे बगैर गंगा में सुधार होना असंभव है। ध्यान रहे, पूवरेत्तर में ब्रह्मपुत्र है तो दक्षिण में मैली होती कावेरी, छत्तीसगढ़ में इंद्रावती- हर जगह की कहानी एक सी ही है। देश की संस्कृति, सभ्यता, लोकाचार के अनुसार सभी छोटी-बड़ी नदियां गंगा की ही तरह पवित्र, जन-आस्थाओं की प्रतीक और पर्यावरण के लिए जरूरी हैं। जिस तरह प्रकृति का तापमान बढ़ रहा है, उसको देखते हुए हिमाचल के ग्लेशियर से लेकर गांव-कस्बे की ताल-तलैया को संरक्षित करना सरकार की योजना में होना चाहिए, वरना गंगा सफाई अभी तक उछाले गए नारों से अलग नहीं होगी। बढ़ती आबादी, जल संकट से निबटने के लिए पाताल फोड़ कर पानी निकालने के बजाय बारिश की हर बूंद को सहेजने की छोटी-छोटी योजनाएं समय की मांग हैं। पर्यावरण मंत्रलय के सामने सबसे बड़ी चुनौती नदी जोड़ने की परियोजनाओं को लेकर है। अभी तक तो यही सामने आया है कि हजारों करोड़ खर्च कर नदियों को जोड़ने के बाद जिस स्तर पर जंगल व खेतों का नुकसान होना है, उसकी तुलना में फायदे बहुत कम हैं।1साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता शहरीकरण एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है।1असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का- सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है, जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। अब सौ नए शहर बसाने की तैयारी हो रही है। बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि नए बने शहर ऊर्जा, यातायात, गंदगी निस्तारण, पानी के मामलों में अपने संसाधनों पर ही निर्भर होंगे, अन्यथा यह प्रयोग देश के लिए नया पर्यावरणीय संकट होगा।1देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं कि कहीं भारत आने वाली सदी में अरबन स्लम या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए!1भारत में तस्करों की पसंद वह नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका है। पाश्चात्य देश उसका महत्व समझ रहे हैं। नैसर्गिक संपदा की तस्करी महज नैतिक और कानून सम्मत अपराध ही नहीं, बल्कि देश की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातियों के पौधों की जानकारी है। इनमें से कई भोजन या दवाइयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं । दुर्लभ कछुओं, केकड़ों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सामने आ चुके हैं।1 हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर और नेवले भी जरूरी हैं, लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करों की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं। भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वषों के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं और इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है। इस तरह जैव विविधता को लुप्त होने से बचाना और उसे समृद्ध करना भी सरकार के लिए बड़ा काम होगा।1कानून और योजनाएं सरकार भले ही बहुत सी बना ले, लेकिन जब तक आम लोगों को पर्यावरणीय संरक्षण के सरोकारों से जोड़ा नहीं जाएगा, सरकार का हर प्रयास अधूरा रहेगा। यह जरूरी है कि सरकार शिक्षा, समाज, शोध सभी स्तर पर पर्यावरण के प्रति जागरूकता को अपने एजेंडे में प्राथमिकता से शामिल करे।1 ’ लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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