संभव नहीं है सबके लिए स्वास्थ्य
पंकज चतुर्वेदी
स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में शर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेश से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देश दुनिया के कुल 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं। देश के आंचलिक कस्बें की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देश की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है। हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अशिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं।पिछले सत्र में ही सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देश में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का आंकडा भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनेा हाथों से केवल नोट कमाए। मेडिकल कालेज में प्रवेश के आकांक्षी बच्चे दसवीं कक्षा पास कर ही नामी-गिरामी कोचिंग संस्थानों की शरण में चले जाते हैं जिसकी फीस कई-कई लाख होती है। इतनी महंगी है मेडिकल की पढ़ाई, इतना अधिक समय लगता है इसे पूरा करने में , बेहद कठिन है उसमें दाखिला होना भी---- पता नहीं क्यों इन तीन समस्याओं पर सरकार कोई माकूल कदम क्यों नही उठा पा रह है।
हर राजनीतिक दल चुनाव के समय ‘सभी को स्वास्थ्य’’ के ंरंगीन सपने भी दिखाता है, लेकिन इसकी हकीकत किससी सरकारी अस्पताल में नहीं बल्कि किसी पंच सितारा किस्म के बड़े अस्पताल में जा कर उजागर हो जाती है- भीड़, डाक्टरों की कमी, बेतहाशा फीस और उसके बावजूद भी बदहवास तिमारदार। सनद रहे हमारे देश में पहले से ही राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ईएसआई, सीजीएचएस जैसी कई स्वास्थ्य योजनाएं समाज के विभिन्न वर्गों के लिए हैं व सभी के हितग्राही असंतुश्ट, हताश हैं। देशभर के सरकारी अस्पताल मशीनरी, डाक्टर तकनीशियनों के स्तर पर कितने कंगाल हैं, उसके किस्से आए रोज हर अखबार में छपते रहते हैं । भले ही केाई कुछ भी दावे कर ले, लेकिन हकीकत तो यह है कि हमारे यहां इतने डाक्टर ही नहीं है कि सभी को इलाज की कोई भी योजना सफल हो। यदि डाक्टर मिल भी जाएं तो आंचलिक क्षेत्र की बात दूर है, जिला स्तर पर जांच-दवा का इस स्तर का मूलभूत ढ़ांचा विकसित करने में दशकों लगेंगे ताकि मरीज महानगर की ओर ना भागे। आए रोज नसबंदी के दौरान मौत और मोतियांिबंद आपरेशन के दौरान कई लोगों की आखें की रोशनी जाने जैसे कई ऐसे समाचार प्रकाश में आते हैं जो बताते हैं कि अच्छी नियत से चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाएं लापरवाही या फिर समय व संसाधन की कमी या पैसे के लालच में किस तरह जनविरोधी बन जाती है।
गाजियाबाद दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांश डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिशियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबद जैसे षहरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।
स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सयांसद आदि आते हैं। यहां डिस्पेंसरी सेवानिव्त डाक्टरों के बदौलत है और और डिसपेंसरी को कंप्यूटराईज्ड कर दिया गया है। यहां डाक्टर केवल एक फार्मासिस्ट की तरह लिस्ट में मौजूद दवाओं में से छांट कर देता है। एक दिन के आठ घंटे में एक डाक्टर में पास सौ या ज्यादा मरीज। बानगी है कि डाक्टर मरीतज को कितनी गंभीरता से देखता होगा। दिल्ली में सीजीएचएस डिस्पेंसरी के डाक्टर मरीजों को सरकारी अस्पताल को रिफर कर देते है। और वहां की भीड़ में ये कर्मचारी हताश हो कर योजना को कोसते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूप्ए की दवा। वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज षामिल नहीं है। ऐसे ही कई अन्य रोग है जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे षामिल ही नहीं किया गया। एक तो डाक्टरों की कम उपर से मरीजों की संख्या कम करने के प्रयास नहीं।
जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देश में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्राईवेट मेडिकल कालेज हैं। पीएमटी परीक्षा के बाहर बंट रहे पर्चों को यदि भरोसे लायक माने तो मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए नौ से बीस लाख रूपए तो डोनेशन या केपिटेशन देना ही होगा। फिर सालाना शिक्षण षुल्क दो लाख तीस हजार से चार लाख बासठ हजार रुपए तक है। बच्चे को हॉस्टल में रखने की खर्चा एक लाख रुपए, किताबों- कॉपी व मेडिकल यंत्रों का खर्च एक लाख रूपए सालाना। यानी एक साल का कम से कम खर्च पांच लाख रूपए। पांच साल का पच्चीस और डोनेशन मिला कर चालीस लाख। अभी हम मेडिकल में पीजी की बात करते ही नहीं हैं- इसके बाद नौकरी की तो अधिकतम एक लाख रूपए महीने यानी बारह लाख रूपए साल। इनकम टैक्स काट कर हाथ में आए आठ लाख रूपए। यदि प्राईवेट प्रेक्टिस करना हो तो क्लीनिक जमाने, उसके प्रचार-प्रसार में और पांच लाख रूपए। आवक का पता नहीं - कितनी होगी...... कब होगी। अलबत्ता तो सरकारी नौकरी करने वाले एक समूह ए के अफसर जिसकी महीने कर तन्खवाह अस्सी हजार रूपए हो, उसके लिए पढ़ाई का खर्च उठाना ही संभव नहीं है। यदि उसने कर्ज ले कर यह कर भी दिया तो आय के लिए कम से कम सात-आठ साल इंतजार करना पड़ेगा, तब तक एजुकेशन लोन पर ब्याज बढ़ने लगेगा। इसके विपरीत यदि कोई इंजीनियरिंग या एमबीए की पढ़ाई में इससे एक-चौथाई खर्च करता है तो पांच साल बाद ही उसकी सुनिश्चित आय होने लगती है।
कुछ साल पहले तब के केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते। हाल के वर्शेंा में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिए जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देश तकनीकी शिक्षा और विशेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेशों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देश के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े। और जब तक डाक्टर नहीं बढ़ेंगे सबके लिए स्वास्थ्य की बात महज लफ्फाजी से ज्यादा नहीं होगी।
पंकज चतुर्वेदी
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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