उ.प्र.: सिमटती खेती, उजड़ता किसान
पंकज चतुर्वेदी
जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम का गड़बड़ाता मिजाज, खेती के घाटे का सौदा होने और कथित विकास के लिए जमीन की बढ़ती मांग ने उ.प्र. में खेती-किसानी के लिए बड़ा संकट खड़ा कर दिया हे। इससे केवल देश को अन्न उपलब्ध कराने की क्षमता ही नहीं, कृषि पर लोगों की निर्भरता भी घटी है। इसके चलते भयंकर पलायन हो रहा है। कहीं विकास के नाम पर तो कही शहरीकरण की चपेट में खेत सिमट रहे हैं , वहीं खेती में लाभ ना देख कर उससे विमुख हो रहे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है। यह हाल है देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्राी व सबसे ज्यादा सांसद देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश का। यह दुखद है कि राज्य का किसान दिल्ली या ऐसे ही महानगर में दूसरों की चाकरी करे, गांव की खुली हवा-पानी छोड़ कर महानगर की झुग्गियों में बसे और यह मानने को मजबूर हो जाए कि उसका श्रम किसी पूंजीपति के पास रेहन रख दिया गया है।
सरकारी आंकड़ों के चश्में से यदि उप्र को देखें तो प्रदेश में 24202000 हेक्टेयर भूमि है जिसमें से षुद्ध बुवाई वाला(यानी जहां खेती होती है) रकवा 16812000हेक्टेयर है जो कुल जमीन का 69.5 फीसदी है। जाहिर है कि राज्य के निवासियों की चूल्हा-चौका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन उसर या खेती के अयोग्य भी है। प्रदेश के 53 प्रतिशत लोग किसान हैं और कोई 20 प्रतिशत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चौथाई आबादी इसी जमीन से अपना अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दशकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पश्चात अब लगातार कम हो रहा है। ऐसोचेम का कहना है कि हाल के वशों में उ.प्र. का कृशि के मामले में सालाना विकास दर यानि सीएजीआर महज 2.9 प्रतिशत है, जोकि राश्ट्रीय प्रतिशत 3.7 से बेहद कम व निराशाजनक है। विकास के नाम पर सोना उगलने वाली जमीन की दुर्दशा इस आंकड़े से आंसू बहाती दिखती है कि उत्तर प्रदेश में सालाना कोई 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कंक्रीट द्वारा निगली जा रही है। वैसे तो सन 2013 की कृषि नीति में राज्य षासन ने खेती की विकास दर 5.3 तक ले जाने का लक्ष्य तय किया गया था और इसके लिए अनुबंध खेती, बीटी बीज जैसे प्रयोग भी शु रू हुए थे। लेकिन यह सब तभी संभव है जब खेती लायक जमीन, सड़क, श हर जैसे निर्माण कार्यों के बनने से बचेगी।
उत्तरप्रदेश की सालाना राज्य आय का 31.8 प्रतिशत खेती से आता है। हालांकि यह प्रतिशत सन 1971 में 57, सन 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है - या तो खेती ज्यादा फायदे का पेशा नहीं रहा या फिर दीगर कारणों से लोगों का इससे मोहभ्ंग हो रहा है। दिल्ली से सटे जिलों- गाजियाबाद, बागपत, गौतम बु़द्ध नगर जिले से बीते तीन दशकों से खेत उजड़ने का जो सिलसिला शु रू हुआ , उससे भले ही कुछ लोगों के पास पैसा आ गया हो , लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराईयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता सभी कुछ नष्ट हो गई। जिनके खेत थे, उन्हें तो कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए करीबी महानगर दिल्ली में आ कर रिक्शा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जो गांव में आधा पेट रह कर भी खुश थे, वे आज दिल्ली में ना तो खुद खुश है और ना ही दूसरों की खुशी के लिए कुछ कर पा रहे हैं। देश के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बनिस्पत निवेश का कम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या फिर चौकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं । इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे है, जोकि स्थानीय लोगों के लिए नए तरीके की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
राज्य में बड़े या मझौले उद्योगों को स्थापित करने में कई समस्याएं हैं- बिजली व पानी की कमी, कानून-व्यवस्था की जर्जर स्थिति, राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और इच्छा-शक्ति का अभाव। ऐसे में खेती पर जीवकोपार्जन व रोजगार का जोर बढ़ जाता है। इस कटु सत्य से बेखबर सरकार पक्के निर्माण, सड़कों में अपना भविश्य तलाश रही है और अपनी गांठ के खेतों को उस पर खपा रही है। यदि हाल ऐसा ही रहा तो आने वाले पांच सालों में राज्य की कोई तीन लाख हेक्टेयर जमीन से खेतों का नामोनिशान मिट जाएगा। किसान को भले ही देर से सही, यह समझ में आ रही है कि षहर व आधुनिक सुख-सुविधाओं की बातें मृगमरिचिका है और एक बार जमीन हाथ से जाने के बाद मिट्टी भी मुट्ठी में नहीं रह जाती है। मुआवजे का पैसा पूर्णिमा की चंद्र-कला की तरह होता है जो हर दिन के हिसाब से स्याह पड़ता जाता है। गांव वाले, विशेशरूप से खेती करने वाले यह भांप गए हैं कि जमीन हाथ से निकलेने के बाद उनके बच्चों की षादियां भी मुश्किल है और ऐसे परिवार वालों की संख्या, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बढ़ी है जिनके यहां वंश बढ़ाने वाला ही नहीं बच रहा है।
प्रदेश के चहुंमुखी विकास के लिए कारखाने, बिजली परियोजना और सड़कें सभी कुछ जरूरी हैं, लेकिन यह भी तो देखा जाए कि अन्नपूर्णा धरती को उजाड़ कर इन्हें पाना कहां तक व्यावहारिक व फायदेमंद है। सनद रहे कि राज्य की कोई 11 फीसदी भूमि या तो ऊसर है या फिर खेती में काम नहीं आती है। यह बात जरूर है कि ऐसे इलाकों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने में जेब कुछ ज्यादा ढीली करनी होगी। काश ऐसे इलाकों में नई परियोजना, कारखानों आदि को लगाने के बारे में सोचा जाए। इससे एक तो नए इलाके विकसित होंगे, दूसरा खेत बचे रहेंगे, तीसरा विकास ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’’ वाला होगा। हां, ठेकेदारों व पूंजीपतियों के लिए यह जरूर महंगा सौदा होग, दादरी, अलीगढ़ या गाजियाबाद की तुलना में। वैसे उप्र सरकार विश्व बैंक से उसर-बंजर जमीन के सुधार के नाम पर 1332 करोड़ का कर्जा भी ले चुकी है। यह कैसी नौटंकी है कि एक तरफ से तो करोड़ो का कर्जा ले कर सवा लाख हेक्टेयर जमीन को खेती के लायक बनाने के कागजी घोड़े दौड़ रहे हैं दूसरी आरे अच्छे-खासे खेतों को ऊसर बनाया जा रहा है।
यही नहीं इस राज्य में नकली बीज व खाद की भी समस्या निरंकुश है तो खेत सींचने के लिए बिजली का टोटा है। कृशि मंडियां दलालों का अड्डा बनी है व गन्ना, आलू जैसी फसलों के वाजिब दाम मिलना या सही समय पर कीमत मिलना लगभग असंभव जैसा हो गया हे। जाहिर है कि ऐसी घिसी-पिटी व्यवस्था में नई पीढ़ी तो काम करने से रही, सो वह खेत छोड़ कर चाकरी करने पलायन कर रही है।
जब तक खेत उजड़गे, दिल्ली जैसे महानगरों की ओर ना तो लोगों का पलायन रूकेगा और ना ही अपराध रूकेंगे , ना ही जन सुविधाओं का मूलभूत ढ़ांचा लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप होगा। आज किसानों के पलायन के कारण दिल्ली व अन्य महानगर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, कल जमीन से उखड़े ये कंुठित, बेरोजगार और हताश लोगों की भीड़ कदम-कदम पर महानगरों का रास्ता रोकेगी। यदि दिल से चाहते हो कि कभी किसान दिल्ली की ओर ना आए तो सरकार व समाज पर दवाब बनाएं कि दिल्ली या लखनऊ उसके खेत पर लालच से लार टपकाना बंद कर दे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें