हत्यारी बनती अफवाहें
पंकज चतुर्वेदी
janwani meerut |
यह एक शोध का विषय है कि इस तरह की अफवाहें फैलाने का असली मकसद क्या होता है? कोई निजी हित, व्यावसायिक हित, कोई परीक्षण या केवल परपीड़़ा का मानसिक विकार। कई बार तो अफवाहें बेहद अमानवीय और मानव-द्रोही हो जाती है। कोई चार साल पहले नेपाल और भारत के कुछ हिस्सों में जब भूकंप से आई तबाही की दिल दहला देने वाली तस्वीरें सामने आ रही थीं, जब संवेदनषील लोग व सरकारें इस आपदा से पीड़ित लोगों तक त्वरित राहत पहुंचाने के लिए चिंतित थे, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके दिमाग में भूकंप के कारणों को लेकर चुटकुले कूद रहे थे व अपनी राजनीतिक कुंठा के इस गुबार को उन्होंने सोषल मीडिया के निरंकुष हाथी पर सवार करवा दिया था। कुछ लोग एसएमएस , व्हाट्सएप और अन्य संचार माध्यमों से चांद का मुंह टेढ़ा होने, नासा के हवाले से अगले भूकंप का समय बताने जैसे अफवाहें उड़ा रहे थे। कई लोग ऐसे भी थे कि वे अंजान थे कि वे इस तरह के संदेषों को अपने परिचितों को भेज कर अपराध कर रहे हैं।
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वैसे कुछ साल साल पहले आए नए आईटी एक्ट की धारा 66 ए को समाप्त करने के लिए काफी हंगामा हुआ था लेकिन आज हवा में तैरती बगैर सिर -पैर की अफवाहों को सोशल मीडिया के जरिये मिल रही हवा पर विचार करंे तो लगता है कि ऐसे सख्त कानून अनिवार्य हैं जोकि अफवाहबाजों पर कुछ लगाम लगा सके। सनद रहे देश में गाय के नाम पर हुई अधिकांश भीड़-हत्याओं का असली कारक सोशल मीडिया का दुष्प्रचार ही रहा है। कई बार तो कम समय से खुद को मशहूर करने या कुख्यात बना कर वसूली जैसे धंधों में सहजता होने सरीखे सुनियोजित आपराधिक षडयंत्र के तहत भी लोग अपने वीडियो बना कर जानबूझ कर वायरल करते हैं। कई बार ऐसे वीडियो या संदेश एक उपद्रवी भीड की शक्ल में किसी बेगुनाह के लिए काल बन जाते हैं।
अफवाहें अब बेहद खतरनाक होती जा रही हैं- कभी बिहार में नमक की कमी का हल्ला तो कभी किसी बाबा की भविश्यवाणी पर खजाने की उत्तेजना, असल में इसके छुपे हुए मकसद कुछ और ही होते हैं। बीते सालों में घटित दुर्भाग्यपूर्ण बिसाहड़ा कांड हो या अलवर में गौ रक्षकों की गुंडागिर्दी , या फिर बिहार में रामनवमी के दंगे; हर जगह आग को भड़काने में सोषल मीडिया के जरिये फैली अफवाहों का महत्वपूर्ण भमिका रही है । यह बात सभी स्वीकार रहे हैं कि फेस बुक-ट्वीटर जैसे व्यापक असर वाले सोषल मीडिया अफवाह फैलाने वालों के पसंदीदा अस्त्र बनते जा रहे हैं, एक तो इसमें फर्जी पहचान के साथ पंजीकृत लोगों को खोजना मुष्किल होता है, फिर खोज भी लिया तो इनते सर्वर अमेरिका में होने के कारण मुकदमें को अंजाम तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त सबूत जुटाना लगभग नामुमकिन होता है। अब आईटी एक्ट की धारा 66 ए का भय भी समाप्त हो गया है जिसमें इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के माध्यम से अफवाह, गलत सूचना, मॉर्फ फोटो, फर्जी एकांड बना कर गलत सूचना देने पर कड़ी सजा का प्रावधान था। उस धारा को सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त क्या किया, अफवाही, उपद्रवी लोगों की उड़ की लग गई हैं। अब फेसबुक और ट्वीटर पर हजारों पेास्ट भड़काऊ, नकली चित्रों के साथ और आग उगलने वाली लगाई जा रही हैं ं। कहीं गाय को जिबह करने के दृष्य हैं तो कतिपय उपद्रवी विदेषी फोटो लगा कर भारत में दंगों की झूठी कहानी गढ रहे हैं। लगता है कि संचार के आधुनिक साधन लोगों को भड़काने के ज्यादा काम आ रहे हैं।
यह भी हकीकत है कि भारत में अफवाहें कभी भी सोशल मीडिया या इलेक्ट्रानिक माध्यमों की मोहताज नहीं रहीं। दो दशक पहले का गणेश जी का दूध पीना हो या कुछ साल पहले का उ.प्र-दिल्ली में रात में आने वाले बड़े बंदर की अफवाह, घरों के दरवाजे पर हल्दी के थापे या भाई को नारियल देने के संदेश, ना जाने कैसे दबे पैर समाज में आंचलिक स्थानों तक भरोसे के साथ पहुंचते रहे हैं। पंजाब में तो ब्लेक-व्हाईट मोबाई ले दौर में किी ऐसे नंबर से फोन आने वा फोन की स्क्रीन लाल होने के बाद इंसान की मौत की अफवाह ने महीनों तमाशा दिखया था। चूंंिक पहले की अफवाहें कहीं जान-माल का न ुकसान नहीं करती थीं, सो कुछ दिनों भय-तनाव के बाद लेाग उसे भूल जाते थे।, लेकिन आज तो इन अफवाहों के मंुह में खून लग चुका है।
अफवाहें फैला कर फिजा बिगाड़ने के लिए आधुनिक संचार का दुरूपयोग करने का चलन बीते छह सालों से देश में बखूबी हुआ है। बेहतर आर्थिक स्थिति के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने वाले राज्यों में अफवाहों का बाजार भी उतना ही तेजी से विकसित हो रहा है, जितनी वहां की समृद्धता । ये अफवाहें लोगों के बीच भ्रम पैदा कर रही हैं, आम जन-जीवन को प्रभावित कर रही हैं और कई बार भगदड़ के हालात निर्मित कर रही हैं । विडंबना है कि बेसिर पैर की इन लफ्फाजियों के पीछे असली मकसद को पता करने में सरकार व समाज दोनो ही असफल रहे हैं ।
अफवाहों की बयार के पीछे कुछ ऐसे संगठनों का दिनों-दिन मजबूत होना भी कहा जा रहा है जोकि झूठ को बार-बार बोल कर सच बनाने के सिद्धांत का हिमायती हैं । कहा जाता है कि किसी खबर के फैलने व उसके समाज पर असर को आंकने के सर्वें के तहत ऐसी लप्पेबाजियों को उड़ाया जा रहा है । आज तकीनीकी इतनी एडवांस है कि किसी एस एम एस का षुरूआत या सोषल साईट पर भउ़काऊ संदेष देने वाले का पता लगाना बेहद सरल है, इसके बावजूद इतने संवेदनषील मसले पर पुलिस व प्रषासन का टालू रवैया अलग तरह की आष्ंाका खड़ी करता है।
बहरहाल अफवाहों की परिणति आम लेागों में भय व तानव के साथ-साथ आपदा की आंशका व पूर्वानुमान में भ्रम, संकटकाल में चल रहे राहत कार्यों में व्यवधान, तनावग्रस्त इलाकों में स्थिति सामान्य बनाने के सरकारी व सामाजिक प्रयासों में व्यवधान के तौर पर भी होती है। अफवाहें अनैतिक व गैरकानूनी भी हैं । फिर ऐसे में संवेदनशील रहे इलाकों की सरकारों में बैठे लोगों का इस मामले में आंखें मूंदे रखना कहीं कोई गंभीर परिणाम भी दे सकता है । दुखद यह भी है कि पढ़े-लिखे लोग कई बार नासमझाी में, यहां तक कि बगैर पढ़े ही किसी भी वहाट्सएप संदेश केा आगे ढकेल देते हैं और उनके पाठक, अपने प्रेषक की वरिष्ठता और सम्मान को ध्यान में रख कर उनके संदेश को सत्य मान लेते हैं। बहरहाल अफवाहों की परिणति ‘‘ भेड़िया आया’’ वाली कहानी की तरह भी होती है । अफवाहें अनैतिक व गैरकानूनी भी हैं । दुखद है कि सरकार के स्तर पर आम जन-जीवन को प्रभावित कर रही हैं और कई बार भगदड़ और अविश्वास के हालात निर्मित कर रही अफवाहों के कारक और कारणों की खोज के कोई प्रयास नहीं हुए हैं।
पंकज चतुर्वेदी
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