कोर्ट के फैसले के बाद भी जारी रहेगा विवाद
बचपन में शायद आपमें से बहुतों ने वह तमाशा देखा होगा जिसमें मदारी किसी बच्चे को कपड़े से ढंक कर उसकी जीभ चाकू से काटने वाला होता है और वह उसे काला जादू करना कहता है। ठीक उसी समय भीड़ से कोई आदमी निकलता है, फिर उसकी मदारी से तीखी बहस होती है और फिर वह आदमी मदारी के काले जादू की काट बताकर कुछ ताबीज आदि बेच जाता है। मजमा खत्म होने के बाद जब भीड़ बिखर जाती है तो मदारी और वह आदमी पैसे आपस में बांट लेते हैं। दिल्ली में सरकार, केंद्र सरकार एवं उपराज्यपाल आदि के बीच ऐसा ही कुछ चार सालों से चल रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने एक सधा हुआ निर्णय देकर इस पर विराम लगा दिया है लेकिन भाजपा और आप लड़ने का कोई नया बहाना फिर खोज सकते हैं।
आपको याद होगा कि राजनीति में केजरीवाल की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई थी? दिल्ली में 15 साल तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित की असली ताकत एनजीओ थे। भाजपा इस चक्र को तोड़ नहीं पा रही थी और तभी ऐसे ही एनजीओ से निकले एक आम से दिखने वाले व्यक्ति को सबसे ईमानदार के तौर पर पेश कर दिया गया। रामलीला मैदान के अन्ना आंदोलन में संघ का कैडर शामिल था ही। इसीलिए बुधवार को आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केजरीवाल के प्रति सहानुभूति प्रकट करने से पहले एक बार सोच लें कि आम आदमी पार्टी (आप) के गठन का मूल आधार भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम थी और उसका नारा था, लोकपाल। तनिक याद करें कि क्या लोकपाल के लिए आप सरकार ने अभी तक कुछ किया? नहीं लेकिन दिल्ली में उप-राज्यपाल और मुख्यमंत्री के टकराव से विकास के काम नहीं हो पा रहे हैं, यह हल्ला तीन सालों से हो रहा है। इसके जरिये केजरीवाल को भाजपा के विरुद्ध प्रमुख विपक्षी दल बताने की कोशिश की जाती रही। कुछ मुकदमे, कुछ विधायकों को जेल, कुछ आरोप प्रत्यारोप, सबकुछ ठीक उसी तरह जैसे मदारी का खेल। अब सुप्रीम कोर्ट ने इतना स्पष्ट फैसला दिया है कि किसी विवाद की गुंजाइश बचना ही नहीं चाहिए।
दिल्ली जैसे अर्द्धराज्य के लिए ये दिशा-निर्देश दूरगामी हैं। कोर्ट ने कहा कि उप-राज्यपाल राज्य सरकार को सिर्फ सलाह दे सकते हैं, फैसले नहीं रोक सकते। तीन जजों की पीठ ने मिलकर कहा कि कैबिनेट के साथ मिलकर ही उप-राज्यपाल काम करें। बता दें कि चार अगस्त, 2016 को दिल्ली हाईकोर्ट ने उप-राज्यपाल यानी एलजी को दिल्ली का बॉस बताया था। उसने कहा था कि उप-राज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं और दिल्ली सरकार एलजी की मर्जी के बिना कानून नहीं बना सकती। अब चार जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर के अलावा दिल्ली विधानसभा कोई भी कानून बना सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जनता द्वारा चुनी गयी सरकार ही दिल्ली चलाएगी। फैसलों पर उप-राज्यपाल की सहमति जरूरी नहीं है। चुनी हुई सरकार के पास ही असली ताकत है। उपराज्यपाल फैसले अटकाकर नहीं रख सकते। दरअसल, दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि उप-राज्यपाल के पास फैसले लेने की समस्त शक्तियां हैं। याचिका में दिल्ली की चुनी हुई सरकार और उप-राज्यपाल के अधिकार स्पष्ट करने का आग्रह किया गया था। अब साफ हो गया कि उप-राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य हैं।
अदालत ने कहा कि दिल्ली सरकार और उप-राज्यपाल के बीच किसी खास मामले में मतभेदों की स्थिति में फाइल राष्ट्रपति के पास भेजी जाए। न्यायालय ने कहा कि उप-राज्यपाल और दिल्ली सरकार को सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम करना होगा। उपराज्यपाल को महसूस करना चाहिए कि मंत्रिपरिषद लोगों के प्रति जवाबदेह है और वह राष्ट्रीय राजधानी की सरकार के हर निर्णय को रोक नहीं सकते। पांच जजों की संविधान पीठ में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के साथ जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे। उल्लेखनीय है कि केजरीवाल की तरफ से गोपाल सुब्रमन्यम और पी. चिदंबरम ने पैरवी की। यहां यह भी याद रखना होगा कि जब कुछ विपक्षी दल न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहे थे, तब केजरीवाल से इस मुहिम से खुद को दूर रखा था। जो भी हो, अदालत का फैसला एकदम सही है। अलबत्ता, उल्लेखनीय यह भी है कि केजरीवाल सरकार को 40 महीने हो गये हैं। उसका केवल डेढ़ साल का कार्यकाल बचा है। यदि केंद्र सरकार की चली और राज्यों और लोकसभा के चुनाव साथ होने का प्रस्ताव आ गया, तो फिर केजरीवाल सरकार के पास सात-आठ महीने ही बचे हैं। इस समय दिल्ली का विकास ठप्प है, प्रदूषण जैसे मसलों पर शून्य कार्यवाही हुई है। जिन मुहल्ला क्लीनिक का ढोल पीटा गया, उनमें से अधिकांश बदतर हालत में हैं। कुछेक स्कूलों के हालात सुधरे लेकिन राज्य के स्कूलों के परीक्षा परिणाम पहले से बेहतर नहीं हुए। बिजली के बिल में फिक्स चार्ज बढ़ा कर यूनिट दर कम करने की घोषणा आम उपभोक्ता को महंगी पड़ रही है। इधर केजरीवाल ने दिल्ली को पूर्ण राज्य की मांग का आंदोलन शुरू कर दिया है। यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि अब सुनियोजित तरीके से बाकायदा विदेश से संचालित एजेंसियों की मदद से किसी अंजान की छवि चमकाई जाती है, उसे बेहद काबिल, इतिहास पुरुष घोषित कर दिया जाता है और उसका सत्ता आरोहण होता है। ठीक यही प्रक्रिया से केजरीवाल को उभारा जा रहा है। असल में इसके पीछे मुख्य खेल विपक्ष का मुख्य स्थान अपने किसी प्यादे को सुरक्षित कर देने का है। यह किसी से छिपा नहीं है कि केजरीवाल ने आज तक सांप्रदायिकता, केंद्र सरकार द्वारा लोकपाल का गठन न करने या दिल्ली में ही मेरठ एक्सप्रेस-वे जैसी परियोजना के पहली ही बारिश में धंस जाने जैसे मसले पर कभी कोई आवाज नहीं उठायी। आप के तीन चौथाई फाउंडर मेंबर आज भाजपा में ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए हैं। अब चुनाव जीतने के लिए जनता का दिल जीतने की जरूरत नहीं रह गयी है। अब इसके लिए केवल भ्रम फैलाना काफी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच नए मोर्चे खुल जाएंगे। भाजपा और आप का मकसद जनता में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने का भ्रम फैलाकर एक-दूसरे की राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का है।
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