Independent mail. bhopal 30-7-18 |
बिहार की बच्चियों का दर्द और समाज का यह मौन
कभी लगता ही नहीं है कि भारत वह देश है, जहां महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है या फिर साल की दो नवरात्रियों और न जाने कितने अवसरों पर छोटी बच्च्यिों को पैर पूजकर देवी-तुल्य माना जाता है। दिल्ली के निर्भया कांड ने भले ही सरकारें बदल दी हों, कानून में पॉक्सो एक्ट और जुड़ गया हो लेकिन नहीं बदले तो छोटी बच्चियों की अस्मिता के सवाल। कठुआ कांड में राजनीति, इंदौर में दुधमुंही बच्ची के साथ कुकर्म में एक महीनेे के भीतर फांसी की सजा या मंदसौर कांड पर हंगामा, सब कुछ बेमानी है। हमारा समाज इन सभी को एक घटना मान कर भूल जाता है और इंसानों के बीच मौजूद पिशाच बेखौफ बने रहते हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर से जो तस्वीर सामने आ रही है, वह समूचे देश के लिए शर्मनाक है।
वे बच्चियां, जो निराश्रित थीं जिनको पालने-पोसने का जिम्मा सरकार ने लिया था, जिनका पालन-पोषण जनता के पैसे से हो रहा था, उनका शारीरिक शोषण उन्हीं के संरक्षक कर रहे थे। चार बच्चियां गायब हैं। दुखद यह भी है कि इस हैवानी कृत्य में आश्रम में काम करने वाली महिला कर्मचारी भी शामिल या मौन थीं। बिहार सरकार ने सीबीआई जांच का लालीपाॅप पकड़ाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। सारा देश 2019 के चुनाव में अधिक वोट की लूट के लिए योजना का औजार बना हुआ है। छात्रावास की बच्चियों से हुए कुकर्म को पूरा सुन लें तो हमें शक होने लगेगा कि क्या हम दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दावा करने लायक हैं भी या नहीं। मीडिया कुंभ में डुबकी, राजनीतिक चितंन और पाकिस्तान से युद्ध के उन्माद में लिप्त है, जबकि बिहार की बच्चियां सोचने पर मजबूर हैं कि उनमें और दिल्ली में इतना फासला क्यों है?
बता दें कि बिहार के मुजफ्फरपुर शहर के साहू रोड पर निराश्रित बच्चियों के लिए राज्य शासन द्वारा एक आश्रम संचालित होता है। इस बालिका गृह के संचालन का जिम्मा स्वयंसेवी संस्था 'सेवा संकल्प एवं विकास समिति' को 24 अक्टूबर, 2013 को सौंपा गया था। यह संस्था एक नवंबर, 2013 से इसका संचालन कर रही थी। राज्य सरकार ने ही टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेस को राज्य के बाल एवं बालिका गृहों के सोशल ऑडिट का जिम्मा 30 जून, 2017 को सौंपा था। उसने सरकार को इसी वर्ष 27 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट में मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में यौन हिंसा, अमानवीय व्यवहार और उत्पीड़न की घटनाओं का उल्लेख किया गया था। रिपोर्ट के आधार पर 30 मई, 2018 को महिला थाना, मुजफ्फरपुर में प्राथमिकी दर्ज करायी गयी। उसके लगभग दो महीने बाद कार्रवाई की सुगबुगाहट हुई। यह समूचे सिस्टम के सड़ जाने की बानगी है।
बीते 55 महीने में वहां 47 लड़कियों की इंट्री हुई। इनमें से तीन की मृत्यु हो गयी। वर्ष 2015 में एक लड़की, जबकि वर्ष 2017 में दो की मृत्यु हुई थी। इनमें दो लड़कियों की मौत अस्पताल में हुई थी। बालिका गृह के रिकॉर्ड में तीन लड़कियां गायब थीं। जब ज्यादा होहल्ला हुआ तो बालिका गृह की कुल 44 में से 42 बालिकाओं की मेडिकल जांच करायी गयी। इनमें से 34 बालिकाओं के साथ दुष्कर्म की पुष्टि हुई है। ये लड़कियां कुपोषण की शिकार हैं। उनके शरीर पर जलाकर दागने और चोटों के निशान हैं। बच्चियों को नशा दिया जाता था। आश्रम से मिर्गी में बेहोश करने के लिए दिये जाने वाले इंजेक्शन भी जब्त हुए हैं। कई लड़कियों के गर्भवती होने, कुछ को मार कर गायब कर देने की बातें भी समने आ रही हैं। जब आश्रयदाता ही हैवान बन जाए तो किस पर भरोसा हो?
लड़कियों के बयान के आधार पर गिरफ्तार लोगों में सबसे चर्चित नाम ब्रजेश ठाकुर का है, जो इस आश्रम को चलाने वाले एनजीओ का संचालक है। उसके पिता राधामोहन ने सन 1982 में 'प्रातःकमल' के नाम से एक अखबार प्रारंभ किया था। बाद में ब्रजेश ने अपने पिता की विरासत को विस्तार देकर एक अंग्रेजी और एक उर्दू अखबार भी शुरू किया। जमीन के धंधे से भी अकूत दौलत कमायी। रुतबा इतना कि सन 2005 में उसके बेटे के जन्मदिन पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार खुद उसके घर गये थे। यह किसी से छिपा नहीं है कि ब्रजेश के अखबारों को राज्य सरकार के सबसे ज्यादा विज्ञापन क्यों मिलते हैं? बच्चियों के लिए बना आश्रम, ब्रजेश का घर और तीनों अखबारों के कार्यालय परस्पर सटे हुए हैं। कह सकते हैं कि एक ही परिसर में हैं। पैसे का रुतबा, आखबार-नवीसी की ठसक और अफसर-नेताओं की संलिप्तता से यह पाप सालों तक होता रहा। तभी यहां की लड़कियों को बाहर भेजने, दोस्तों को भीतर लाने व हर दिन लड़कियों की अस्मत से खेलने के घिनौने कृत्य की खबरें बाहर नहीं आ पायीं। ये बच्चियां उस समाज से आती हैं, जो शोषण को अपनी नियति मानता है। इन्हें दबाना, चुप करना आसान होता है। जिस उम्र में इन्हें अपनी मां के आंचल में होना चाहिए, उसमें वे उज्जवल भविष्य की उम्मीदों के साथ घर से दूर रह रही थीं। अब ये बच्चियां कभी बाहरी समाज पर भरोसा नहीं कर पाएंगी। यह विडंबना ही है कि इन बच्चियों के साथ घिनौना काम करने वालों के प्रति कहीं जन आक्रोश जैसी बात सामने नहीं आ रही है। यदि सरकार इन बच्चियों को सुरक्षित, स्वस्थ और सकारात्मक माहौल नहीं दे सकती, तो बेहतर होगा कि उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाता।
एक बात और, यह कहानी केवल मुजफ्फरपुर के आश्रम की ही नहीं है। टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेस ने बिहार के कई अन्य आश्रमों में भी ऐसे ही हालात होने की आशंका जतायी है। शक तो यह भी है कि कई आश्रमों में एक संगठित गिरोह यह सब कर रहा था। विडंबना यह है कि दिल्ली इस पाशविकता से निर्विकार है। वहां कोई मोमबत्ती या जुलूस-जलसा नहीं। एक बात जान लें कि इन बच्चियों की देखभाल पर हमारे-आपके कर से व्यय हो रहा था। यानी हम भी उनके पालकों में से एक हुए लेकिन हमारा मौन हमारे ही गैर-जिम्मेदाराना रवैये को उजागर कर रहा है। कभी उन छोटी बच्चियों से मिलें, उनकी आंखों से बहते हुए आंसुओं और मौन को पढ़ें, लगता है कि वे पूछ रही हैं कि उनका दर्द इंडिया गेट पर भीड़ क्यों नहीं जुूटा पाया? हंसने-खेलने के दिनों में जीवन के प्रति उनकी निराशा हर देशवासी से सवाल करती दिखती है कि क्या मेरी देह का दंश आपको भीतर से झकझोरता नहीं है?
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