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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

rise in paper price can be hurdle in knowledge extension in India

कागज  : चीन का बढ़ता एकाधिकार 


पंकज चतुर्वेदी 

पिछले कुछ महीनों के दौरान कागज के दाम अचानक ही आसमान को छू रहे हैं, किताबों छापने में काम आने वाले मेपलीथों के 70 जीएसएम कागज के रिम की कीमत हर सप्ताह बढ़ रही है। इसका सीधा असर पुस्तकों पर पड़ रहा है। भारत में मुदण्रउद्योग दुनिया की सबसे तेज बढ़ रहे व्यापार में गिना जाता है। हो भी क्यों न-हमारे यहां साक्षरता दर बढ़ रही है, उच्च शिक्षा के लिए नामांकन आंचलिक क्षेत्र तक उत्साहजनक हैं। फिर दैनिक उपभोग के उत्पादों के बाजार में भी प्रगति है। इसलिए पैकेजिंग इंडस्ट्री में भी कागज की मांग बढ़ रही है। गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि चीन एक सुनियोजित चाल के तहत दुनिया के कागज के कारोबार पर एकाधिकार करने की फिराक में है। जाहिर है कि इसका असर भारत में ज्ञान-दुनिया पर भी पड़ रहा है। 
भारत में 20.37 मिलियन टन कागज की मांग है, जो 2020 तक 25 मिलियन टन होने की संभावना है। मुदण्रमें कागज की मांग की वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत सालाना है, तो पैकेजिंग में 8.9 फीसद। लगभग 4500 करोड़ सालाना के कागज बाजार की मांग पूरी करने के लिए कहने को तो 600 कागज कारखाने हैं, लेकिन असल में मांग पूरी करने के काबिल बड़े कारखाने महज 12 ही हैं। वे भी एनसीईआरटी जैसे बड़े पेपर खपतकर्ता की मांग पूरी नहीं कर पाते। अनुमान है कि पाठ्यपुस्तकें छापने वाले एनसीईआरटी को हर साल 20 हजार मीट्रिक टन कागज की जरूरत होती है। कोई भी कारखाना यह जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं कर पाता। असम में संचालित एकमात्र सरकारी कारखाने हिंदुस्तान पेपर लिमिटेड को सरकार ने पिछले साल ही बंद कर दिया। अब सारा दारोमदार निजी उत्पादकों पर है। जान लें कि दुनिया में सर्वाधिक कागज बनाने वाले तीन देश हैं-चीन, अमेरिका और जापान। तीनों दुनिया की सालाना मांग 400 मिलियन टन का लगभग आधा कागज उत्पादन करते हैं। चूंकि हमारे कारखाने छोटे हैं, और उनकी उत्पादन कीमत ज्यादा आती है, इसलिए गत एक दशक के दौरान चीन के कागज ने वैसे ही हमारे बाजार पर कब्जा कर रखा है। सभी जानते हैं कि भारत के कागज कारखाने पेड़ के तने और बांस से निर्मित पल्प या लुगदी की कच्ची सामग्री से कागज बनाते रहे हैं। जंगल कम होते जाने से पल्प का संकट खड़ा हुआ तो रिसाइकिल पेपर की बात सामने आई। विडंबना है कि हमारे कई कारखाने अपनी तकनीक को पुराने रद्दी पेपर से तैयार लुगदी से कागज बनाने में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पल्प की कमी के चलते स्थानीय उत्पाद के कागज के दाम ज्यादा आ रहे हैं। यहां जानना जरूरी है कि क्रॉफ्ट पेपर, बोर्ड, पोस्टर जैसे उत्पाद पैकेजिंग उद्योग में काम आते हैं। चूंकि पैकेजिंग में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर अब सख्ती हो रही है, इसलिए कागज की पैकेजिंग इंडस्ट्री दिन-दुगनी, रात चैगुनी प्रगति कर रही है। चूंकि इस तरह की पैकेजिंग में महंगे, खाने आदि के सामान पैक होते हैं, इसलिए इसमें कागज की क्वालिटी का ध्यान रखा जाता है। वहीं पुस्तक या अखबार छापने में अधिकांश इस्तेमाल मैपलिथो या पेपर प्रिंट के लिए रिसाइकिल से काम चल जाता है। क्रीम वाव, कॉपियर और आर्ट पेपर के लिए बेहतर कच्चे माल की जरूरत होती है। अब जंगल कटाई पर रोक और पेपर मिलों के लिए बांस की सीमित सप्लाई के चलते बेहतर कागज का पूरा बाजार चीन के हाथों में जा रहा है। पहले तो चीन पेपर पल्प के लिए पेड़ों और रद्दी कागज के रिसाइकिल का उत्पादन स्वयं कर रहा था, लेकिन अब उनके यहां भी जंगल कम होने का पर्यावरणीय संकट और कागज रिसाइकिल करने की बढ़ती मांग और उससे उपजे जल प्रदूषण का संकट गंभीर हो रहा है, इसलिए चीन ने सारी दुनिया से पल्प मनमाने दाम पर खरीदना शुरू कर दिया। भारत से भी बेकार कागज, उसका पल्प पर चीन की नजर है। इसी के चलते हमारे यहां कागज का संकट गहरा रहा है। भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल सांस्कृतिक-सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाशन क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है। पिछले पांच वर्षो से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रही है। लेकिन बढ़ते पर्यावरणीय संकट के चलते इसके विकास में विराम की प्रबल संभावना है। जरूरत है कि पल्प के आयात पर पूरी तरह रोक लगे, रद्दी कागज के आयात पर शुल्क समाप्त हो और कागज के प्रत्येक कारखाने को अपने स्तर पर रिसाइकिल पल्प बनाने की आधुनिकतम मशीनें लगाने के लिए सहयोग मिले। चीन ने कागज उद्योग के माध्यम से हमारी पठन-अभिरुचि पर नियंतण्रकिया तो हमारी बौद्धिक संपदा के विस्तार पा रहे अभियान को नुकसान होगा। 

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