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शुक्रवार, 29 मई 2020

Reverse migrated women can change face of rural India

अपनी मिट्टी की तकदीर बदल देंगी घर लौटी महिलाएं

पंकज चतुर्वेदी

कोरोना वायरस के कारण हो रहे लंबे लॉकडाउन के कारण अनुमान है कि आने वाले कुछ महीनों में कोई छह करोड़ लोगों के सामने नौकरी का संकट खड़ा होगा। देश  के कुल रेाजगार का 88 प्रतिश त गैरनियोजित क्षेत्र से आता है और यही देश  की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।  लॉकडाउन की घोशणा होते ही श हरों व औद्योगिक क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्र के कर्मचारियों गांव लौटने का जो सिलसिला शुरू  हुआ, वह पचास दिन बाद भी जारी है।  विभिन्न माध्यमों से आई छबियां बानगी हैं कि अपने घरों की ओर पैदल लौट रही इस जज्बाती भीड़ का बड़ा हिस्सा आधी आबादी भी है। यह विस्थापन, इसके पीछे के कारण-अव्यवस्थाएं आदि को यदि परे रखे दें  तो यह बात सारी दुनिया स्वीकार करेगी कि भारतीय महिलाओं जैसा जीवट, परिश्रम, इच्छाशक्ति और सहनशीलता शा यद ही और कहीं मिलें।  कहीं गर्भवती महिला कई सौ किलोमीटर चल रही है तो कहीं बच्चों को कंधे पर लादे वह दौड़ रही है। दूसरी तरफ इस लंबे बंदी-काल और छोटी-मझौली कंपनियों के सामने खड़े वित्तीय संकट ने होटल, आईटी, पर्यटन जैसे कई कार्यो में लगी महिलाओं को बेरोजगारी की श्रेणी में खड़ा कर दिया है और ऐसी कई महिलाएं अपने घर लौट रही हैं।
जरा गौर करें, ये कारखानों या निर्माण कार्य में लगी औरतें हों या कार्यालय संभालने वाली युवतियां, जब ये अपने दूरस्थ कस्बों-गांव से चली थीं तो एक अकुश ल या कच्ची मिट्टी की मांनिंद थीं। आज वे महानगरों की चुनौतियों, दवाब में लक्ष्य को पूरा करने की काबिलियत के साथ-साथ किसी न किसी कार्य को करने में पारंगत हो कर घर लौट रही हैं। यदि श्रम शक्ति का सकारात्मक इस्तेमाल पर दूरगामी योजना बनाई जाए तो यही सरकार के लिए सटीक समय है कि देश  की अर्थ गतिविधियों को फिर से ग्रामीण अंचल तक ले जाया जा सकता है। इसे भविष्य की संभावना के रूप में देखें तो ‘आपदा’ को ‘अवसर’ के रूप में भी बदला जा सकता है। इसमें आत्म निर्भरता का व्यापक स्वरूप छिपा है, गृह और कुटीर उद्योग की संभावनांए छिपी हैं।
कोरोना की त्रासदी को अवसर में बदलने के संकल्प का उदाहरण ग्वालियर की वे महिलाएं हैं जो कि गांव की हैं। जिले में आठ महिला समूहों की सदस्यों ने मास्क बनाना शुरू कर दिया है। ये मास्क फूलबाग स्थित हाट बाजार में सरकार द्वारा तय रेट 10 रुपए प्रति नग की दर से उपलब्ध कराए जा रहे हैं। जबकि, बाजार में इन्हें 25 रुपए तक बेचा जा रहा है। अभी तक यह समूह एक लाख मास्क बना चुका हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में समूहों की महिला सदस्यों ने मास्क बनाने का काम शुरू कर दिया है। अभी तक 1927 समूहों द्वारा 25 लाख 42 हजार से अधिक मास्क तैयार किये  जा चुके हैं। इसके साथ ही, 26 हजार 431 लीटर सेनेटाइजर , 3 हजार 866 पी.पी.ई. किट्स भी तैयार किए जा चुके हैं। इन समूहों द्वारा 52 हजार 246 हेंड-वाश साबुन  का भी उत्पादन  किया गया है।
उ.प्र. के श्रावस्ती खादी ग्रामोद्योग बोर्ड से मिले दो हजार मीटर सूती कपड़े से 38 समूह की महिलाएं मास्क बना रही हैं। इसके लिए भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक की ओर से तय मानक का पालन किया जा रहा है। थ्री लेयर के मास्क की कीमत 13 रुपये 60 पैसे रखे गए हैं। इसमें चार रुपये प्रति मास्क सिलाई का भुगतान है। झारखंड के गिरिडीह जिले में की महिलाएं मास्क और सैनिटाइजर बनाने का काम कर रोजाना 500 से 800 रुपया तक कमा रही हैं। ये महिलाएं अब तक 1 लाख 40 हजार से ज्यादा मास्क और 1 लाख बॉटल से ज्यादा सैनिटाइजर बना चुकी हैं। गांडेय स्वयं सहायता समुह की महिला रेखा देवी ने बताया की इस कोरोना बंदी में वे काम कर रही हैं जिससे अच्छी आमदनी हो रही हैं और घर परिवार का वे ठीक से भरण-पोषण कर पा रही हैं । वे 150 से 200 मास्क प्रत्येक दिन बना रही हैं । प्रति मास्क बनाने के लिए उन्हें 5 रुपया मिल रहा हैं । पैसे का भुगतान प्रत्येक दिन मिल जाता हैं जिससे वे काफी खुश हैं।
आंध्र प्रदेश में स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी करीब 40,000 महिलाएं मास्क बनाकर प्रतिदिन 500 रुपये कमा रही हैं. ये महिलाएं के प्रसार को रोकने के लिए प्रदेश भर के लोगों के बीच 16 करोड़ मुफ्त मास्क बांटने के राज्य सरकार के कार्यक्रम के तहत कार्य कर रही हैं। प्रत्येक नागरिक को तीन मास्क प्रदान करने के सरकार के कार्यक्रम ने महिलाओं को एक ऐसे समय में रोजगार दिया है, जब लोग कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण बड़ी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। स्वयं सहायता समूह 3.5 रुपये प्रति मास्क की दर से मास्क बना रहे हैं । यहां 40,000 महिला दर्जी प्रतिदिन 500 रुपये कमा रही हैं।
देषभर के कुछ ये ऐसे उदाहरण है जो बताते हैं कि यदि महिलाओ को अवसर और दिषा मिल जाए तो वह अपनी मेहनत और लगन के बदौलत कुछ भी हांसिल कर लेती है। सवा अरब की आबादी वाले हमारे देष में कोरोना ने मास्क की मांग बढ़ा दी और यह जान लें कि जापना-चीन-ताईवान की तरह मास्क अब भारतीय षहरी जीवन का अभिन्न अंग बन रहा है। एक अनुमान है कि अभी भी देष में हर महीने बीस करोड़ लाख से ज्यादा मास्क की मांग है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में ये घर लौट गई औरतें  बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
यह सटीक समय है कि हर जिले के हर गांव में वापिस लौट रही महिलाओं का एक रिकार्ड तैयार कर लिया जाए जिसमें उनकी आयु, वे क्या काम करते थे,कहां करते थे , षैक्षिक योग्यता का उल्लेख हो। साथ ही इसकी जानकारी भी हो कि उनके पति(यदि विवाहित हैं तो) क्या काम करती थे ,, उनके बच्चे स्कूल जाते थे या नहीं । इन लोगों को फिर से महानगर जाने से रोकने की  सबसे बड़ी चुनौती रोजगार की है । यदि अपने गांव में ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों , कृशि उत्पादों का उचित प्रबंधन, कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने की दूरगामी योजना प्रत्येक जिले में निर्माण या अन्य कार्य में  योग्यता के अनुसार लोगों को रोजगार देने की पहल की जाए तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का सुदृढीकरण कठिन नहीं होगा। महानगरों की भीड़ कम होने से वहां मूलभूत सुविधाएं ध्वस्त होने, पर्यावरणीय संकट जैसी दिक्कतों से छुटकारा मिलेगा व उस पर व्यय होने वाले सरकारी बजट में कमी आएगी।  इस प्रक्रिया से ग्रामीणेां की लगन, प्रतिभा और कौशल का उपयोग हो सकेगा एवं स्थानीय स्तर पर  श्रम शक्ति को कुशलता से रोजगार की संभावना प्रबल होगी। मनरेगा या स्थानीय निर्माण कार्य में श्रकिों की आपूर्ति भी इसी डाटा बैंक से की जा सकती है।
यह जान लें कि  पलायन रोकने व स्थानीय रोजगार के लिए जिला स्तर की ओर आने वाली सड़कों पर ही रोजगार के साधन स्थापित करना जरूरी है। जैसे कि देष में इन दिनों कई जगह टमाटर की बंपर फसल को सड़क पर फैंका जा रहा है या आलू के माकूल दाम नहीं मिल रहे या कर्नाटक में अंगूर व बस्तर में मिर्ची की बंपर फसल की बेकदरी है। इन सभी स्थानों पर दस से पचास लाख लागत के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की स्थापना से किसान से ले कर महिलाओं तक व षिक्षित लोगों को विपणन से ले कर कार्यालयीन कार्य तक में रोजगार दिया जा सकता हैं। यदि यह कार्य कुछ कंप्यूटर षिक्षित हिलाएं, कुछ एमबीए और इंजीनियर लड़किया मिल कर कर लें तो बड़ा बदलाव होगा।
किसी छोटे कस्बे या गांव में कम चर्चित स्थान को ले कर पर्यटन की संभावना विकसित करनाइंटरनेट के माध्यम से स्थान को चर्चित करना, उसका टूर पैकेज बनाना , स्थानीय घरों को प्रषासन की अनुमति से पर्यटकों के लिए तैयार करने जैसे काम से महिलाएं अपने मूल-स्थान पर रह कर वैष्विक व्यापार व प्रसिद्धि दोनों पर सकती हैं।
यह माकूल समय है कि महिलाएं ग्रामीण स्तर पर सहकारी खेती, दुग्ध उत्पादों   और फसल का सहकारी भंडारण, विपणन को अपने हाथ में लें ।  सबकुछ अपेक्षा कस्बे-गांव वालों से ही ना की जाए, जरूरी है कि आंचलिक स्तर पर षिक्षा, स्वास्थय, पेयजल, सड़क परिवहन पर भी काम करना होगा और इसकी कार्ययोजना जिला स्तर पर ही बने। इस कार्य में भी ये महिलाएं  सर्वें, योजना तैयार करने, क्रियान्वयन में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। जब ग्रामीण स्तर पर औरतों के हाथ पैसाहोगा तो बाजार- चाहे षिक्षा का हो या स्वास्थ्य का, खुद ब खुद गांव की तरफ जाएगा।
पषु धन, मुर्गी व मछली पालन, निरामिष भोजन का स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण , अनाज रखने के लिए बोरे तैयार करना, पॉलीथीन पाबंदी की दषा में कपड़ों के थैले या तात्कालिक मांग के अनुसार मास्क व गमछे तैयार करना , लाख, रेषम, मधुमक्खी पालन के साथ नारियल, जड़ीबूटी , बांस की खेती, स्थानीय भोज्य, षिल्प व अन्य पदार्थों की इंटरनेट की मदद से वैष्विक मार्केटिंग भी ऐसा कदम हो सकता है जो महिलाओं को घर-गांव में ही रोजगार दे। 

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