विकास के नाम पर उजड़ रही हरियाली
पंकज चतुर्वेदी
असम में तिनसुकिया, डिब्रुगढ़ और सिवसागर जिले के बीच स्थित देहिंग पतकली हाथी संरक्षित वन क्षेत्र के घने जंगलों को ‘पूरब का अमेजन’ कहा जाता है। कोई 575 वर्ग किलोमीटर का यह वन 30 किस्म की विलक्षण तितलियों, 100 किस्म के आर्किड सहित सैंकड़ों प्रजाित के वन्य जीवों व वृक्षों का अनूठा जैवविधिता संरक्षण स्थल है। कई सै साल पुरानें पेड़ों की घटाघोप को अब कोयले की कालिख प्रतिस्थापित कर देगी क्योंकि सरकार ने इस जंगल के 98.59 हैक्टर में कोल इंडिया लिमिटेड को कोयला उत्खनन की मंजूरी दे दी है। यहां करीबी सलेकी इलाके में कोई 120 साल से कोयला निकाला जा रहा है। हालांकि कंपनी की लीज सन 2003 में समाप्त हो गई और उसी साल से वन संरक्षण अधिनियम भी लागू हो गया, लेकिन कानून के विपरत वहां खनन चलता रहा और अब जंगल के बीच बारूद लगाने, खनन करने, परिवहन की अनुमति मिलने से तय हो गया है कि पूर्वोत्तर का यह जंगल अब अपना जैव विविधता भंडार खो देगा। यह दुखद है कि भारत में अब जैव विविधता नश्ट होने, जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के दुश्परिणाम तेजी से सामने आ रहे हैं फिर भी पिछले एक दषक के दौरान विभिन्न विकास परियोजना, खनन या उद्योगों के लिए लगभग 38.22 करोड़ पेड़ काट डाले गए। विष्व के पर्यावरण निश्पालन सूचकांक(एनवायरमेंट परफार्मेंस इंडेक्स) में 180 देषों की सूची में 177वें स्थान पर हैं।
गत मार्च महीने के तीसरे सप्ताह से भारत में कोरोना संकट के चलते लागू की गई बंदी में भले ही दफ्तर-बाजार आदि पूरी तरह बंद हों लेकिन 31 विकास परियोजनाओं के लिए 185 एकड़ घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति देने का काम जरूर होता रहा। सात अप्रैल 2020 को राश्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्लूएल ) की स्थाई समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेस पर आयोजित की गई ढेर सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए घने जंगलों को उजाड़ने की अनुमति दे दी गई। समिति ने पर्यावरणय दृश्टि से संवेदनषील ं 2933 एकड़ के भू-उपयोग परिवर्तन के साथ-साथ 10 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र की जमीन को भी कथित विकास के लिए सौंपने पर समिति सहमत दिखती है। इस श्रेणी में प्रमुख प्रस्ताव उत्तराखंड के देहरादून और टिहरीगढवाल जिलों में लखवार बहुउद्देशीय परियोजना (300 मेगावाट) का निर्माण और चालू है। यह परियोजना बिनोग वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से 3.10 किमी दूर स्थित है और अभयारण्य के डिफ़ॉल्ट ईएसजेड में गिरती है। परियोजना के लिए 768.155 हेक्टेयर वन भूमि और 105.422 हेक्टेयर निजी भूमि की आवश्यकता होगी। परियोजनाओं को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी को पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने निलंबित कर दिया था। इसके बावजूद इस परियोजना पर राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा विचार किया जा रहा हे।
समिति द्वारा जंगल उजाड़ने के लिए दी गई अनुमति में पष्चिम घाट भी है और पूवौत्तर भारत भी। गुजरात के गिर षेर अभ्यरण में बिजली के केबल विछाने की येाजना भी है तो तेलंगाना के कवाल टाइगर रिजर्व, में रेलवे लाईन बिछाने का काम भी। यहां मखौड़ी और रेचन रोड रेलवे स्टेशनों के बीच तीसरी रेलवे लाइन बिछाने के लिए 168.43 हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरित किया जा रहा है़। प्रस्तावित रेलवे लाइन कवाल टाइगर रिजर्व के बाघ गलियारे के बीच से गुजरेगी जो इसे महाराष्ट्र में ताडोबा-अंधेरी टाइगर रिजर्व और छत्तीसगढ़ में इंद्रावती टाइगर रिजर्व से जोड़ती है। तेलंगाना में ही ईटानगरम वन्य अभ्यारण के भीतर गोदावरी नदी पर बैराज बनाने के लिए कोई 9.96 हैक्टर जंगल को काटने की अनुमति दे दी गई। डम्पा टाइगर रिज़र्व, मिज़ोरम के भीतर खडेचेरा - डेमचेर्रा - ज़मंगु - कांजमुन - तुइलुइकवा (केडीकेटी) सड़क के चौड़ीकरण और सुधार के लिए 1.94 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित कर दिया गया।
यह किसी से छुपा नहीं है कि दक्षिण भारत में स्थित पष्चिमी घाट देष की कुल जैव विविधता के तीस फीसदी का भंडार है और पर्यावरणीय संतुलन के मामले में वह सघन वन क्षे़ बहुत संवेदनषील है। इसे यूनेस्को ने ‘विष्व विरासत’ घोशित कर रखा है। इसके बावजूद हुबली-अंकोला रेलवे लाईन के लिए इस क्षेत्र के 596 हैक्टर जंगल काटने की अनुमति दे दी गई। इस रेल लाईन का 80 फीसदी हिस्सा घने जंगल के बीच से गुजरेगा। जाहिर है कि रेल में लगे डीजल इंजन के धुएं, ट्रेन का षोर, उससे गिरने वाला कचरा आदि सदियों पुराने जंगल और जल-संरचनाओं के नैसर्गिक स्वरूप को नश्ट करेंगे। इस रेल केलिए पटरियां डालने के लिए 595.64 हैक्टर के घने जंगल और 104.64 हैक्टर वेट लैंड को उजाड़ा जाएगा। इसके लिए कोई 2.2 लाख पेड़ काटे जाने का अनुमान प्रोजेक्ट रिपोर्ट में किया गया है। कर्नाटक में ही कैगा परमाणु घर परियोजना 5 और 6 के विस्तार के लिए 54 हैक्टर जंगल से 8700 पेड़ कोटे जाने को अनुमति दे दी गई। गोवा-कनार्टक सीमा पर राश्ट्रीय राजमार्ग 4 ए की चार लेन विस्तार के लिए अनमोद-मोल्लम सेक्षन में भगवान महावीर वन्य जीव अभ्यारण के एक हिस्से को उजाड़ा जा रहा है। यह भी पष्चिमी घाट पर एक बड़ा हमला है। इस परियोजना के लिए 32.085 हेक्टेयर वन भूमि की आवश्यकता है, जिसमें से 31.015 हेक्टेयर महावीर वन्यजीव अभयारण्य में स्थित है। बिजली लाईन डालने की नरेंद्र (मौजूदा) और प्रस्तावित नरेन्द्र (नई) परियोजना के लिए गोवा के क्यूपेम तहसील में स्लेडेम के पास जंगल उजाड़ने की अनुमति दे दी गई।
दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय के पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुला कर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविश्य के लिए खतरा बनी हुई हैं। गत नवरंब -2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाशा में बदलाव का असल उद्देष्य ऐसे कई इलाकांे को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं। उत्त्राखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे। यही नहीं सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के से भी गुजर रहा है ।.उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाने का प्रावधान है। कोई 12 हजार करोड़ रुपए के अलावा ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृति हो चुकी है, जिसमें ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगे और पुल निकाले जाएंगें। सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है।
राजस्थान के मुकंदरा हिल्स टाईगर परियोजना में इको सेंसेटिव जोन दस किलोमीटर के घटा कर महज एक किलोमीटर कर दिया गया ताकि घने जंगल और बाघ के इलाके के भीतर भी चूना पत्थर व अन्य खनिज की खुदाई की अनुमति मिल सके। इस बदलाव से जंगल के भीतर बसे 75 गांव भी अब वन-ग्राम ना हो कर राजस्व गांव हो गए हैं और यहां पेड़ काटने की कई छूट लागू हो गई हैं।
एक मोटा अनुमान है कि सन 1951 के बाद भारत में कोई पांच हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को उजाड़ा गया। जंगल का अपना एक चक्र हुआ करता था , सबसे भीतर घने ,ऊँचे पेड़ों वाले जंगल, गहरी घास जो कि किसी बाहरी दखल से मुक्त रहती थी , वहां मनुष्य के लिए खतरनाक जानवर शेर आदि रहते थे . वहीं ऐसे सूक्ष्म जीवाणुओं का बसेरा होता था जो यदि लगातार इंसान के सम्पर्क में आये तो अपने गुणसूत्रीय संस्कारों को इन्सान के शरीर के अनुरूप बदल सकता था । इसके बाहर कम घने जंगलों का घेरा- जहां हिरन जैसे जानवर रहते थे। माँसाहारी जानवर को अपने भोजन के लिए महज इस चक्र तक आना होता था और इंसान का भी यही दायरा था। उसके बाद जंगल का ऐसा हिस्सा जहां इंसान अपने पालतू मवेशी चराता, अपनी इस्तेमाल की वनोपज को तलाशता और इस घेरे में ऐसे जानवर रहते जो जंगल और इंसान दोनों के लिए निरापद थे । तभी इस जंगल-पिरामिड में शेर कम, हिरन उससे ज्यादा, उभय- गुनी जानवर उससे ज्यादा और उसके बाहर इंसान , ठीक यही प्रतिलोम जंगल के घनेपन में लागू होता । जंगलों की अंधाधुंध कटाई और उसमें बसने वाले जानवरों के प्राकृतिक पर्यावास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए और इससे जानवरों के वायरसों के इंसान में संक्रमण और इंसान के शारीर के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता भी विकसित हुई। .
खासकर खेती के कारण , भूमि के बदलते इस्तेमाल ने जन्तुजन्य रोगों की राह इंसान तक आसान कर दी है. जहां वन्यजीवों की विस्तृत जैव विविधता पर इंसान की घनी आबादी का साया पड़ा , वहां ऐसे रोग संक्रमण की अधिक संभावना होती है . तीन तरीकों से जैव विविधता के साथ छेड़छाड़ के दुष्परिणाम भयानक बीमारियों के रूप में सामने आते हैं । पहला, पारिस्थिकी तंत्र में छेड़छाड़ के कारण इंसान और उसके पालतू मवेशियों का वन्य जीवों से सीधा संपर्क होना , दूसरा , चमगादड़ जैसे जानवर जो कि इंसानी बस्तियों में रहने की आदि हैं, का इंसान या उनके मवेशियों से ज्यादा संपर्क होना . तीसरा, सरलीकृत पारिस्थितिक तंत्र में इन जीवित वन्यजीव प्रजातियों द्वारा अधिक रोगजनकों का संक्रमण होता है। जनसंख्या और उनके मवेशियों की तेजी से बढती आबादी का सीधा अर्थ है कि वन्यजीवों की प्रजातियां और उनके द्वारा वाहक रोगजनकों से अधिक से अधिक संपर्क। जाहिर है कि आज घने जंगल को उजाड़ना महज एक हरियाली को नश्ट करना मात्र ही नहीं है, बल्कि इंसान के लिए कई अंजान जंतु-जनित बीमारियों का न्यौता देना भी है।
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