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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

Say no to crackers to enjoy traditions of Deewali

 दीवाली की मूल भावना को भी समझो




एक तो जहरीली हवा और फिर कोरोना का खतरा, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 07 से 30 नवंबर तक  आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी की सलाह दी है। राजस्थान सरकार ने तो इस पर अमल के आदेश भी दे दिए है। विडंबना यह है कि कुछ लोग इसे दीपावली मनाने की परंपरा पर अदालती दखल या दीपावली-विरोधी या हिंदू-विरोधी आदेश  बता रहे है। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होनो के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों, से ले कर कस्बों तक के हैं। 



सनातन धर्म का प्रत्येक पर्व-त्योहार एक वैज्ञानिक, तर्कसंगत और समय व काल के अनुरूप होता है। उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलयुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है।  श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की परंपरा बेहद प्रचीन रही है। फिर द्वापर युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जला कर उनका स्वागत किया। 

हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। कहा जाता है कि पटाखे चलाने का कार्य देश  में मुस्लिमों के आने के बाद शुरू  हुआ था। हालांकि अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कह दिया कि दिल्ली एनसीआर में आतिश बाजी खरीदी-बेची नहीं जाएगी। लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है। 



दीपावली की असल भावना को ले कर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सहअस्तित्व की अनिवार्यता है। विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई हे। अभी दीपावली से दो हफ्ते पहले ही देश की राजधानी दिल्ली की आवोहवा इतनी जहरीली हो गई है कि हजारों ऐसे लेाग जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, उन्हें मजबूरी में शहर छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि अभी आतिशबाजी शुरू नहीं हुई है। अभी तो बदलते मौसम में भारी होती हवा, वाहनों के प्रदूषण, धूल व कचरे को जलाने से उत्पन्न धुंए के घातक परिणाम ही सामने आए हैं।  

भारत का लोक गर्मियों में खुले में छत पर सोता था,। किसान की फसल तैयार होती थी तो वह खेत में होता था। दीपावली ठंड के दिनों की शुरूआत होता है। यानि लोक को अब अपने घर के भीतर सोना शुरू करना होता था। पहले बिजली-रोशनी तो थी नहीं। घरों में सांप-बिच्छू या अन्य कीट-मकोड़े होना आम बात थी। सो दीपावली के  पहले घरें की सफई की जाती थी व घर के कूड़े को दूर ले जा कर जलाया जाता था। उस काल में घर के कूड़े में काष्ठ, कपड़ा या पुराना अनाज ही हेाता था। जबकि आज के घर कागज, प्लास्टिक, धातु व और ना जाने कितने किस्म के जहरीले पदार्थों के कबाड़े से भरे होते हैं। दुखद है कि हम साल में एक दिन बिजली बंद कर ‘पृथ्वी दिवस’ मानते हैं व उस दौरान धरती में घुलने से बचाए गए कार्बन की मात्रा का कई सौ गुणा महज दीपावली के चंद घंटों में प्रकृति में जोड़ देते हैं। हम जितनी बिजली बेवजह फूंकते हैं, उसके उत्पादन र्में इंधन, तथा उसे इस्तेमाल से निकली उर्जा उतना ही कार्बन प्रकृति में उड़ेल देता हे। कार्बन की बढती मात्रा के कारण जलवायु चक्र परिवर्तन,  धरती का तापमान बढना जैसी कई बड़ी दिक्कतें समाने आ रही हैं। काश हम दीपावली पर बिजली के बनिस्पत दीयों को ही प्राथमिकता दे। इससे कई लोगों को रोजगार मिलता है, प्रदूषण कम होता है और पर्व की मूल भावना जीवंत रहती है। 

दीपावली में सबसे ज्यादा जानलेवा भूमिका होती है आतिशबाजी या पटाखों की। खासतौर पर चीनी पटाखों में तो बेहद खतरनाक रसायन होते हैं जो सांस लेने की दिक्कत के साथ-साथ फैंफडों के रोग दीर्घकालिक हो सकते हैं।  दीवाली पर आतिशबाजी के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों का यह खुलासा चैंकाने वाला है कि इससे न केवल सांस की बीमारी बढ़ती है, बल्कि गठिया व हड्डियों के दर्द में भी इजाफा हो जाता है। संस्थान द्वारा इस बार शोध किया जाएगा कि दीपावली पर आतिशबाजी जलाने के कारण हवा में प्रदूषण का जो जहर घुलता है, उसका गठिया व हड्डी के मरीजों पर कितना असर पड़ता है। एम्स के विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक हुए शोध में यह पाया गया है कि वातावरण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर अधिक होने पर गठिया के मरीजों की हालत ज्यादा खराब हो जाती है। 

आतिशबाजी के धुंए, आग, आवाज के शिकार इंसान तो होते ही हैं, पशु-पक्षी, पेड़, जल स्त्रोत भी इसके कुप्रभाव से कई महीनों तक हताश-परेशान रहते हैं। विडंबना है कि आज पढा लिखा व आर्थिक रूप से संपन्न समाज महज दिखावे के लिए हजारों-हजार करोड़ की आतिशबाजी फूंक रहा हे। इससे पैसे की बर्बादी तो होती ही हैं, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचता है पर्यावरण को। ध्वनि और वायु प्रदूषण दीपावली पर बेतहाशा बढ़ जाता है। जो कई बीमारियों का कारण है।

दीवाली के बाद अस्पतालों में अचानक 20 से 25 प्रतिशत ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हो जाती है जिसमें अधिकतर लोग सांस संबंधी व अस्थमा जैसी समस्या से पीड़ित होते हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार दिल्ली में पटाखों के कारण दीपावली के बाद वायु प्रदूषण छह से दस गुना और आवाज का स्तर 15 डेसिबल तक बढ़ जाता है। इससे सुनने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। तेज आवाज वाले पटाखों का सबसे ज्यादा असर बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा दिल और सांस के मरीजों पर पड़ता है। मनुष्य के लिए 60 डेसिबल की आवाज सामान्य होती है। इससे 10 डेसिबल अधिक आवाज की तीव्रता दोगुनी हो जाती है, जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक होती है। जान लेंबगैर आवाज के पटाखों में भी कम से कम 21 तरह के रसायन मिलाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 20 मिनट की आतिशबाजी पर्यावरण को एक लाख कारों से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।

जाहिर है कि दीपावली का मौजूदा स्वरूप ना तो शास्त्र सम्मत है और ना ही लोक परंपराओं के अनूरूप और ना ही प्रकृति, इंसान व जीवजगत के लिए कल्याणाकरी, तो  फिर क्यों ना दीपावली पर लक्ष्मी को घर बुलाएं, सरस्वती का स्थाई वास कराएं ओर एकदंत देव की रिद्धी-सिद्धी का आव्हान करें- दीपावली दीयों के साथ, अपनों के साथ, मुसकान के साथ आतिशबाजी रहित ही मनाएं। 


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