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बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

beyond bird flu more cause of bird death

 और कई भी कारण हैं पक्षियों की मौत के

पंकज चतुर्वेदी 



दिल्ली में संजय झील में जिन साढे तीन सौ से बत्तखों और जल मुर्गियों की चहलकदमी देखने लोग आते थे, शक हुआ कि उन पर वायरस का हमला है और पलक झपकते ही उनकी गर्दन मरोड़ कर मार डाला गया। बीते कुछ दिनों से देश में कहीं भी किसी पखी के संक्रमित हाने पर शक होता है, आसपास के सभी पक्षी निर्ममता से मार दिए जाते हैं। इस बार पंक्षियों के मरने की शुरूआत कौओं से हुई- कौआ एक ऐसा पक्षी है जिसकी प्रतिरोध क्षमता सबसे सशक्त कहलाती है। कौए भी  मध्य प्रदेश के मालवा के मंदसौर-नीमच व उससे सटे राजस्थान के झालावाड़ जिले में मरे मिले। जान लें इन  इलाकों में प्रवासी पक्षी कम ही आते हैं। उसके बाद हिमाचल प्रदेश में पांग झील में प्रवासी पक्षी मारे गए और फिर केरल में पालतु मुर्गी व बतख। एक बात जानना जरूरी है कि हमारे यहां बीते कई सालों से इस मौसम में बर्ड-फ्लू का शोर होता है और अभी तक किसी इंसान के इससे मारे जाने की खबर मिली नहीं। हां, यह मुर्गी पालन में लगे लोगों के लिए भारी नुकसान होता है। 

यह तो स्पष्ट है कि इसी मौसम में पक्षियों  के मरने की वजह हजारो किलोमीटर दूर से जीवन की उम्मीद के साथ आने वाले वे पक्षी होते हैं जिनकी पिछली कई पुष्तें, सदियों इस मौसम में यहां आती थीं। चूंकि ये तो सदियों से आते रहे हैं व उनके साथ नभचरों के मौत का सिलसिला कुछ ही दशकों का है तो जाहिर है कि असली वजह उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायू परिवर्तन का असर भी है। यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान षून्य से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है। 

हर साल भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, ह्विस्लिंग डक, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो जैसे कई पक्षी आते हैं। भारतीय पक्षियों में शिकरा, हरियल कबूतर, दर्जिन चिड़िया, पिट्टा, स्टॉप बिल डक आदि प्रमुख हैं। अपनी यात्रा के दौरान हर तरह के पंक्षी अपने हिसाब से उड़ते हैं और उनकी ऊँचाई भी वे अपने हिसाब से निर्धारित कर लेते हैं। हंस जैसे पक्षी करीब 80 किलोमीटर प्रति घण्टे के हिसाब से भी उड़ान भरते हैं, तो जो पंछी बिना रुके यात्रा करते हैं, उनकी गति मुश्किल से 10 से 20 किलोमीटर प्रति घण्टे तक होती है। वे भले ही मंद गति से उड़ते हों, लेकिन अपने ठिकाने पर पहुँचकर ही दम लेते हैं। उदाहरण के लिये ईस्टर्न गोल्डन प्लॉवर लगातार उड़कर अपने निवास स्थान से भारत तक की 3200 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी बिना रुके पूरी करता है। इस दौरान वह समुद्र भी पार करता है। पहाड़ी इलाकों में पंछी कई बार एवरेस्ट से भी ज्यादा ऊँचाई पर उड़ते हैं, वहीं समुद्री इलाके में वे बेहद नीची उड़ान भरते हैं।

कहते हैं कि दूर देष से आने वाले पंक्षी असल में सौभाग्य-पंख ले कर आते हैं। इनके साथ बीजों का हस्तातंरण होता है, जैव विविधता का संरक्षण होता है। लेकिन कई पक्षी ऐसे भी होते हैं जो अपनी आंतों में इस वायरस को लिए हर जगह घूमते हैं, लेकिन वे इससे बीमार नहीं होते। जैसे ही इन पक्ष्यिं का अपषिश्ट, लार या सांस अन्य पक्षियों के संपर्क में आती है, वे बीमार हो जाते हैं। खासकर मुर्गी और बत्तख में यह संक्रमण तेजी से फैलता है और उन्हें बीमार कर देता है।

भारत सरकार के पशुपालन और डेयरी विभाग के अनुसार भारत में साल 2006, 2012, 2015 और अब 2021 में बर्ड फ्लू यानी एवियन इंफ्लूएंजा ने हमला किया है। नेशनल हेल्थ प्रोग्राम की साइट के अनुसार बर्ड फ्लू की वजह से भारत में अभी तक किसी इंसान की मौत नहीं हुई है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि बर्ड फ्लू का हमला तभी होता है जब प्रवासी पक्षी हमारी तरफ आता है।  

वास्तव में यह बीमारी एवियन इन्फ्लूएंजा वायरस H5N1 की वजह से होती है। इस वायरस के बहुत से स्ट्रेन हैं. इसमें से कुछ माइल्ड होते हैं जबकि कुछ बहुत अधिक संक्रामक होते हैं और उससे बहुत बड़े पैमाने पर पक्षियों के मरने का खतरा पैदा हो जाता है। बर्ड फ्लू को एवियन इंफ्लूएंजा भी कहते हैं. यह बहुत संक्रामक और कोरोना की ही तरह घातक भी हो सता है । जान लें इंसानों को संक्रमित करने की क्षमता वोल कुल 11 किस्म के एनफ्लूएंजा वायरस होते हैं। हालांकि इनमें से सिर्फ पांच ही इंसानों के लिए जानलेवा होते हैं । ये हैं-H5N1, H7N3, H7N7, , H7N9 और  H9N2इन वायरस को एचपीएआई कहा जाता है। इनमें सबसे ज्यादा खतरनाक भ्5छ1 बर्ड फ्लू वायरस है.

चूंकि H5N1 बर्ड फ्लू वायरस का फैलाव हवा के साथ होता है और यह तेजी से म्यूटेशन भी करता है सो इसके फैलने की गति बहुत तेज होती है। यह संभव है कि उनके इस लंबे सफर में पंखों के साथ कुछ जीवाणु आते हों, लेकिन कोरोना संकट ने बता दिया है कि किस तरह घने जंगलों के जीवों के इंसानी बस्ती के लगातार करीब आने के चलते  जानवरों में मिलने वाले  वायरस इंसान के शरीर को प्रभावित करने के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं। अभी तो इन पक्षियों के वायरस दूसरे पक्षियों के डीएनए पर हमला करने लायक ताकतवर बने हैं और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इनकी ताकत इंसान को नुकसान पहुंचाने लायक भी हो जाए। ऐसे में इस बारे में सतर्कता तो रखनी ही होगी। 

बर्ड फ्लू के प्रति जागरूकता और सतर्कता तो जरूरी है लेकिन इसके बारे में अल्प जानकारी के साथ भयभीत होना उचित नहीं। जान लें कि हर साल सर्दी में पक्षियों के मारे जाने की संख्या 15 से बीस फीसदी बढ़ ही जाती है और इसका मूल कारण ठंड से होने वाले रोग - ब्रोंकाईटीस और क्रॉनिक रेसपायरीटी जैसे रोग होते हैं। अभी दिल्ली में छह जनवरी से 21 जनवरी के बीच 1338 पक्षी मरे और इनमें से 207 के नमूनों की जांच करवाई गई। इनमें से 24 में बर्ड फ्लू के कोई लक्षण मिले ही नहीं। इस अवधि में दिल्ली के चिड़ियाघर में कुछ विदेषी सारस मरे मिले और वहां हड़कंप मच गया। इनके 12 नमूने जांच के लिए भोपाल स्थित  राश्ट्रीय उच्च सुरक्षा पषु रोग संस्थान(एनआईएचएसएडी) को भेजे गए व किसी में भी एविएषन एनफ्लूएंजा वायरस के लक्षण नहीं मिले।

जान लें कि देष के अधिकांष हिस्सों में  मरने वाले पक्षियों की पहले गर्दन लटकने लगी, उनके पंख बेदम हो गए, वे न तो चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। शरीर शिथिल हुआ और प्राण निकल गए। फिलहाल तो इसे ‘बर्ड-फ्लू ’ कहा जा रहा है लेकिन संभावना है कि जब वहां के पानी व मिट्टी के नमूने की गहन जांच होगी तब असली बीमारी पता चलेगी क्योंकि इस तरह के लक्षण ‘‘एवियन बॉटुलिज़्म ’’ नामक बीमारी के होते है। यह बीमारी क्लोस्ट्रिडियम बॉट्यूलिज्म नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। एवियन बॉटुलिज़्म को 1900 के दशक के बाद से जंगली पक्षियों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण माना गया है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। इसके वैक्टेरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है। 

संभावना यह भी है कि पानी व हवा में क्षारीयता बढ़ने से तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाली बीमारी ‘हाईपर न्यूट्रिनिया’ से कुछ पक्षी, खासकर प्रवासी पक्षी मारे गए हों। इस बीमारी में पक्षी को भूख नहीं लगती है और इसकी कमजोरी से उनके प्राण निकल जाते हैं। पक्षी के मरते ही जैसे ही उसकी प्रतिरोध क्ष्षमता शून्य हुई, उसके पंख व अन्य स्थानों पर छुपे बैठे कई किस्म के वायरस सक्रिय हो जाते हैं व दूसरे पक्षी इसकी चपेट में आते हैं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि दूषित पानी से मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे आए पक्षियों ने खा लिया हो व उससे एवियन बॉटुलिज़्म के बीज पड़ गए हों। यह सभी जानते हैं कि एवियन बॉटुलिज़्म का प्रकोप तभी होता है जब विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक कारक समवर्ती रूप से होते हैं। इसमें आम तौर पर गर्म पानी के तापमान, एनोक्सिक (ऑक्सीजन से वंचित) की स्थिति और पौधों, शैवाल या अन्य जलचरों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण आदि प्रमुख हैं।  यह सर्वविदित है कि धरती का तापमान बढ़ना और जलवायु चक्र में बदलाव से भारत बुरी तरह जूझ रहा है। 

‘भारत में पक्षियों की स्थिति-2020’ रिपोर्ट के नतीजे बता चुके हैं कि पक्षियों की लगातार घटती संख्या ,नभचरों के लिए ही नहीं धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी हैं। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है, कई प्रजाति लुप्त हो गई तो बहुत की संख्या नगण्य पर आ गईं। पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा षिकार से कही ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है। अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाषक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारंपरिक पर्यावास, नैसर्गिक परिवेष  की कमी से उनकी प्रजनन क्षमता पर असर; ऐसे ही कई कारण है जिनकेचलते हमारे गली-आंगन में पंक्षियों की चहचहाहट कम होती जा रही है। ऐसे में पक्षियों में व्यापक संक्रामक हमले बेहद चिंताजनक हैं।

पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी उनके प्राकृतिक पर्यावास में अत्यधिक मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान है। सनद रहे हमारे यहां साल-दर-साल प्रवासी पक्षियों  की संख्या घटती जा रही है। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह से मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।  अब पक्ष्यिं को रोका या टोका तो जा नहीं सकता, हमें ही अपने पर्यावास, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनो को नैसर्गिक रूप में अक्षुण्ण रखने पर गंभीर होना होगा। 


 



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