वर्ष 2020 में दिल्ली और उसके आसपास के दायरे में कुल 51 बार घरती थर्राई। भारत के कुल क्षेत्रफल का 54 फीसद भूकंप संभावित क्षेत्र के रूप में चिह्नित है।
दिल्ली को खतरे के लिए तय जोन चार में आंका गया है अर्थात यहां भूकंप आने की संभावनांए गंभीर स्तर पर हैं। भूकंप संपत्ति और जन-हानि के नजरिए से सबसे भीषण प्राकृतिक आपदा है, एक तो इसका सटीक पूर्वानुमान संभव नहीं, दूसरा इससे बचने के कोई सशक्त तरीके हैं नहीं। महज जागरूकता और अपने आसपास को इस तरह से सचेत करना कि कभी भी धरती हिल सकती है, बस यही है इसका निदान। हमारी धरती जिन सात टेक्टोनिक प्लेटों पर टिकी है, यदि इनमें कोई हलचल होती है, तो धरती कांपती है।
भारत ऑस्ट्रेलियन प्लेट पर टिका है, और हमारे यहां अधिकतर भूकंप इस प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण उपजते हैं। भूकंप के झटकों का कारण भूगर्भ से तनाव-ऊर्जा उत्सर्जन होता है। यह ऊर्जा अब भारतीय प्लेट की उत्तर दिशा में बढ़ने और फॉल्ट या कमजोर जोनों के जरिए यूरेशियन प्लेट के साथ इसके टकराने के चलते एकत्र हुई है। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है, और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है, जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है, और चट्टानों का विरुपण होता है। यह ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है। हालांकि कोई भूकंप कब, कहां और कितनी अधिक ऊर्जा (मैगनिटय़ूड) के साथ आ सकता है, इसकी अभी कोई सटीक तकनीकी विकसित हो नहीं पाई है , केवल किसी क्षेत्र की अति संवेदनशीलता को उसकी पूर्व भूकंपनीयता, तनाव बजट की गणना, सक्रिय फाल्टों की मैपिंग आदि से समझा जा सकता है।
आज जरूरी है कि जिन इलाकों में बार-बार धरती डोल रही है, वहां भू वैज्ञानिक अध्ययनों का पूरी तरह उपयोग करते हुए उपसतही संरचनाओं, ज्यामिति तथा फाल्टों एवं रिजों के विन्यास की जांच की जानी है। चूंकि नरम मृदाएं संरचना की बुनियादों को सहारा नहीं दे पातीं, भूकंप-प्रवण क्षेत्रों में बेडरॉक या सख्त मृदा के सहारे वाली संरचनाओं में कम नुकसान होता है। इस प्रकार, नरम मृदाओं की मोटाई के बारे में जानने के लिए मृदा द्रवीकरण अध्ययन किए जाने की भी आवयकता है। सक्रिय फाल्टों को निरूपित किया जाना है, और जीवन रेखा संरचनाओं या अन्य अवसंरचनाओं को नजदीक की सक्रिय फाल्टों से बचा कर रखे जाने और उन्हें भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुरूप निर्माण किए जाने की आवश्यकता है। राट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सवा तीन करोड़ लोगों की बसावट का चालीस फीसदी इलाका अनधिकृत है, तो 20 फीसदी के आसपास बहुत पुराने निर्माण। बाकी रिहाइशों में से बामुश्किल पांच प्रतिशत का निर्माण या उसके बाद यह सत्यापित किया जा सका कि यह भूकंपरोधी है। दोष भारत में भी आवासीय परिसरों के हालात कोई अलग नहीं हैं। एक तो लोग इस चेतावनी को गंभीरता से ले नहीं रहे कि उनका इलका भूकंप के आलोक में कितना संवेदनशील है, दूसरा उनका लोभ उनके घरों को संभावित मौत घर बना रहा है। बहुमंजिला मकान, छोटे से जमीन के टुकड़े पर एक के ऊपर एक डिब्बे जैसी संरचना, बगैर किसी इंजीनियर की सलाह के बने परिसर, छोटे से घर में ही संकरे स्थान पर रखे ढेर सारे उपकरण व फर्नीचर-भूकंप के खतरे से बचने कीे चेतावनियों को नजरअंदाज करने की मजबूरी भी हैं और कोताही भी।
वलेरेबिलिटी काउंसिल ऑफ इंडिया की बिल्डिंग मैटीरियल एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में दावा किया गया था कि दिल्ली के 91.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें पक्की ईटों से जबकि कच्ची ईंटों से 3.7 प्रतिशत मकानों की दीवारें बनी हैं। एक्सपर्ट के अनुसार, कच्ची या पक्की ईटों से बनी इमारतों में भूकंप के दौरान सबसे ज्यादा तबाही होती है। राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआई), हैदराबाद के एक शोध से स्पष्ट हुआ है कि भूकंप का एक बड़ा कारण धरती की कोख से जल का अंधाधुंध दोहन करना भी है। भू-विज्ञानी के अनुसार भूजल को धरती के भीतर लोड यानी की एक भार के तौर पर उपस्थित होता है। इसी लोड के चलते फाल्ट लाइनों में भी संतुलन बना रहता है।
जरूरत है कि शहरों में आबादी का घनत्व कम किया जाए, जमीन पर मिट्टी की ताकत मापे बगैर कई मंजिला भवन खड़े करने, बेसमेंट बनाने पर रोक लगे। भूजल के दोहन पर सख्ती हो। साथ ही, भूकंप संभावित इलाकों के सभी मकानों में भूकंप रोधी रेट्रोफिटिंग करवाई जाए।
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