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सोमवार, 15 मार्च 2021

Books over come from corona terror

 कोरोना से नहीं डरतीं किताबें।

पंकज चतुर्वेदी 




दिल्ली में ठंड के दिनों में घने कोहरे के बीच प्रगति मैदान का नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला व्यापक रूप से बहुप्रतिक्षित रहता है। कोरोना की आपदा के चलते भले ही वह पुस्तक-कुंभ ना लग पाया हो, लेकिन पुस्तकों को जन-जन तक पहँचाने के लिए कृतसंकल्पित राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने  देश-दुनिया के पुस्तक प्रेमियों के घर तक विश्व पुस्तक मेले को पहुँ कर दुनिया के सबसे बड़े वर्चुअल पुस्तक मेले का आयोजन कर दिया। गत 05 -09मार्च 2021 तक चले नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के पहले वर्चुअल संस्करण ने आगंतुकों, खरीदारों और साहित्यिक आयेजनों का विश्व-कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि कोई भी आपदा देश की सृजनातमकता, विचार-श्रंखला और ज्ञान-प्रसार में आडे़ नहीं आ सकती। 

अपने घर बैठे स्क्रीन पर पुस्तक मेले के त्रिआयामी  दर्शन का पहला अनुभव होने के बावजूद आगंतुकों का उत्साह कम हुआ और न ही प्रकाशकों का। इस बार पुस्तक मेले में 135 से अधिक भारतीय और 15 से अधिक विदेशी प्रकाशकों ने सहभागिता दर्ज कराई। 

एक अंजान, अद्श्य जीवाणु ने जब सारी दुनिया की चहलकदमी रोक दी, इंसान को घर में बंद रहने पर मजबूर कर दिया, फिर भी कोई भी भय इंसान की सृजनात्मकता, विचारशीलता और उसे शब्दो ंमें पिरो कर प्रस्तुत करने की क्ष्मता पर अंकुश नहीं लगा पाया। यों भी कहें तो अतिश्यिक्ति ना होगा कि इस अजीब परिवेश ने ना केवल लिखने के नए विषय दिए, बल्कि लेखक की पाठकों से दूरियां कम हुईं, नई तकनीकी के माध्यम से मुहल्ले, कस्बों के विमर्श अंतरराष्ट्रीय हो गए। शुरूआत मे कुछ दिनों में जब मुद्रण संस्थान ठप्प रहे, जब समझ आ गया कि पुस्तक मेलों-प्रदर्शनियों के दिन जल्दी आने वाले नही हैं, तब सारी दुनिया की तरह पुस्तकों की दुनिया में भी कुछ निराशा-अंदेशा व्याप्त था। लेकिन घर में बंद समाज को त्रासदी के पहले हफ्ते में ही भान हो गया कि पुस्तकें ऐसा माध्यम हैं जो सामाजिक दूरी को ध्यान में रखते हुए घरों में स्वाध्ययन अवसाद से मुक्ति दिलाने में महती भूमिका निभाती हैं।  अपितु आपके ज्ञान का प्रसार भी करती हैं। महामारी के इस भय भरे माहौल में लॉकडाउन में सकारात्मक सोच के साथ पठन-पाठन से लोगों को जोड़ने के लिए कई अभिनव प्रयोग किए गए। 


जनवरी की ठंड में  प्रगति मैदान में लगने वाले पुस्तक मेले में प्रकाशन जगत, लेखक, छात्र और समाज के लगभग सभी वर्ग की उम्मीदें रहती हैं।  कोई तीन दशक से चल रही इस अनवरत श्रंखला के टूटने पर एक निराशा होना लाजिमी थी, लेकिन वर्चुअल पुस्तक मेले ने इस कमी को काफी कुछ पूरा किया। दुनियाभर के लेखकों के विमर्श हुए। कुछ नहीं से कुछ भला है परंतु छोटे प्रकाशक, दूरस्थ अंचल के लेखक व पाठकों के लिए तो प्रगति मैदान की कंधे छीलती भीड़ में किताबांं के  कुंभ में गोते लगाना ही पुस्तक मेला कहलाता है । कंप्यूटर संचालित इस आधुनिक व्यवस्था को भले ही नाम मेला का दिया गया हो, लेकिन आम लोगों के लिए तो सीमित तंत्र है। पुस्तकों की संख्या कम होती है, भुगतान को ले कर भी दिक्कतें हैं। असल में मैदान में लगने वाला मेला पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव होता है। जिसमें गीत-संगीत , आलेचना, मनुहार, मिलन, असहमतियां ं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी होती है। 

बीते एक साल में लेखकां और प्रकाशकों ने यह भांप लिया कि कोरोना के चलते  आम इंसान की पठन अभिरूचि, जीवन शैली , अर्थतंत्र आदि में आमूल चूल बदलाव होंगे। नेशनल बुक ट्रस्ट ने अपनी कई सौ लोकप्रिय पुस्तकों को निशुल्क पढने के लिए वेबसाईट पर डाल दिया तो राजकमल प्रकाशन ने पाठक के घर तक पुस्तकें पहुंचाने की योजना शुरू कर दी। कई अन्य प्रकाशक  भी  डिजिटल प्लेटफार्म पर पुस्तकों को लाने व बेचने  को प्राथमिकता देने लगे। हालांकि अभी ईबुक्स अधिक लोकप्रिय नहीं हुई लेकिन बच्चो ंमें ‘ऑडियो बुक्स’ का प्रचलन बढ़ा। 

बुद्धिजीवी वर्ग को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस महामारी ने हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव के लिए मजबूर किया है और इससे पठन अभिरूचि भी अछूती नहीं हैं। आनन फानन में लोगों ने पहले फेसबुक जैसे निशुल्क प्लेटफार्म पर रचना पाठ, गोष्ठी, लेखक से मुलाकात और  रचनओं की ऑडियो-वीडियो प्रस्तुति प्रारंभ की और फिर जूम, गूगल, जैसे कई नए  मंच सामने आ गए जिनमें देश-दुनिया के सैंकड़ो ंलोग एक साथ जुड़ कर साहित्य विमर्श कर रहे हैं। ना वक्ता के आवागमन या अन्य व्यय की चिंता ना ही मंच, आमंत्रण का तनाव , साहित्यिक विमर्श के इस डिजिटल स्वरूप को घर-घर तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगा।  अपने घर  के मोबाईल या कंप्यूटर पर लेखक को सुनने या सवाल करने का मोह घर के वे सदस्य भी नहीं छोड़ पाए जो अभी तक पठन-पाठन से दूरी बनाए रखते थे। 

नवंबर में दिल्ली में फेडरेशन आफ इंडियान पब्लिशर्स ने तीन दिन का एक वर्चुअल पुस्तक मेला किया जिसमें 100 से अधिक प्रकाशकें की नौ हजार पुस्तकें उपलब्ध थीं। इस पुस्तक मेले को देखने का दो लाख लोगों ने ंपजीयन करवाया और उसे विश्व का सबसे बड़ा वर्चुअल बुक फेयर कहा गया। दिसंबर-2020 में इंडिया इंटरनेशनल साईंस कांग्रेस में भी पुस्तक मेला के लिए एक स्थान था। इस तरह की कोशिशों के बीच 30 दिसंबर से 10 जनवरी तक असम में गुवाहाटी पुस्तक मेला हुआ और जहां हर दिन पचास हजार पुस्तक प्रेमियों ने पहुंच कर जता दिया कि अपनी पठन-पिपासा के लिए वे कोरोना वायरस से डर नहीं रहे। लखनउ में भी पुस्तक मेला हुआ और कई जगह प्रदर्शनी भी लग रही हैं।


ऐसा नहीं है कि कोरोना संकट के साथ आए बदलावों से प्रकाशन व लेखन में सभी कुछ अच्छा ही हुआ। नई टेकनालाजी ने भले ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, लेकिन मुद्रित पुस्तकें आज भी विचारों के आदान-प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम हैं । साथ ही  आम आदमी के विकास हेतु जरूरी शिक्षा और साक्षरता का एकमात्र साधन किताबें ही हैं ।  हमारी बड़ी आबादी  अभी भी डिजिटल माध्ममों से इतनी गंभीरता से परिचित नहीं हैं।  हमारे प्रकाशन उद्योग की विकास दर पिछले साल तक बीस प्रतिशत सालाना रही जो अब थम गई हैं। इसमें महंगाई, पुस्तकों के मुद्रण के बनिस्पत सीमित डिजिटल या ई बुक्स संस्करण निकलने, कागज की बढ़ती कीमत, बाजार में पूंजी का अभाव आदि घटक शामिल हैं। लेकिन इन विषम हालात में भी बोधि प्रकाशन, जयपुर जैसे संस्थान उम्मीद की जोति जलाएं हैं व सौ रूपए में दस पुस्तकों के सेट की सफलता  बानगी हैं कि किताबें हर विषम हालात का मुकाबला करने में सक्षम हैं, वे नई परिस्थितियों में ढल कर, किसी भी  तकनीकी में लिप्त हो कर ज्ञान-ज्योति प्रज्जवलित रखने में हिचकिचाती नहीं हैं।


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