अल नीनो तय करता है भारत का मौसम !
पंकज चतुर्वेदी
अभी फरवरी खत्म हुआ नहीं था कि तेज गर्मी हो गई। बकौल मौसम विभाग अधिकतम तापमान सामान्य से पांच डिगरी तक ज्यादा हो गया। कहा गया कि पांच फरवरी के बाद कोई पश्चिमी विक्षोभ का असर हमारे यहां पड़ा नहीं सो बीते कई दिनों से किसी भी मैदानी इलाके में बादल नहीं बरसे, इसी से गर्मी सही समय आ गई। मार्च का दूसर हफ्ता आया तो देष के कई हिस्सों में ओले गिर गए व खड़ी फसल को चाट गए। यह सच है कि यदि कोई बाहरी प्रभाव नहीं पड़ा तो जल्दी गर्मी का असर जल्दी मानसून आने पर भी होगा। मौसम में बदलाव की पहेली अभी भी अबुझ है और हमारे यहां कैसा मौसम होगा उसका निर्णय सात समुंदर पार , ‘अल नीनो’ अथवा ‘ला नीना’ प्रभाव पर निर्भर होता है।
प्रकृति रहस्यों से भरी है और इसके कई ऐसे
पहलु हैं जो समूची सृश्टि को प्रभावित तो करते हैं लेकिन उनके पीछे के कारकोे की
खोज अभी अधूरी ही है और वे अभी भी किवदंतियों और तथ्यों के बीच त्रिशंकु हैं। ऐसी ही एक घटना सन 1600 में पश्चिमी पेरू के समुद्र तट पर मछुआरों ने दर्ज की ,जब
क्रिसमस के आसपास सागर का जल स्तर असामान्य रूप से बढ़ता दिखा । इसी मौसमी बदलाव को
स्पेनिश शब्द ‘अल नीनो’ परिभाषित किया गया, जिसका अर्थ होता है- छोटा बच्चा या ‘बाल-यीषु’। अल नीनो असल
में मध्य और पूर्व-मध्य भूमध्यरेखीय
समुद्री सतह के तापमान में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है जबकि ‘ला नीना’ इसके विपरीत अर्थात
तापमान कम होने की मौसमी घटना को कहा जाता है।
अल नीना भी स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बच्ची।
दक्षिणी अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और अल नीना प्रभाव ही होते हैं। अलनीनो का संबंध भारत व आस्ट्रेलिया में गरमी और सूखे से है, वहीं अल नीना के कारण अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है। भले ही भारत में इसका असर हो लेकिन अल नीनो और अल नीना घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रशांत ) और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट(पश्चिमी प्रशांत ) पर घटित होती हैं। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती हे। यहां जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर समुद्र की सीढ़ी किरणें पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घंटे निर्बाध सूर्य के दर्षन होते हैं और इस तरह से सूर्य की उश्मा अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है। तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रशांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है व इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित रहता है। आम तौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं पूर्व से पष्चिम (पछुआ) की ओर बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को आस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल बनते हैं व परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आसपास अच्छी बरसात होती है। नमी से लछी गर्म हवांए जब उपर उठती हैं तो उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब क्षोभ मडल की पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्री तट व उसके आसपास नीचे की ओर आती हैं । तभी आस्ट्रेलिया के समु्रद से उपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं। इससे निर्मित चक्रवात को 'वाॅकर चक्रवात' कहते हैं। असल में इसकी खेाज सर गिल्बर्ट वाॅकर ने की थी।
अल नीनो परिस्थिति में पछुआ हवाएं कमजोर पड़
जाती हैं व समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटो पर एकत्र हो जाता है। इस तरह समुद्र
का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा
हो जाता है व इसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण होता है व इससे बरसात वाले बादल निर्मित होते
हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है लेकिन मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत
प्रभाव के चलते आस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता है।
ला नीनो प्रभाव के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पष्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को आस्ट्रेलिया की तरफ ढकेलती है। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है। यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं। भारतीय मौसम विभाग के यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं। भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक कोविड काल भारत के मौसम के लिहाज से बहुत अच्छा रहा और यह ‘ला नीना’ का दौर था। लेकिन अभी तक यह रहस्य नहीं सुलझाया जा सका है कि आने वाले दिन हमारे लिए ‘बाल-यीषु’ वाले हैं या ‘छोटी बच्ची’ वाले। भारत जैसे कृशि प्रधान देश के बेहतर जीडीपी वाला भविष्य असल में पेरू के समुद्र तट पर तय होता है। जाहिर है कि हमें इस दिशा में शोध को बढ़ावा देना ही होगा।
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