पंकज चतुर्वेदी
अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल देता है सैलाब
28 Aug 2021
साल भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जारी ‘भारत में जलवायु परिवर्तन' पर पहली रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि देश में न केवल गर्मी बढ- रही है‚ बल्कि बरसात के दिनों की संख्या घटने के साथ अचानक तेज बरसात की मात्रा में भी इजाफा हो रहा है। स्पष्ट बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन की त्रासदी का सबसे भयावह रूप बाढ- के रूप में हमें देखने में मिलेगा। इस साल अभी भादौ का महीना बकाया है‚ लेकिन जहां जितना भी पानी बरसा है‚ उसने अपनी तबाही का दायरा बढ-ा दिया है। पिछले कुछ सालों में बारिश की मात्रा भले कम हुई है‚ लेकिन बाढ- से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ-ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ- से मुक्त क्षेत्र माना जाता था‚ अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं‚ और मौसम बीतते ही उन इलाकों में पानी का संकट फिर छा जाता है। असल में बाढ- महज प्राकृतिक आपदा नहीं है‚ बल्कि देश के गंभीर पर्यावरणीय‚ सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक भी बन गई है। हमारे पास बाढ- से निबटने को महज राहत कार्य या यदा–कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है‚ जबकि बाढ- के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना‚ जलवायु परिवर्तन‚ बढ-ती गरमी‚ रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई के मलबे का नदी में बढ-ना‚ जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों–दिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन सड-क‚ खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं‚ उन्हें बाढ- का पानी पलक झपकते ही उजाड- देता है। हम नये कार्यों के लिए बजट की जुगत लगाते हैं‚ और जीवनदायी जल उनका काल बन जाता है। ॥ जल संसाधन‚ नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के ताजा आंकड-े बताते हैं कि भारत में १९५३ से २०१७ के ६४ वर्षों के दौरान बाढ- से १०७४८७ लाख लोगों की मौत हुई‚ आठ करोड- से अधिक मकान नष्ट हुए और २५.६ करोड- हेक्टेयर क्षेत्र में १०९२०२ करोड- रुûपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा। इस अवधि में बाढ- से देश में २०२४७४ करोड- रुûपये मूल्य की सड-क‚ पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ- से प्रति वर्ष औसतन १६५४ लोग मारे जाते हैं‚ ९२७६३ पशुओं का नुकसान होता है। लगभग ७१.६९ लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से प्रभावित होता है‚ जिसमें १६८० करोड- रुûपये मूल्य की फसलें बर्बाद होती हैं‚ और १२.४० लाख मकान क्षतिग्रस्त। ॥ त्रासदी का एक समान चलन॥ २००५ से २०१४ के दौरान देश के जिन कुछ राज्यों में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में बाढ- की त्रासदी और जलस्तर के खतरे के निशान को पार करने का एक समान चलन देखा गया है‚ उनमें पश्चिम बंगाल की मयूराक्षी‚ अजय‚ मुंडेश्वरी‚ तीस्ता नदियां शामिल हैं। ओडिशा में सुवर्णरेखा‚ बैतरनी‚ ब्राह्मणी‚ महानंदा‚ @षिकुल्या‚ वामसरदा नदियों में रही। आंध्र प्रदेश में गोदावरी और तुंगभद्रा‚ त्रिपुरा में मनु और गुमती‚ महाराष्ट्र में वेणगंगा‚ गुजरात और मध्य प्रदेश में नर्मदा नदियों में यह स्थिति देखी गई॥। सरकारी आंकड-े बताते हैं कि १९५१ में भारत की बाढ-ग्रस्त भूमि की माप एक करोड- हेक्टेयर थी। १९६० में बढ- कर ढ-ाई करोड- हेक्टेयर हो गई। १९७८ में यह ३.४ करोड- हेक्टेयर थी। आज देश के कुल ३२९ मिलियन (दस लाख) हेक्टेयर में से चार करोड- हेक्टेयर इलाका बाढ- की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। १९९५–२००५ के दशक के दौरान बाढ- से नुकसान का सरकारी अनुमान १८०५ करोड- था जो अगले दशक यानी २००५–२०१५ में ४७४५ करोड- हो गया। यह आंकड-ा ही बानगी है कि बाढ- किस निर्ममता से अर्थव्यवस्था को चट कर रही है। बिहार का ७३ प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ- और शेष दिन सुखाड- का दंश झेलता है‚ और यही वहां के पिछड-ेपन‚ पलायन और परेशानियों का कारण है। राज्य का लगभग ४० प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। ॥ असम में इन दिनों १८ जिलों के कोई साढ-े सात लाख लोग नदियों के रौद्र रूप के चलते घर–गांव से पलायन कर गए हैं‚ और ऐसा हर साल होता है। अनुमान है कि असम में सालाना कोई २०० करोड- रुûपये का नुकसान होता है‚ जिसमें– मकान‚ सड-क‚ मवेशी‚ खेत‚ पुल‚ स्कूल‚ बिजली‚ संचार आदि शामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड-ी करने में दस साल लगते हैं‚ जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है यानी असम हर साल विकास की राह पर १९ साल पिछड- जाता है। केंद्र हो या राज्य‚ सरकारों का ध्यान बाढ- के बाद राहत कार्यों व मुआवजे पर रहता है‚ दुखद ही है कि आजादी के ७४ साल बाद भी हम बाढ- नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं बना पाए हैं। इस अवधि में राज्य में बाढ- से नुकसान व बांटी गई राहत राशि को जोड-ें तो पाएंगे कि इतने धन में नया सुरक्षित असम खड-ा किया जा सकता था। ॥ विकास पर भारी ॥ देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश में उर्वरा धरती‚ कर्मठ लोग‚ अयस्क व अन्य संसाधन उपलब्ध होनेे के बावजूद विकास की सही तस्वीर न उभर पाने का सबसे बड-ा कारण हर साल आने वाली बाढ- से नुकसान हैं। बीते दशक के दौरान राज्य में बाढ- के कारण ४५ हजार करोड- रुûपये कीमत की तो महज खड-ी फसल ही नष्ट हो गई। सड-क‚ सार्वजनिक संपत्ति‚ इंसान‚ मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट के मुताबिक २०१३ में राज्य में नदियों के उफनने से ३२५९.५३ करोड- रुûपये का नुकसान हुआ था जो आजादी के बाद का सबसे बड-ा नुकसान था। अब तो देश के शहरी क्षेत्र भी बाढ़ø की चपेट में आ रहे हैं‚ इसके कारण भौतिक नुकसान के अलावा मानव संसाधन का जाया होना तो असीमित है। सनद रहे कि देश के ८०० से ज्यादा शहर नदी किनारे बसे हैं‚ वहां तो जलभराव का ंसकट है ही‚ कई कस्बे‚ जो अनियोजित विकास की पैदाईश हैं‚ शहरी नालों के कारण बाढ-–ग्रस्त हो रहे हैं। ॥ १९५३ से २०१० तक हम बाढ- के उदर में ८‚१२‚५०० करोड- फूंक चुके हैं जबकि बाढ- उन्मूलन के नाम पर व्यय राशि १‚२६‚००० करोड- रुûपये है। यह धनराशि मनरेगा के एक साल के बजट का कोई चार गुणा है। २०१७ तक ८६ हजार करोड- इस मद में और व्यय होने का अनुमान है। आम तौर पर यह धनराशि नदी प्रबंधन‚ बाढ- चेतावनी केंद्र बनाने और बैराज बनाने पर खर्च की गई लेकिन ये सभी उपाय बेअसर ही रहे हैं। आने वाले पांच साल के दौरान बाढ- उन्मूलन पर होने वाले खर्च का अनुमान ५७ हजार करोड- रुûपये आंका गया है। सनद रहे कि हम अभी तक एक सदी पुराने ढर्रे पर बाढ- को देख रहे हैं यानी कुछ बांध या तटबंध बनाना‚ कुछ राहत सामग्री बांट देना‚ कुछ ऐसे कार्यालय बना देना जो बाढ- की संभावना की सूचना लोगों को दे सकें। बारिश के बदलते मिजाज‚ भू–उपयोग के तरीकों में परिवर्तन ने बाढ- के संकट को जिस तरह बदला है‚ उसको देखते हुए तकनीक व योजना में आमूल–चूल परिवर्तन आवश्यक है। ॥ वैसे शहरीकरण‚ वन विनाश और खनन–तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं‚ जो बाढ- विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड- कर कंक्रीट का जंगल सजाया जाता है‚ तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है‚ सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ- जाती है। फिर शहरीकरण के कूड-े ने समस्या को बढ-ाया है। यह कूड-ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। आज भी गांव में बाढ- से बचाव के लिए कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है‚ जहां बाढ- में गड-बड-ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं‚ और उन पर इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड-ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। ॥ मानवीय हस्तक्षेप भी बड़़ा कारण॥ अनेक स्थानों पर बाढ- का कारण मानवीय हस्तक्षेप है। मध्य भारत की बड-ी बसावट ‚पंजाब और हरियाणा‚ उत्तराखंड़‚ जम्मू–कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जमीन के अनियंत्रित शहरीकरण के कारण बाढ-ग्रस्त हो रहे हैं। भूस्खलन की घटनाएं बढ- रही हैं‚ और इसका मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड-ों पर खनन से दोहरा नुकसान है। हरियाली उजड-ती है और खदानों से निकली धूल और मलबा नदी–नालों में अवरोध पैदा करता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। सनद रहे हिमालय पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड- है। इसकी विकास प्रक्रिया सतत जारी है‚ तभी इसे ‘जीवित–पहाड-' भी कहा जाता है। इसकी नवोदित हालत के कारण यहां का बड-ा भाग कठोर–चट्टानें न हो कर‚ कोमल मिट्टी है। बारिश या बरफ पिघलने पर पानी नीचे की ओर बहता है तो पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है। पर्वतीय नदियों में बाढ- से मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ-ता है‚ उसी तेजी से उतर जाता है। इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजा> हुआ करते हैं‚ लेकिन अब इन नदियों को जगह–जगह बांधा जा रहा है‚ इसलिए बेशकीमती मिट्टी बांधों में ही रुक जाती है‚ और नदियों को उथला बनाती रहती है। पहाड-ी नदियों में पानी चढ- तो जल्दी जाता है‚ पर उतरता बड-े धीरे–धीरे है॥। मौजूदा हालात में बाढ- महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं‚ बल्कि मानवजन्य संसाधनों की त्रासदी है। अतएव बाढ- के बढ-ते सुरसा–मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र कुछ करना होगा। कुछ लोग नदियों को जोड-ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव‚ तरीकों‚ विभिन्न नदियों के >ंचाई–स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निपक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार‚ सीमेंट के कारोबारी और जमीन–लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना‚ नदियों को उथला होने से बचाना‚ बड-े बांध पर पाबंदी‚ नदियों के करीबी पहाड-ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़़-छाड- को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं‚ जो बाढ- सरीखी भीषण विभीषिका का मुंह–तोड- जवाब हो सकते हैं। ॥ द॥ जल संसाधन‚ नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के आंकड-े बताते हैं कि भारत में १९५३ से २०१७ के ६४ वर्षों के दौरान बाढ- से १०‚७४८७ लाख लोगों की मौत हुइÈ‚ आठ करोड- से अधिक मकान नष्ट हुए और २५.६ करोड- हेक्टेयर क्षेत्र में १०‚९२०२ करोड- रुûपये मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा। इस अवधि में बाढ- से देश में २०‚२४७४ करोड- रुûपये मूल्य की सड-क‚ पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ- से प्रति वर्ष औसतन १६५४ लोग मारे जाते हैं‚ ९‚ २७६३ पशुओं का नुकसान होता है। लगभग ७१.६९ लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से प्रभावित होता है‚ जिसमें १६८० करोड- की फसलें बर्बाद होती हैं॥ लेखक एवं पर्यावरण मामलों के जानकार॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें