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मंगलवार, 24 अगस्त 2021

sand mining is cause of death of rivers

 नदियों का काल बनता रेत खनन

पंकज चतुर्वेदी


 

मध्यप्रदेश के चंबल क्षेत्र की सिंध नदी अभी कुछ दशक तक सदानीरा थी। अब इसमें बामुश्किल छह महीने ही पानी रहता है। अभी इसमें इतना पानी  है कि किनारे के इलाकों में बाढ आ गई है लेकिन यह जल स्तर बामुश्किल 20 दिन रहेगा। इससे रेत निकालने को रास्ता बंद कर दिया जाएगा, बड़ी-बड़ी मशीनें उतार दी जाएंगी। सूखने से पहले ही मशीने रेत निकालने में लग जाती हैं। जब पानी बरसता है, नदी में लहर आने के दिन होते हैं तो रेत-विहीन नदी में जल-धार गिरते ही पाताल में लुप्त हो जाती है।  उजाड़ हो गई सिंध के सूखने के चलते इसके किनारे बसे गांवों का जल-स्तर दो सौ से तीन सौ फुट तक नीचे जा चुका है। यह सभी जानते हैं कि यदि पानी चाहिए तो चंबल को फिर जिलाना होगा और इसके लिए इसकी सतह पर रेत की मोटी परत के बगैर कुछ होने से रहा। उधर रेत के बगैर सरकार के विकास का रथ आगे नहीं बढ़ सकता। देश के विकास का मानक भले ही अधिक से अधिक पक्का निर्माण हो, ऊंची अट्टालिकाएं और सीमेंट से बनीं चिकनी सड्कें आधुनिकता का मानक हों, लेकिन ऐसी चमक-दमक का मूल आधार बालू या रेत, जीवनदायिनी नदियों के लिए जहर साबित हो रहा है। 

नदियों का उथला होना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ् आना, नदियों में जीव जंतु कम होने के कारण पानी में आक्सीजन की मात्रा कम होने से पानी में बदबू आना; ऐसे ही कई कारण है जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं। प्रकृति ने हमें नदी तो दी थी जल के लिए लेकिन समाज ने उसे रेत उगाहने का जरिया बना लिया और रेत निकालने के लिए नदी का रास्ता रेाकने या प्रवाह को बदलने से भी परहेज नहीं किया। आज हालात यह हैं कि कई नदियों में ना तो जल प्रवाह बच रहा है और ना ही रेत।

सभी जानते हैं कि देश की बड़ी नदियों को विशालता देने का कार्य उनकी सहायक छोटी नदियों करती हैं। बीते एक दशक में देश  में कोई तीन हजार छोटी नदियां लुप्त हो गई। इसका असल कारण ऐसी मौसमी छोटी नदियों से बेतहाशा रेत को निकालना था, जिसके चलते उनका अपने उदगम व बड़ी नदियों से मिलन का रास्ता ही बंद हो गया।  देखते ही देखते वहां से पानी रूठ गया। खासकर नर्मदा को सबसे ज्यादानुकसान उनकी सहायक नदियों  के रेत के कारण समाप्त होने सं हुआ है। इसका ही असर है कि बड़ी नदियों में जल प्रवाह की मात्रा साल दर साल कम हो रही है। 

देश की जीडीपी को गति देने के लिए सीमेंट और लोहे की खपत बढ़ाना नीतिगत निर्णय है। अधिक से अधिक लोगों को पक्के मकान देना या नए स्कूल-अस्पताल का निर्माण होना भले ही  आंकड़ों व पोस्टरों में बहुत लुभाता हो, लेकिन इसके लिए रेत उगाहना आपे आप में ऐसी र्प्यावरणीय त्रासदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं है। देश में वैसे तो रेत की कोई कमी नहीं है - विशाल समुद्रीय तट है और कई हजार किलोमीटर में फैला रेगिस्तान भी, लेकिन समुद्रीय रेत लवणीय होती है जबकि रेगिस्तान की बालू बेहद गोल व चिकनी, तभी इनका इस्तेमाल  निर्माण में होता नहीं ।  प्रवाहित नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरेाधक, जल को षुद्ध रखने का छन्ना  और  नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है। तटों तक  रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है। नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, उसका अपना पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सुक्ष्म वेक्टेरिया सहित कई तत्व षामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है।  नदियों की कोख अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रही है। तभी अब नदियों में रेत भी नहीं आ पा रही है, पानी तो है ही नहीं। रेत के लालची नदी के साथ-साथ उससे सटे इलाकों को भी खोदने से बाज नहीं आते। पिछले साल ही राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में जब बनास नदी सूख गई तो  रेत के लिए करीबी चरागाह, नाले तक खोद डाले गए। 

छत्तीसगढ़ के लिए की गई चेतावनी अब सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज है। कुछ साल पहले रायपुर के आसपास रेत की 60 खदानें थी, प्रशासन ने उनकी संख्या घटा कर दस कर दी। ऐसे में यहां उत्पादन कम है और खपत अधिक है। रायपुर में विकास के कारण आए दिन बालू की मांग बढ़ती जा रही विशेषज्ञों की चेतावनी है कि समय रहते यदि चेता नहीं गया तो रायपुर से लगी शिवनाथ, खारुन और महानदी में कुछ सालों रेत खत्म हो जाएगी। 

कानून तो कहता है कि ना तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदेा और ना ही उसके जल के प्रवाह को अवरूद्ध करो ,लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह करता नहीं । रेत नदी के पानी को साफ रखने के साथ ही अपने करीबी इलाकों के भूजल को भी सहेजता है।  कई बार एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट  निर्देश दे चुकी, पिछले साल तो आंध््रा प्रदेश सरकार को रेत का अवैध उत्खनन ना  रोक पाने के कारण 100 करोड़ का जुर्माना भी लगा दिया गया था। इसके बावजूद मध्यप्रदेश की सरकार ने एनजीटी के निर्देशों की अवहेलना करते हुए रेत खनन की नीति बना दी। एनजीटी ने कहा था कि रेत परिवहन करने वाले वाहलों पर जीपीएस अवश्य लगा हो ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके, लेकिन आज भी पूरे प्रदेश में खेती कार्य के लिए सवीकृत ट्रैक्टरों से रेत ढोई जा रही है। स्वीकृत गहराइयों से दुगनी-तिगुनी गहराइयों तक पहुंच कर रेत खनन किया जाता है। जिन चिन्हित क्षेत्रों के लिए रेत खनन पट्टा होता है उनसे बाहर जाकर भी खनन होता है। बीच नदी में पॉकलैंड जेसी मशीने लंगाना आम बात है। यह भी दुखद है कि पूरे देश में जब कभी नदी से उत्खनन पर कड़ाई  होती है तो सरकारें पत्थर पीस कर रेत बनाने की मंजूरी दे देती हैं,  इससे पहाड़  तो नश्ट होते ही हैं आसपास की हवा में भी  धूल कण कोहराम मचाते हैं। 

 आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी  नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है। फिर उसी के अनुसार निर्माण कार्य की नीति बनाई जाए।  कहने की जरूरत नहीं कि  इंजीनियरों को रेत के विकल्प खोजने पर भी काम करना चाहिए।  उसी के अनुरूप राज्य सरकारें उस जिले में रेत के ठेके दें। 

आज यह भी जरूरी है कि मशीनों से रेत निकालने, नदी के किस हिस्से में रेत खनन पर पूरी तरह पांबदी हो, परिवहन में किस तरह के मार्ग का इस्तेमाल हो, ऐसे मुद्दों पर व्यापक अध्ययन होना चाहिए। साथ ही नदी तट के वाशिंदों को रेत-उत्खनन के कुप्रभावो ंके प्रति संवेदनशील बनाने के  प्रयास भी होना चाहिए। आम लोगों को यह बताना जरूरी है कि रेत निकालने के बाद नदी तट से लगी जमीन कमजोर होती है और इसका असर  इमारतों की नींव पर भी पड़ता है। 


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