बच्चों के लिए निकलने वाली स्तरीय पत्रिकाओं के अभाव के बीच बीते साल अनिल जायसवाल ने "पायस " के रूप में प्रयोग किया . पत्रिका डिजिटल रूप में भेजी जाती है ग्राहकों को - अभी कई हज़ार घरों तक इसकी पहुँच है और बाल साहित्य के सभी अच्छे लेखक इसके सहभागी हैं .
पत्रिका का सितम्बर अंक प्रवासी पक्षियों पर है .
इस अंक में मेरी एक कहानी है - जंगली जानवर के पर्यावास और भोजन पर मौलिक -- शायद अभी तक बाल साहित्य में इस विषय पर कुछ लिखा नहीं गया -- बस्तर के परिवेश में तो शायद बिलकुल नहीं
गिलहरी उड़ना भूल गई
इतना घना जंगल ! दिन में अंधेरा रहता है।साल-सागौन के इतने ऊंचे पेड़ कि सूरज की रेाषनी भीतर झांकने से पहले रूक जाती है। बहुत सारी नदियां और झरने। सबसे खूबसूरत जगह तो कुटुम्सर की गुफा। गहराई में उतरो तो एक अलग ही दुनिया। देष की सबसे गहरी गुफा- कोई 70 फुट नीचे उतरो तो चार हजार फुट से लंबी- घुप्प अंधेरा । इतने घने जंगल में आखिर कौन आता? हर तरफ बाघ-तेंदुआ घूमते। खरगोश और लोमड़ी, हिरण और भैंसे के बड़े-बड़े झुंड बगैर डर के धमा चौकड़ी मचाते।
इसी जंगल में रहता था गिलहरी की बड़ा सा कुनबा। यह कोई ऐसी वैसी गिलहरियां नहीं थी, ये उड़ती थीं- एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक। खाने के लिए तो अपने बचने के लिए, कभी मौज मस्ती के लिए -- अपने पैर पसारे-- पंख जैसे पैर और मार दी छलांग- लंबी छलांग।
जब देश आजाद हुआ उसके कुछ साल बाद ही चूने की विलक्षण वाली संरचना की कुटुम्सर गुफा की खेाज हो गई थी, लेकिन इतने घने जंगल में आता कौन?
साल बीते, सड़कें बनीं, बाहरी दुनिया में बस्तर एक कौतुहल का विषय बन गया और सन 1982 में कांगेर के जंगलों को नेशनल पार्क घोषित कर दिया गया।
अब गिलहरियां क्या जानतीं कि उनके घर को अब राष्ट्रीय घोषित कर दिया गया है। इंसानों की आवाजाही बढ़ने लगी। हर दिन मोटर कार आतीं। जंगलों में घूमती- गुफा में नीचे उतर कर जातीं। जमीन पर चार पैर से चलने वाले जानवर तो समझ गए कि दुनिया का सबसे खतरनाक जीव इंसान अब उनकी बस्ती में आ रहा है। वे तो और गहरे जंगल में चले गए और अब वहां आने वाले इंसान की बाघ देखने के लिए अंधियारे जंगल में जाने की हिम्मत नहीं होती।
अब यहां दूरबीन और कैमरे वालों की आवक बढ़ गई। उनकी निगाह पेड़ों की फुनगियों पर होती। उस दिन जब एक इंसान की निगाह हवा में उड़ती गिलहरी पर गई तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
“यह चिमगादड़ है?”
“नहीं-नहीं! चिमगादड़ नहीं है। इसका चेहरा अलग है। पंख भी वैसे नहीं।“
इंसानों में बहस हो रही थी और कुछ केवल फोटो खींच रहे थे। और फिर देश -दुनिया को पता चल गया कि कांगेर घाटी में ऐसी गिलहरी भी है जो ग्लाइडर की तरह उड़ती है।
फिर तो दिन चढ़ते ही इंसानों की भीड़ आने लगी। पेड़ पर चुपचाप बैठी , थकी मांदी गिलहरी की तरफ कोई पत्थर ही उछाल देता। हिश्शश -- छू-- हो-हो-- हर समय शोर । इससे दूसरे पक्षी भी परेशान थे और गिलहरी भी। हर इंसान चाहता कि गिलहरी एक बार उड़ कर दिखा दे और वह फोटो खंीच ले।
आखिर थक-हार कर धीरे-धीरे गिलहरियों को अपना पुश्तों से चला आ रहा घर छोड़ना पड़ा। कभी उन्होंने ऐसा हल्ला-गुल्ला सुना नहीं था, सो ना उन्हें भूख लगती और ना ही उछलने-खेलने का मन करता । यह साल का पेड़ यदि सौ साल का है तो गिलहरी का परिवार भी इसकी कोटर में उतने ही साल से रह रहा था।
उसके बाद कई दिन इंसान आते और निराश लौट जाते। जिस गिलहरी की उड़ान को वे देखने आते थे, वह तो अपना बसेरा छोड़ चुकी थी। कुछ एक ने कोटर में उनके घर में भी झांका, वहां कुछ भी नहीं था। एक बार फिर वहां शांति हो गई।
नए घर को बसाने और नए परिवेश में खुद को ढ़ालने में समय तो लगता ही है। उड़ने वाली गिलहरी को दो छोटे बच्चे ऐसे भी थे जिनके लिए इंसान, कौतुहल था। वे एक दिन चुपके से अपने पुराने पेड़ो की तरफ उछल-कूद कर पहुंच गए। उन्हें भी निराशा हाथ लगी कि इंसांन तो है ही नहीं।
घर लौट कर गिलहरी के बच्चों ने अपनी मां को कहा, “ हम जिस जानवर के डर से अपना पुराना घर छोड़ कर आए। अब वह नहीं आता।“
“ तुम्हे कैसे पता?” मां ने पूछा।
“ हम वहां गए थे देखने।“
“ देखो संभल कर रहना। इंसान जहां एक बार पहुंच जाता है, फिर वह जगह छोड़ता नहीं। देखना आज नहीं तो कल वह आएगा जरूर।“
बच्चों ने बात को इस कान सुना और दूसरे कान बाहर निकालन दिया। वे रोज वहां जाते। धमा चौकड़ी करते और लौट आते। उस दिन ये दोनो बच्चे जामुन के पेड़ पर छलांग मार रहे थे और एक इंसान ने उन्हें देख लिया।
अगले दिन वहां झाड़ियों के पीछे , पेड़ की ओट में और इंसान छुप गए। जैसे ही ये बच्चे पुरानी बस्ती में आए, इन लोगों ने भुने चने, बिस्कुट जैसा खाने का सामान वहां ड़ाल दिया। अब बच्चो ने इंसान को देख लिया था और वे भी डर कर पेड की सबसे ऊंची डाल पर छुप गए। जंगल में सूरज जल्दी ढलता सा लगता है। इन्सान लौट गए और गिलहरी के बच्चों के जमीन पर बिखरे सामान की ओर लालायित हो गए। वे डरते-सहमते नीचे आए। बिस्कुट का स्वाद तो उनके लिए बिल्कुल नया था। और चने को चबाने में उन्हें बड़ा मजा आया। इधर गिलहरी के बच्चों को नए खाने में मजा आने लगा और उघर इंसान को पता चल गया कि गिलहरी को खाने में मजा आ रहा है।
अब हर दिन ये गिलहरी के बच्चे यहीं आ जाते। उधर इंसान की भीड़ बढ़ने लगी। पहले तो कुछ दिन गिलहरी के बच्चे पेड़ से छुप कर उन्हें देखते, कई बार इधर से उधर छलांग भी लगाते और नीचे से इंसान तालियां बजाने लगते। हल्ला सुन कर उन्हें डर भी लगता। फिर समय के साथ वे ताली और शोर के आदी हो गए- अब वे इंसान की मौजूदगी में नीचे आते, खाने के सामान पर झपट्टा मारते और उपर उछल जाते। यह सिलसिला कई दिनों चला और अब गिलहरी के बच्चों को इंसान का डर खतम हो गया| अब वे आराम से नीचे आते, मन भर कर खाते और इंसान की भीड़ भी उनके फोटो खींचती।
शाम को गिलहरी के मां-पिता आए और बहुत समझाया – ‘इंसान का खाना हमारे लिए नहीं है। हम तो अपनी मेहनत से खाते हैं। ये हमे उड़ना इसी लिए सिखाया कि दूसरे जानवरों से बच सकें और ऊंचे पेड से भी रसीला फल ले सकें।‘
ये कहां मानने वाले थे? अब तो उनके साथ कई और गिलहरी भी वहां जाने लगीं। सभी को हाथों-हाथ खाना मिल जाता - ना भोजन तलाशना, ना कहीं उछलना , ना किसी से बचना और स्वाद अलग था ही। भीड़ बढ़ रही थी।
शाम ढलते जब मोटर कारें लौटतीं तो पीछे से ढेर सारा कचरा रह जाता। गिलहरी के बच्चों ने अब घर जाना ही बंद कर दिया। यहीं रहते और रात में भी खाते रहते।
एक सुबह , हर दिन की तरह जब उनकी आंख खुली तो, लेकिन यह क्या ? एक भी इंसान नहीं आया ! अब सूरज ढलने लगा। भूख भी लग रही थी। जामुन खाया तो स्वाद नहीं लगा। पुराने पड़े कचरे में से कुछ बीना तो सफेद चमकीली सी पन्नी गले में फंस गई। भूख भी लगी थी। उस दिन ऐसे ही अपनी कोटर में आ गए। आदत तो रात में भी खाने की थी और आज तो दिन में भी खाना नहीं मिला।
अगले दिन भी वहां सन्नाटा था। उससे अगले दिन भी। दूर फुनगी पर साल के बीज दिख रहे थे। एक गिलहरी ने ग्लाईडर की तरह उड़ना चाहा! यह क्या ? वह तो थोड़ी दूर भी हवा में नहीं रह नहीं पाई।
अब जमीन पर इंसान द्वारा छोड़े गए खाने में से बदबू आ रही थी और इंसान के खाने की आदत डाल चुके उड़न गिलहरी को वह मिल नहीं रहा था।
अब थक-हार कर इन सभी को अपने घर लौटना ही पड़ा। रात में मां ने बताया कि इंसानों के बीच कोई वायरस फैल गया है और वह अब घर से नहीं निकल रहा। कह रहे हैं कि उनके कोटर के नीचे रहने वाले चमगादड़ के शरीर से कोई विषाणु निकला था। गिलहरी के बच्चों को समझ नहीं आ रहा था कि ये बेचारे चमगादड़ अंधेरा होने से पहले घर से निकलते नहीं, ये कैसे इंसान को नुकसान पहुंचा सकते हैं?
अब परिस्थितियों से समझौता करना ही था। जंगल में रसीले फल भी थे और बहुत से बीज भी। लेकिन संकट यह था कि महीनों से जिन्हें बगैर मेहनत के खाना मिल रहा था, वे उड़ना भूल गए थे। ज्यादा खाने के कारण वजन भी बढ़ गया , सो हवा में उछाल मारें तो जल्दी से नीचे आ जाते।
एक बार फिर मां ने उन्हें अपनी पिछले पैर की रबर जैसी झिल्ली को फैलाना सिखाया। बताया कि कैसे गर्दन को झुका कर सारी ताकत लगानी होती है। कुछ महीना लगा, बच्चे फिर हवा में उड़ना, अपना खाना खुद जुटाना सीख गए।
ठंड का मौसम आ गया। इस समय जंगल बुहत सुहाना हो जाता हे। हल्की सी धूप भी सुखद लगती है। बूढ़े गिद्ध ने आ कर बताया, “ अब इंसान से विषाणु का खतरा कम हो गया हे। अब वह फिर घर से निकल रहा है। जंगल भी आने लगा है।“
गिलहरी के बच्चे सुन रहे थे, सिर झुका कर।
“ अब फिर चलो, वहीं । कहां जंगल का खाना खा रहे हो?” गिद्ध ने हंसते हुए चुटकी ली।
“हमारे लिए अपने घर से प्यारा कुछ नहीं। जो मजा गूलर के मीठे फल में है वह इंसान के खाने में कहां?” कहते हुए गिलहरी के बच्चों ने उतनी लंबी उड़ान भर ली जितनी अभी तक उनके पापा भी नहीं भर पाते थे।
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