कई समस्याओं का समाधान है गो पालन, भारतीय परंपरा का अभिन्न अंग रहा है गोवंश
पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि गोमांस खाना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। बूढ़ी बीमार गाय भी कृषि के लिए उपयोगी है। यह कृषि की रीढ़ है। गाय का मल एवं मूत्र असाध्य रोगों में लाभकारी है। इसकी हत्या की इजाजत देना ठीक नहीं। हाई कोर्ट ने वैदिक, पौराणिक, सांस्कृतिक महत्व एवं सामाजिक उपयोगिता को देखते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का सुझाव दिया है। देखा जाए तो कोर्ट ने यह टिप्पणी महज भावनात्मक आधार पर नहीं की है। यह बात वैज्ञानिक और व्यावहारिक तौर पर सही है कि यदि गाय को सहेजा जाए तो इससे प्रकृति और समाज दोनों को बचाया जा सकता है। गो संरक्षण को यदि नारों से आगे ले जाकर हकीकत बनाया जाए तो इससे भारत के कई संकटों-बढ़ती आबादी-घटते रकबे, कुपोषण, बेरोजगारी और प्रदूषण का समाधान हो जाएगा। हालांकि गोवंश संरक्षण के लिए गोशालाएं खोलने के बजाय उन्हें पूर्व की भांति हमारी सामाजिक-आíथक धुरी बनाना होगा। गोरक्षा के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को यह बात जान लेनी चाहिए कि अब केवल धर्म, आस्था या देवी-देवता के नाम पर गाय को बचाने की बात न तो व्यावहारिक है और न तार्किक। गंभीरता से देखें तो खेती को लाभकारी बनाने, कार्बन उत्सर्जन को कम करने और सभी को पौष्टिक भोजन मुहैया करवाने की मुहिम गोवंश पालन के बिना संभव नहीं है।
मानव सभ्यता के आरंभ से ही गोवंश मनुष्य के विकास पथ का सहयात्री रहा है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिले अवशेष साक्षी हैं कि पांच हजार साल पहले भी हमारे यहां गोवंश पूजनीय थे। आज भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूल आधार गोवंश है। हालांकि भैंस के बढ़ते प्रचलन तथा कतिपय कारखाना मालिकों एवं पेट्रो-उद्योग के दबाव में गांवों में अब टैक्टर और अन्य मशीनों का प्रयोग बढ़ा है, लेकिन यह बात अब धीरे-धीरे समझ आने लगी है कि छोटे किसानों के लिए बैल न केवल किफायती, बल्कि धरती एवं पर्यावरण के संरक्षक भी हैं। अनुमान है कि देश में बैल हर साल एक अरब 20 करोड़ घंटे हल चलाते हैं। सरकारी अनुमान है कि आने वाले आठ वर्षो में भारत में करीब 27 करोड़ बेसहारा मवेशी होंगे। यदि उन्हें सलीके से सहेजें तो हमारे पास इस पशुधन का बड़ा भंडार हो जाएगा।
भारत की गाय का दुग्ध उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। हमारे देश में एक गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है। जबकि डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का सालानाउत्पादन औसत 4,101 लीटर है। यह आंकड़ा स्विट्जरलैंड में 4,156 लीटर, अमेरिका में 5,386 और इंग्लैंड में 4,773 लीटर है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना घाटे का सौदा है। यही वजह है कि जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसे घर पर रखता है और जब वह सूख जाती है तो सड़क पर छोड़ देता है। हमें गाय की ऐसी नस्लों पर फोकस करना चाहिए जिनसे अधिक से अधिक दूध हासिल हो सके। ऐसा नहीं है कि पहले बूढ़ी गाय हुआ नहीं करती थीं, लेकिन तब चारे के लिए देश के हर गांव-मजरे में जो जमीन, तालाब और जंगल हुआ करते थे वे आधुनिकता की भेंट चढ़ गए। तालाब पाट दिए गए। जंगल भी काट लिए। जाहिर है कि ऐसे में निराश्रित पशु आपके खेत के ही सहारे रहेंगे।
सर्वविदित है कि गाय पालन को बढ़ावा देकर हम दूध एवं उसके उत्पाद को बढ़ा सकते हैं। इससे हमें कम कीमत पर पौष्टिक आहार मिल सकता है। बैल का खेती में इस्तेमाल डीजल पर हमारे खर्च को बचा सकता है। साथ ही यह डीजल से संचालित ट्रैक्टर, पंप और अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूषण से भी निजात दिलवा सकता है। वहीं छोटे रकबे के किसान के लिए बैल का इस्तेमाल ट्रैक्टर के मुकाबले सस्ता और पर्यावरण हितैषी होता है। गोबर और गोमूत्र का खेती-किसानी में इस्तेमाल न केवल लागत कम करता है, बल्कि मिट्टी को उपजाऊ बनाने के साथ-साथ उसमें कार्बन की मात्र को नियंत्रित करने का भी बड़ा जरिया है। फसल अवशेष जलाना इस समय देश की एक बड़ी समस्या बन गई है। गोवंश के इस्तेमाल बढ़ने पर यह उनके आहार में उपयोग हो जाएगा। दुर्भाग्य है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व वैज्ञानिकता से परे भावनात्मक बातों से गाय पालना चाहता है। कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश में ही घोषणा की गई कि मिड डे मील का भोजन लकड़ी की जगह गाय के गोबर से बने उपलों पर पकेगा। असल में उपलों को जलाने से ऊष्मा कम मिलती है और कार्बन तथा अन्य वायु-प्रदूषक तत्व अधिक निकलते हैं। इसकी जगह गोबर का खाद के रूप में इस्तेमाल ज्यादा परिणामदायी होता है। यह तथ्य सरकार में बैठे लोग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है। इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बनाकर जला दिया जाता है। वहीं ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल 16 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है। चीन में डेढ़ करोड़ परिवारों को घरेलू ऊर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि हमारे देश में भी गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी और साढ़े तीन करोड़ टन कोयले को बचाया जा सकता है। इससे तमाम लोगों को रोजगार भी मिल सकता है।
जाहिर है देश और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशुधन को सहेजने के प्रति दूरदर्शी नीति और कार्ययोजना समय की मांग है। आज भी भारत की राष्ट्रीय आय में पशुपालकों का प्रत्यक्ष योगदान छह फीसद है। गाय पर कोई दया न दिखाए, बस उसकी क्षमता का देश के लिए इस्तेमाल करें। जरूरत है सरकारें इलाहाबाद हाई कोर्ट की बातों का मर्म समङों कि गाय मात्र आस्था का विषय नहीं, अपितु अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण से भी जुड़ा मसला है। इसलिए गाय पालना जरूरी है।
(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें