आने वाली सदी भी किताबों की ही है!
पंकज चतुर्वेदी
जनवरी के पहले सप्ताह में भीषण ठंड की संभावना है इसके बावजूद लेखक-प्रकाशक-पुस्तक प्रेमी उत्साहित हैं । बीते साल कोविड के चलते नई दिल्ली का सालाना पुस्तक मेला वर्चुअल हुआ था। प्रगति मैदान में बहुत से मेले लगते हैं, गाड़ियों का खाने-पीने का, प्लास्टिक व इंजीनियरिंग का.... और भी बहुत से लेकिन भले ही इसे नाम मेला का दिया गया हो, असल में यह पुस्तकों के साथ जीने, उसे महसूस करने का उत्सव है। जिसमें गीत-संगीत हैं, आलेाचना है, मनुहार है, मिलन है, असहमतियां हैं और सही मायने में देश की विविधतापूर्ण भाषायी एकता की प्रदर्शनी भी है। इस बार नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले का तीसवां संस्करण है और मेले के आयोजन का पचासवां साल। सनद रहे पहले यह दो साल में एक बार लगता था। तिस पर आजादी के 75वें साल का जश्न तो है ही। इस बार का पुस्तक मेला आठ से 16 जनवरी 2021 तक हैं और इसका थीम आजादी का अमृत उत्सव हैं व अतिथि देश है फ्रंास।
पिछली एक सहस्त्राब्दी के दौरान हुई नई खोजों में
पुस्तक सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार रहा है । यह विश्व में राजनैतिक लोकतंत्र की स्थापना
से पहले की खोज है । भारत का स्वतंत्रता संगाम दुनिया भर में अनूठा है क्योंकि इसकी
कमान लेखकों के हाथ में थी । इकबाल, टैगोर, निराला, प्रेमचंद, सुब्रहमण्यम् भारती जैसे लेखकों ने राजैनतिक स्वतंत्रता
मिलने से बहुत पहले ही वैचारिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी ।
विकासमान समाज पर आधुनिकता और हाई-टेक का गहरा असर
हो रहा है । इनसे जहां भौतिक जीवन आसान हुआ है, वहीं दूसरी ओर हमारे जीवन में परनिर्भरता का भाव
बढ़ा है । इससे हमारे जीवन का मौलिक सौंदर्य प्रभावित हो रहा है । रचनात्मकता पिछड़ रही
है और असहिश्णुता उपज रही है । ऐसे में पुस्तकें आर्थिक प्रगति और सांस्कृतिक मूल्यों
के बीच संतुलन बनाए रखने में अदभुत और निर्णायक भूमिका निभाती है । सूचनाएं और संचार
बदलते हुए विश्व के सर्वाधिक षक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र बनते जा रहे हैं । पिछले दो दशकों
में सूचना तंत्र अत्यधिक सशक्त हुआ है, उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं । लेकिन पुस्तक
का महत्व और रोमांच इस विस्तार के बावजूद अक्षुण्ण है । यही नहीं कई स्थानों पर तो
पुस्तक व्यवसाय में अत्यधिक प्रगति हुई है । यूरोप और अमेरिका में लेाग मानने लगे हैं
कि पुस्तकें उनकी संस्कृति की पोशक हैं, तभी वहां लेखकों को बड़े-बड़े सम्मान दिए जा रहे हैं
।
बीते तीन दशकेां से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी
का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में
जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी
बहुरंगी चकाचौंध में उदरस्थ ना कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं, पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे
बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या
बढ़ रही है। जो प्रकाशक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बांकी के पाठकों
की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
दुनिया में हर साल आयोजित होने वाले बड़े पुस्तक मेले
बानगी हैं कि अभी फिलहाल ‘‘काले हरफ’’ का जादू उतरने वाला नहीं है। एक बात और टीवी, इंटरनेट व अन्य माध्यमों
ने पुस्तकों की मांग को बढ़ाया ही है। दक्षिण एशिया के प्रमुख सालाना अंतरराश्ट्रीय
पुस्तक मेलांे - कराची व लाहौर(पाकिस्तान ), कोलंबो(श्रीलंका) और काठमांडो(नेपाल) गवाह हैं कि
उनकी रंगत केवल और केवल भारतीय प्रकाशकों के बदौलत रहती है। चाहे हायर एजुकेशन की पुस्तकें
हों या फिर नेपाली, उर्दू, सिंधी और तमिल की पुस्तकें ; इन अंतरराश्ट्रीय मेलों में केवल भारत का डंका बोलता
है।
संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी
पुस्तकों के प्रकाशन में भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। भारत दुनिया के सबसे विशाल
पुस्तक बाजारों में से एक हैं और इसी कारण हाल के वर्शों में विश्व के कई बड़े प्रकाशकों
ने भारत की ओर अपना रुख किया है । विश्व पुस्तक बाजार में भारत के विकासमान महत्व को
रेखांकित करने के उदाहरणस्वरूप ये तथ्य विचारणीय हैं-फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला, 2006 में भारत को दूसरी
बार अतिथि देश सम्मान, सन 2009 के लंदन पुस्तक मेला का ‘मार्केट फोकस’ भारत होना, मास्को अंतरराश्ट्रीय
पुस्तक मेला 2009 में भारत को अतिथि देश का दर्जा आदि। भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल
सांस्कृतिक, सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाशन एक क्रांतिकारी दौर से
गुजर रहा है । छपाई की गुणवत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ विशय विविधता यहां की विशेशता
है । समसामयिक भारतीय प्रकाशन एक रोमांचक और भाशाई दृश्टि से विविधतापूर्ण कार्य है।
विश्व में संभवतः भारत ही एक मात्र ऐसा देश हैं जहां 37 से अधिक भाशाओं
में पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी
पुस्तकों के प्रकाशन में भारत का तीसरा स्थान है । पुस्तकों की महत्ता का प्रमाण यह
आंकड़ा है कि हमारे देश में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिशत हिंदी, 20 प्रतिशत अंग्रेजी
और षेश 55 प्रतिशत अन्य भारतीय भाशाओं में हैं। लगभग 16 हजार प्रकाशक सक्रिय रूप से इस कार्य में लगे हैं।
प्रकाशक के साथ, टाईप सेटर , संपादक , प्रूफ रीडर, बाईंडिग, कटिंग, विपणन जैसे कई अन्य कार्य भी जुडे़ हैं। जाहिर है कि यह समाज के बड़े वर्ग के रोजगार
का भी साधन है। विश्व बाजार में भारतीय पुस्तकों का बेहद अहम स्थान है। एक तो हमारी
पुस्तकों की गुणवत्ता बेहतरीन है, दूसरा इसकी कीमतें कम हैं। भारतीय पुस्तकें विश्व के 130 से अधिक देशों को
निर्यात की जाती हैं।
दुनिया के सबसे विशाल और प्रतिश्ठित पुस्तक मेला
की बात की जाए तो सभी एकमत से जर्मनी के फैं्रकफर्ट का नाम लेते हैं। लेकिन यह जान
कर आश्चर्य होगा कि वहां आगंतुकों की संख्या कुछ हजार में ही होती है- वहां सहभागिता
करने वालों के बराबर । फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला में किताबों बिकती ही नहीं हैं- वहां
तो केवल किताबों के प्रकाशन, पुनर्मुद्रण और स्वत्वाधिकार की खरीद-फरोक्ष्त का
काम होता है। साथ में बेहतर मुद्रण तकनीक पर जानकारी होती है। यहां भारत सन 1955 से सहभागिता करता
आ रहा है। कराची का अंतरराश्ट्रीय पुस्तक मेले का मुख्य आकर्शण उच्च शिक्षा- मेडिकल, इंजीनियरिंग, मेनेजमेंट आदि की
पुस्तकें होती हैं और ये सभी अधिकांश भारतीय प्रकाशक ही ले कर जाते हैं। लाहैार पुस्तक
मेला का बाजार भारत की पंजाबी और उर्दू की साहित्यिक पुस्तकों के कारण गर्म रहता है।
अफ्रीकी देशों में नाईजारिया और केपटाउन(दक्षिण अफ्रीका)
पुस्तक मेले बेहद मशहूर है।ं यहां पर विकसित और विकासशील देशों से आई पाठ्य पुस्तकों
की बिक्री ज्यादा होती है। वहां ज्ञान की भूख बढ़ी है, दुनिया की प्रतिस्पद्धा
में खड़े रहने के लिए अफ्रीकी लोग यूरोप व एशियाई देशों की पुस्तकों का सहारा ले रहे
हैं। यह भी कहा जाता है कि अफ्रीका यूरोप व अन्य विकसित देशों की रद्दी या पुरानी हो
गई पुस्तकों का बड़ा बाजार है। यूरोप के सबसे पुराने विश्वविद्यालय का दर्जा रखने वाले
इटली के बलोना षहर मे ं हर साल बच्चों की पुस्तकों का मेला होता है। यह मेला छोटे बच्चों
के लिए चित्रात्मक पुस्तकों का विश्वस्तरीय आकर्शण होता है। भले ही यहां नई दिल्ली
की तरह कंधे छीलती भीड़ ना होती हो, लेकिन यहां आने वाला दर्शक कला और षब्द, दोनों की गंभीर पारखी
होता है। जापान की राजधानी टोकिया में हर साल लगने वाला पुस्तक मेला का आकर्शण उसका
‘‘पुस्तक बाजार’’ नामक विशिश्ठ खंड होता है। यहां आयातित पुस्तकें, जिनमें अधिकांश अंग्रेजी
की हेाती हैं; आधी कीमत पर बेची जाती हैं। यह इलाका ‘किताब के कीड़ों’’ का पसंदीदा होता है। अब अरब
दुनिया किताबों पर बड़ा ध्यान दे रही है, षारजाह, अबुधाबी से ले कर जार्डन दजीप्ट तक में सालाना बुक
फेयर होते हैं जहां पढ़ाकों का जुनून देखते बनता है। वहां सरकारें किताबें खिने व अनुवाद
पर आकर्शक वजीफे भी दे रही हैं। असल में अरब
अपना साहित्य-संस्कृति में अपना चेहरा चमकाना चाहते हैं।
लेकिन नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला कई मायनों में
विश्व का अनूठा अवसर होता है - यहां एक साथ इतनी अधिक भाशाओं में, इतने अधिक विशयों
पर पुस्तकें देखने को तो मिलती ही हैं, यहां आने वाली लाखेंा-लाख लोगों की भीड़ देश की विविधता
और एकता की भी साक्षी होती है । इन सभी बातों को करीब से जानने के लिए वसंत के मोहक
मौसम में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन दिल्लीवासियों के लिए एक आनंदोत्सव की तरह है
। यहां कई लेखक, खिलाड़ी, मशहरू सिनेमा कलाकार, राजनेता, विदेशी राजनीयिक नियमित आते हैं, किताबों और लोगों
के साथ समय बिताते हैं।
हमारे देश में प्रकाशन का इतिहास 300 साल पुराना हो गया
है। इसके बावजूद असंठित, अनियोजित और अल्पकालीक प्रकाशन आज भी इस व्यवसाय
पर हावी है। इसकी छबि पुस्तक मेलों में देखने को भी मिलती है। भारत की 64.8 फीसदी आबादी साक्षर
है, यानी कोई 84 करोड़ लोग लिख-पढ़ सकते हैं। यह बात सही है कि सभी साक्षर लोगो का रूझान पुस्तकें
पढ़ने में नहीं होता है लेकिन व्यवसाय की दृश्टि से यह एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। जो
मनोरंजन, ज्ञानवर्धन, समय काटने, सूचना लेने जैसे कार्यों में पुस्तकों पर निर्भर होता है। जरूरत इस बात की है कि
समाज के प्रत्येक वर्ग की आवश्यकताओं को समझा जाए और उसके अनुरूप पुस्तकें तैयार की
जाएं और उनकी उपलब्धता हो। हमारी पठनीयता का स्तर विश्व स्तरीय हो, इसके लिए विदशी पुस्तकों
की कतई जरूरत नहीं है, जरूरत है अपने पाठकों की जरूरत को समझने व उसके अनुरूप
प्रकाशन करने की।
किताबें बिकती नहीं हैं, पूंजी कम है, कीमतें ज्यादा हैं, छपाई व कागज के दाम
आसमान को छू रहे हैं, प्रकाशक लेखक का पारिश्रमिक खा जाते हैं, प्रकाशन का ध्ंाधा सरकारी खरी और कमीशनखोरी पर टिका
है, टीवी ने किताबों की बिक्री कम कर दी है-- आदि--आदि ! ढेर सारी शिकायतें, शिकवे औ परेशानियां
हैं, इसके बावजूद पुस्तक मेले आबाद है। लोगों को वहां जाना अच्छा लगता है(चाहे जो भी
कारण हो)। जाहिर है कि ‘‘ ये जिंदगी के मेले दुनिया मे ंकम ना होंगे, अफसोस हम ना होंगे---’’
पटरी बाजार बनता नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला
‘बात करती हैं किताबें, सुनने वाला कौन है ?
सब बरक यूं ही उलट देते हैं पढ़ता कौन है ?’ अख्तर नज्मी
लेखकों, प्रकाशकों, पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार होता है हर दूसरे
साल लगने वाले नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का। हालांकि फेडरेशन आफ इंडियन पब्लिशर्स(एफआईपी)
हर साल अगस्त में दिल्ली के प्रगति मैदान में ही पुस्तक मेला लगा रहा है और इसमें लगभग
सभी ख्यातिलब्ध प्रकाशक आते हैं, बावजूद इसके नेशनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक मेले की
मान्यता अधिक है। वैश्वीकारण के दौर कें हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें अभी
इस श्रेणी से दूर हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों से नई दिल्ली पुस्तक मेला पर वैश्वीकरण
का प्रभाव देखने को मिल रहा है। हर बार 1300 से 1400 प्रकाशक/विकेंता
भागीदारी करते हैं, लेकिन इनमें बड़ी संख्या पाठ्य पुस्तकें बेचने वालों की होेती हे। दरियागंज के अधिकांश
विक्रेता यहां स्टाल लगाते हैं। परिणामतः कई-कई स्टालों पर एक ही तरह की पुस्तें दिखती
हैं।
यह बात भी तेजी से चर्चा में है कि इस पुस्तक मेले
में विदेशी भागीदारी लगभग ना के बराबर होती जा रही है। यदि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल
को छोड़ दें तो विश्व बैंक, विश्व श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संयुक्त राश्ट्र, यूनीसेफ आदि के स्टाल
विदेशी मंउप में अपनी प्रचार सामग्री प्रदर्शित करते दिखते हैं। फै्रंकफर्ट और अबुधाबी
पुस्तक मेला के स्टाल भागीदारों को आकर्शित करने के लिए होते हैं। इक्का-दुक्का स्टालों
पर विदेशी पुस्तकों के नाम पर केवल ‘रिमेंडर्स’ यानी अन्य देशों की फालतू या पुरानी पुस्तकें होती
हैं। ऐसी पुस्तकों को प्रत्येक रविवार को दरियागंज में लगने वाले पटरी-बाजार से आसानी
से खरीदा जा सकता है।
नई दिल्ली पुस्तक मेला में बाबा-बैरागियों और कई
तरह के धार्मिक संस्थाओं के स्टालों में हो रही अप्रत्याशित बढ़ौतरी भी गंभीर पुस्तक
प्रेमियों के लिए चिंता का विशय है। इन स्टालों पर कथित संतों के प्रवचनों की पुस्तकें, आडियों कैसेट व सीडी
बिकती हैं। कुरान षरीफ और बाईबिल से जुड़ी संस्थाएं भी अपने प्रचार-प्रसार के लिए विश्व पुस्तक मेला का सहारा
लेने लगी हैं।
पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सेमिनारों, पुस्तक लोकार्पण
आयोजनों का भी अंबार होता है। कई बार तो ऐसे
कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते है। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं
है कि दिल्ली में एक ऐसा समूह सक्रिय है जो सेमिनारों/ गोश्ठियों में बगैर बौद्धिक
सहभागिता निभाए भोजन या नाश्ता करने के लिए कुख्यात है।
पुस्तक मेला के दौरान प्रकाशकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजंेंसियों
द्वारा वितरित की जाने वाली निशुल्क सामग्री भी एक आफत है। पूरा प्रगति मैदान रद्दी
से पटा दिखता है। कुछ सौ लोग तो हर रोज ऐसा ‘‘कचरा’’ एकत्र कर बेचने के लिए ही पुस्तक मेला को याद करते
हैं। छुट्टी के दिन मध्यवर्गीय परिवारों का समय काटने का स्थान, मुहल्ले व समाज में
अपनी बौद्धिक ताबेदारी सिद्ध करने का अवसर और बच्चों को छुट्टी काटने का नया डेस्टीनेशन
भी होता है। पुस्तक मेला। यह बात दीगर है कि इस दौरान प्रगति मैदान के खाने-पीने के
स्टालों पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है।
किताबें पहुंचे छोटे कस्बों तक
छोटे कस्बों और षहरों की त्रासदी रही है कि यहां
इंटरनेट और पेप्सी जैसे उपभोग का चस्का तो बाजार ने लगवा दिया लेकिन यहां पठन सामग्री
के नाम पर महज अखबार या पाठ्य पुस्तकें ही मिल पाती हैं। संयुक्त परिवार के बिखराव ही नहीं, समाज के मिलबैठ कर
कोई निर्णय करने की परंपरा को भी सेटेलाईट टीवी और इंटरनेट खा गया। आधुनिक संचार के माध्यम तथ्यहीन जहर उगल रहे हैं
व टीवी-अखबार पूंजी से संचालित दुकान। ऐसे में हमारे अतीत और भविश्य के प्रामाणिक दस्तावेजीकरण के माध्यम से ही हम बेहतर चुनाव कर
सकते हैं-विचारधारा का भी और बाजार के उत्पाद का भी, रिश्तों व समझ का भी। और एटा जैसे पुस्तक मेले जाति-धर्म, राजनैतिक प्रतिबद्वता, सामाजिक-आर्थिक भेदभाव
से परे एक ऐसा मैदान तैयार करते है। जो विचार की तलवार की धार को दमकता रखते हैं।
केवल किताब खरीदने के लिए तो दर्जनों वेबसाईट उपलब्ध हैं जिस पर घर बैठे आदेश
दो और घर बैठे डिलेवरी लो। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है जिससे जब
तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्ष ना करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं हे। फिर तुलनातमकता के
लिए एक ही स्थान पर एक साथ इनते सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृति
भी है। फिर अंाचलिक पुस्तक मेले तो एक त्योहार है, पाठकों, लेखकों, व्यापारियों , बच्चों के लिए।
अभी कुछ साल पहले तक नेशनल बुक ट्रस्ट दो साल में एक बार प्रगति मैदान
का अतंरराश्ट्रीय पुस्तक मेला लगाता था और ऐसे ही हर दो साल में एक राश्ट्रीय पुस्तक
मेला होता था, किसी राज्य की राजधानी में। इसके अलवा कई क्षेत्रीय पुस्तक मेले भी। आज कुछ निजी
कंपनिया व्यावसायिक आधार पर पुस्तक मेलों का आयेाजन कर रही हैं, जहां साहित्यिक आयेाजन भी होते हैं। आज आवश्यकता है कि हर जिले में समाज व सरकार मिल कर पुस्तक मेला समिति बनाए और कम से कम दो साल में
एक बार जिला स्तर पर मेले लगे। भले ही इसमें प्रकाशकों की भागीदारी बीस से पचास तक
हो, लेकिन उनके ठहरने, स्थान आदि की व्यवस्थ
हो, प्रशासन इसकी प्रचार-प्रसार की काम करे, जिले के षैक्षणिक
संस्थान ऐसे मेलों से अपनी लायब्रेरी का समृ़द्ध
करें और वहां हर दिन बच्चों व समाज के लिए
साहित्यिक, सांस्कृतिक आयेाजन हो। समाज भी सालभर ऐसे गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमाकंे की तैयारी
करे, बच्चे व मध्य वर्ग के लोग हर दिन एक रूपया
जोउ़ कर पुस्तक मेले से कुछ ना कुछ खरीदने का श्रम करें।
एक बात जान लें अतीत में भारत की पहचान विश्व में
एक ज्ञान पुज की रही है और आज जानने की लासा
और नया करने की प्रतिबद्धता के लिए जरूरी है कि दूरस्थ अंचलों तक पुस्तकों की रोशनी
पहुंचती रहे। यह भी जान लें कि जिन कस्बों-शहरों
में ऐसी सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियां होती हैं वहां टकराव कम होते हैं।
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