स्थानीय इतिहास से बेपरवाही क्यों?
पंकज चतुर्वेदी
पीलीभीत में बांसुरी महोत्सव का आयोजन हुआ, वहां आए बच्चे, नौकरीपेशा वर्ग, स्थानीय व्यापारी इस बात से बेखबर थे कि कभी सुभाषचंद बोस को देश से बाहर ले जाने में मदद करने वाले भगतराम तलवास बीस साल तक उनके ही शहर में रहे, उन्हें यह भी नहीं पता था कि सन 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उनके शहर के आयुर्वेदिक कालेज का एक छात्र दामोदर दास शहीद हो गया था। पीलीभीत की बांसुरी मशहूर करने वालों की इसमें कतई रूचि नहीं थी कि यहां एक अतिप्राचीन जामा मस्जिद, उसके पीछे गोरीशंकर मंदिर या छठी पादशाही गुरूद्वारा भी है। एटा का सरकारी स्कूल 134 साल पुराना हो गया, उसने कई अफसर, netaa nनेता अभिनेता बनाए, लेकिन जैसे ही नया भवन बना, पुरानी इमारत खंडहर बनने को मजबूर हो गई। शाहजहांपुर में 1857 के महान लड़ाके मौलवी साहब की कब्र हो या बिस्मिल का मकान, गुमनामी में हैं-ना ही प्रशासन को परवाह है और ना ही स्थानीय समाज को इसकी चिंता। शायद देश के हर कस्बे-शहर की यहीं त्रासदी है-- चौडी सड़क, चमचमाती बिल्डिंग के लोभ में अतीत को खंडहर में बदलते देखने में उनकी कोई संवेदना नहीं जागती। विडंबना है कि जब तब इतिहास को नए तरीके से लिखने का विचार आता है , वह सांप्रदायिक मसलों में फंस कर विवादों में घिर जाता है।
यह समझना जरूरी है कि अपनी स्थानीयता, अपने शहर , अपने पूर्वजों पर गर्व करने वाला समाज ही अपने परिवेश और सरकारी या निजी संपत्ति से जुड़ाव महसूस करता है और उसके सहेजने के प्रति संवेदनषील बनता है। यह भी समझना होगा कि अब वह पीढ़ी, गिनती की रह गई है जिसने आजादी के संघर्ष को या तो देखा या उसके सहभागी रहे, सो जाहिर है कि उस काल के संघर्ष को समझना आज की पीढ़ी के लिए थोड़ा कठिन होगा। यह देष का कर्तव्य है कि आजादी की लड़ाई से जुड़े स्थान, दस्तावेज, घटनाओं को उनके मूल स्वरूप में सहेज कर रखा जाए, वरना आजादी का इतिहास वही बचेगा जो कि राजनीतिक उद्धेश्य से गढ़ा जा रहा है।
अतीत कभी भी उससे संबद्ध सत्य के एकसमान रूप के साथ सामने नहीं आता है । इतिहास के तथ्यों पर विभिन्न लोगांे का एकमत ना होना स्वाभाविक है । जैसे-जैसे हमारा नजरिया बदलात है, हम अतीत को भी नए तरीके से देखते हैं - घटनाओं की पुनर्व्याख्या, उसमें निहित नए अर्थों की खोज, पूर्व के विश्लेषणों में अछूते रह गए नए प्रश्नों को उठाना । यही कारण है कि अतीत की किसी एक कहानी को इतिहासकार कई तरीकों से प्रस्तुत करते हैं । इतिहास को नए तरीके से लिखने के लिए वे तथ्यों की व्याख्या नए तरीके से करते हैं - ऐसे तरीकों से जोकि अतीत के बारे में हमारी धारणाओं को समृद्ध करते हों ।
खासकर आजादी का इतिहास
लिखने के लिए जरूरी है कि उसकी प्रमुख घटनाओं
से जुड़ी इमारतों-स्थानों को उनके मूल स्वरूप में सुरक्षित रखा जाए। आगरा या कानपुर में सरदार भगत सिह के ठहरने के स्थान
को अब तलाशा नहीं जा सकता, झांसी में
आजाद सहित कई क्रांतिकारियों के स्थान का कोई अता-पता नहीं, जलियांवाला बाग में गोलियों के निशानों को दमकते म्यूरल से ढंक दिया गया। अकेले स्थान ही
नहीं,
दस्तावेजों के रखरखाव में भी हम गंभीर रहे नहीं। तभी इतिहास
को किवदंती या अफवाह के घालमेल से प्रस्तुत करने में कई जिम्मेदार व नामीगिरामी लेाग
भी संकोच करते नहीं।
स्थानीय इतिहास को सहेजना व दस्तावेजीकरण करना असल में देश के इतिहास को फिर से लिखने जैसा ही है। इतिहास का पुनर्लेखन, ऐतिहासिक ज्ञान की वृद्धि का स्वाभाविक पक्ष है तो हमें इस बारे में भी सतर्क रहना होगा कि तर्कों के मूल में छिपी बातों की कल्पना करना या पूर्वानुमान लगाना, उठाए गए प्रश्नों, ज्ञान को प्रामाणिकता प्रदान करने की प्रक्रिया, विस्तार की गई कहानी के स्वरूप आदि किस तरह से प्रासंगिक व व्यापक इतिहास से जुड़ें।
19वीं सदी के अंतिम दिनों में भारतीय इतिहास को ब्रितानी इतिहासकार सेना में बगावत, किसानों के लगातार विद्रोह और षहरी क्षेत्रों में उपनिवेष विरोधी आंदोलनों के नजरिये से लिखने लगे। ठीक उसी समय संप्रदाय आधारित लेखन भी षुरू हो चुका था। एक धारा राश्ट्रवादी लेखन की भी थी लेकिन दुर्भ?ग्य से ऐसे लेखकों के मूलभूत सामाजिक-आर्थिक तथ्यों का आधार षासन-प्रदत्त आंकडे ही रहे। इस आपाधापी में जो अपना इतिहास लिख गया, वह किताबों मे रह गया, लेकिन जो इतिहास देष की आजादी की कई बड़ी घटनओं का साक्षी रहा, वह लापरवाही का िषकर हो गया। स्थानीय समाज जानता ही हनीं था कि उन्हें इन यादों को कैसे समेटना है और बउ़े इतिहासकार वहां तक पहुंचना ही नहीं चाहते थे।
इसी का लाभ उठा कर स्कूली व्यवस्था के बाहर,
बाजार में स्थानीय व राश्ट्रीय इतिहास पर प्रकाषित लोकप्रिय
पुस्तिकाओं ने ऐतिहासिक ज्ञान को दूसरे तरीके से प्रचारित किया । बगैर किसी तथ्य, प्रमाण
या संदर्भ के लिखी गई इन पुस्तकेंा के पाठक बड़ी संख्या में थे ,क्यों
कि ये कम कीमत पर स्थानीय बाजार में मिल जाती
थीं। बहुत बाद में पता चला कि इस तरह की पुस्तकों ने लोकप्रिय ऐतिहासिक संवेदनषीलता
को काफी चोट पहुंचाई । इनमें से कई पुस्तिकाएं मनगढंत किस्सों की थी ,
जिनमें बर्बर युद्धों का विवरण था । स्पश्ट तौर पर देखा जा सकता
है कि पुरानी किवदंतियों को सांप्रदायिक रंग देने के लिए उन्हें फिर से रचा गया ।
अकेले क्रांतिकारी ही नहीं, लेखक-पत्रकार, लोक कलाकार,
कलाओं आदि के प्रति भी बेपरवाही ने इलेक्ट्रानिक गजट व गूगल पर निर्भर पीढ़ी को अपने
आसपास बिखरे ज्ञान-सूचना और संवेदना के प्रति लापरवाह बना दिया है। पीलीभीत में ही बांसुरी महोत्सव में स्थानीय इतिहास व सेनानियों की एक प्रदर्शनी होती तो लगता कि महोत्सव महज बाजार नहीं र्है।
काश उच्चतर माध्यमिक
स्तर पर बच्चों में इतिहास के प्रति अन्वेषी दृष्टि विकसित करने का कोई उपक्रम शुरू
किया जाए और हर जिले के कम से कम एक विघालय में ऐसे दस्तावेजीकरण का संग्रहालय हो। मुफ्त ब्लॉग पर ऐसी सामग्री डिजिटल रूप से प्रस्तुत
कर दी जाए तो दूरस्थ इलाकों के लोग अपने स्थानीय इतिहास को उससे संबद्ध कर अपने
इतिहास-बोध को विस्तार दे सकते हैं। सबसे बड़ी बात आजादी की लडाई में अपना जीवन खपा देने वाले गुमनाम लोगों और उनसे
जुड़े स्थान हर एक शहर हो ऐतिहासिक महत्व का पर्यटन स्थाल बना सकते हैं।
वैसे कक्षा आठ तक जिला स्तर के भूगोल इतिहास और साहित्य की पुस्तकें अनिवार्य करना चाहिए व उसके लिए सामग्री का संकलन
स्थानीय स्तर पर ही हो। हमारा वर्तमान अपने अतीत की नींव पर ही खड़ा है और उसी पर भविष्य
की इमारत बुलंद होती है। समय आ गया है कि पुरानी
नींव को सुरक्षित,
संरक्षित व मजबूत बनाया जाए।
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