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शनिवार, 6 अगस्त 2022

Tragedy of sinking cities

 डूबते शहरों की त्रासदी

                            पंकज चतुर्वेदी


देश में जहां भी बरसात हुई, सुकून से ज्यादा आफत बन गई । बरसात अचानक बहुत तेज , बड़ी बूंदें और कम समय में  अफरात हो रही है। बरसात की धार ने आईना दिखा दिया विकास का प्रतिमान कहे जाने वाले शहरों को ,राजधानी दिल्ली हो जयपुर या फिर स्मार्ट सिटी परियोजना वाले इंदौर-भोपाल या बंगलूरू या फिर हैदराबाद। अब जिला मुख्यालय स्तर के शहरों में भी बरसात में सड़क का दरिया बनना आम बात हो गई है। विडंबना है कि ये वे शहर हैं जहां सारे साल एक-एक बूंद पानी के लिए मारामार होती हो, लेकिन जब पानी तनिक भी बरस जाए तो वहां की अव्यवस्थाएं उन्हें पानी-पानी कर देती हैं। बीते एक दशक के दौरान इ तरह शहरों में जल जमाव का दायरा बढ़ता जा रहा है।



देश की राजधानी दिल्ली में  हाई कोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक कई-कई बार स्थानीय निकाय को बरसात में जल जमाव के स्थाई हल निकालने के लिए ताकीद कर चुकी हैं। लेकिन हर बरसात हाल पहले से बदतर होते हैं। अब समझना होगा कि जलवायु परिर्वतन में बरसात का अनयिमित होना और चरम होना  अब सतत जारी रहेगा और अब शहरों में सड़क निर्माण से अधिक ध्यान ड्रेनेज, बहाव के ढाल और जमा पानी के संग्रहीकरण पर करना जरूरी है। यह आम बात है कि जिन शहरों में सड़कें बन रही हैं वहां  बरसात होने की दशा में जल निकासी पर कोई सटीक काम हो नहीं रहा है।


आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह खेती-किसानी से लेगों को मोह भ्ांग हुआ और जमीन को बेच कर शहरों में मजदूरी करने का प्रचलन बढ़ा है, उससे गांवों का कस्बा बनना, कस्बों का शहर और शहर का महानगर बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। विडंबना है कि हर स्तर पर शहरीकरण की एक ही गति-मति रही, पहले आबादी बढ़ी, फिर खेत में अनाधिकृत कालोनी काट कर  या किसी सार्वजनिक पार्क या पहाड़ पर कब्जा कर अधकच्चे, उजड़े से मकान खड़े हुए। कई दशकों तक ना तो नालियां बनीं या सड़क और धीरे-धीरे इलाका अरबन-स्लममें बदल गया। लोग रहें कहीं भी लेकिन उनके रोजगार , यातायात, शिक्षा, व स्वास्थ्य का दवाब तो उसी चार दशक पुरानेनियोजित शहर पर पड़ा, जिस पर अनुमान से दस गुना ज्यादा बोझ हो गया है। परिणाम सामने हैं कि दिल्ली, बंबई, चैन्नई, कोलकता जैसे महानगर ही नहीं देश के आधे से ज्यादा शहरी क्षेत्र अब बाढ़ की चपेट में हैं। गौर करने लायक बात यह भी है कि साल में ज्यादा से ज्यादा 25 दिन बरसात के कारण बेहाल हो जाने वाले ये शहरी क्षेत्र  पूरे साल में आठ से दस महीने पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते हैं।


राष्ट्रीय  प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्क्त अकेले बाढ़ की ही नहीं है, इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। चूंकि शहरों में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है। जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है और लगातार कमजोर हो रही जमीन मपर खड़े कंक्रीट के ंजगल किसी छोटे से भूकंप से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कालोनियां के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी  कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं।


यह दुखद है कि हमारे नीति निर्धाकर अभी भी अनुभवों से सीख नहीं रहे हैं और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य की नई बन रही राजधानी अमरावती , कृश्णा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बनाई जा रही है । कहा जा रहा है कि यह पूरी तरह नदी के तट पर बसी होगी लेकिन यह नहीं बतायाज ा रहा कि इसके लिए नदी के मार्ग को संकरा कर जमीन उगाही जा रही है और उसका अति बरसात में डूबना और यहां तक कि धंसने की पूरी-पूरी संभावना है।


शहरों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण तो यहां के पारंपरिक जल संरचनाओं जैसे -तालाब, बावडी, नदी का खत्म करना व उनके जल आगम क्षेत्र में अतिक्रमण, प्राकृतिक नालों पर अवैध कब्जे, भूमिगत सीवरों की ठीक से सफाई ना होना है। लेकिन इससे बड़ा कारण है हर शहर में हर दिन बढ़ते कूड़े का भंडार व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होना। जाहिर है कि बरसात होने पर यही कूड़ा पानी को नाली तक जाने या फिर सीवर के मुंह को बंद करता है।

शहरीकरण व वहां बाढ़ की दिक्कतो ंपर विचार करते समय एक वैश्विक त्रासदी को ध्यान में रखना जरूरी है - जलवायु परिवर्तन। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीन हाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है और इसकी की दुखद परिणति है - मौसमों का चरम।  गरमी में भयंकर गर्मी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास। बरसात में कभी सुखड़ तो कभी अचनाक आठ से दस सेमी पानी बरस जाना। संयुक्त राश्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट तो ग्लोबल वार्मिग के चलते भारत की चार करोड़ पर खतरा बता रही हे। इसमें कहा गया है कि यदि धरती का तापमान ऐसे ही बढ़ा तो समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और उसके चलते कई शहरों पर डूब का खतरा होगा। यह खतरा महज समुद्र तटों के शहरों पर ही नहीं होगा , बल्कि उन शहरों को भी डुबा सकता है जो ऐसी नदियों के किनारे हैं जिनका पानी सीधे समुद्र में गिरता है।


अब यह तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं है, यह भी तय है कि आने वाले दिन शहरीकरण के विस्तार के हैं, तो फिर किया क्या जाए? एक तो  जिन शहरी इलाकों में जल भ्राव होता है, उसके जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी कार्यवाही की जाए। दूसरा  किसी भी इलाके में प्रति घंटा अधिकतम बरसात की संभावना का आकलन कर उतने जल निकासी के अनुरूप  ड्रेन बनाए जाएं।  यह भी अनिवार्य है कि अब सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई में शहरीकरण-जलवायु परिवर्तन और जल निकासी पर नए सिरे से पाठ्य तैयार हों व  उसके विशेशज्ञ तैयार किए जाएं। आम लोग व सरकार कम से कम कचरा फैलाने पर काम करे। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शहरों में अधिक से अधिक खाली जगह यानि कच्ची जमीन हो, ढेर सरे पेड़ हों। शहरों में जिन स्थानों पर पानी भरता है, वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों।

 

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