My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 19 अप्रैल 2023

Increasing greenery, decreasing forest

 

 

बढती हरियाली, घटते जंगल

हर हरियाली जंगल नहीं होती

पंकज चतुर्वेदी



दिल्ली में बगैर किसी अनुमति के हर घंटे औसतन पांच पेड़ काटे जा रहे हैं, वह भी बगैर किसी वैधानिक अनुमति के। दिल्ली हाईकोर्ट ने एक हफ्ते पहले ही इस पर सख्त नाराजी जाहिर की है . कोर्ट ने  विकास के नाम पर  12 से 15 फुट ऊंचे पेड़ों  की निर्मम कटाई से नाराज हो कर कुछ  अफसरों  पर  अवमानना की कार्यवाही के संकेत दिए  है। यह बानगी है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के बेशुमार तपने के खतरे से झुलस रहे देश की राजधानी में हम हरियाली के प्रति कितने संवेदनशील है।  कभी हरियाली के लिए विश्व रिकार्ड बनाने का दावा करने वाले बिहार में कोई छ हजार भरे-पूरे पेड़ों के साथ हुआ वह मानव-हत्या से कम जघन्य नहीं हैं। यहां कोई 15 करोड़ का ठेका एक कंपनी को दिया गया जो कि विकास में आड़े आ रहे पेड़ों को दूसरी जगह प्रतिस्थापित करने का दावा करती रही है। एक पेड़ को दूसार स्थान पर लगाने का खर्च आया दस हाजर से अधिक लेकिन न जमीन का परीक्षा किया और ना ही नई जगी पर पेड़ रोपने के बाद उसकी परवाह। परिणाम- जिस पेड़ को अपना यौवन पाने के लिए कम से कम बीस वसंत लगे, वे सूख कर ठूंठ हो गए। दुर्भाग्य है कि हम जिस विकास के लिए  हरियाली को अनदेखी कर रहे हैं वह आपकी जेब और शरीर को सुराख कर रही है और सरकारें  इस  मसले  में नारे या कागज  पर काम करती हैं।



मध्य प्रदेश में वर्ष  2014-15 से 2019-20 तक 1638 करोड़  रूपए खर्च कर 20 करोड़ 92 लाख 99 हजार 843 पेड़ लगाने का दावा सरकारी रिकार्ड करता है, अर्थात प्रत्येक पेड़ पर औसतन 75 रूपए का खर्च। इसके विपरीत  भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में  बीते छह सालों में कोई 100 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हो गया।  प्रदेश में जनवरी-2015 से फरवरी 2019 के बीच  12 हजार 785 हैक्टेयर वन भूमि दूसरे कामों के लिए आवंटित कर दी गई। मप्र के छतरपुर जिले के बक्सवाहा में हीरा खदान के लिए ढाई लाख पेड़ काटने के नाम पर बड़ा आंदोलन हुआ , वहीं इसी जिले में केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के चलते घने जंगलों के काटे जाने पर चुप्पी है। इस परियोजना के लिए गुपचुप 6017 सघन वन को 25 मई 2017 को गैर वन कार्य के लिए नामित कर दिया गया, जिसमें 23 लाख पेड़ कटना दर्ज है। वास्तव में यह तभी संभव है जब सरकार वैसे ही सघन वन लगाने लायक उतनी ही जमीन मुहैया करवा सके। आज की तारीख तक महज चार हजार हैक्टर जमीन की उपलब्धता की बात सरकार कह रही है वह भी अभी अस्पष्ट  है कि जमीन अपेक्षित वन क्षेत्र के लिए है या नहीं।


 

विश्व संसाधन संस्थान की शाखा ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के अनुसार, 2014 और 2018 के बीच 122,748 हेक्टेयरजंगल विकास की आंधी  में नेस्तनाबूद हो गए। अमेरिका के इस गैर सरकारी संस्था के लिए मैरीलैंड विश्वविद्यालय ने आंकड़े एकत्र किए थे। ये पूरी दुनिया में जंगल के नुकसान के कारणों  को जानने के लिए नासा के सेटेलाईट से मिले चित्रों का आकलन करते हैं। रिपोर्ट बताती है कि केविड लहर आने के पहले के चार सालों में जगल का लुप्त होना 2009 और 2013 के बीच वन और वृक्ष आवरण के नुकसान की तुलना में लगभग 36 फीसदी अधिक था। 2016 (30,936 हेक्टेयर) और 2017 (29,563 हेक्टेयर) में अधिकतम नुकसान दर्ज किया गया था। 2014 में भारतीय वन और वृक्ष आवरण का नुकसान 21,942 हेक्टेयर था, इसके बाद 2018 में गिरावट आई जब वन हानि के आंकड़े 19,310 हेक्टेयर थे। दुखद यह है कि 2001 से 2018  के बीच काटे गए 18 लाख हैक्टेयर जंगलों  में सर्वाधिक नुकसान अपनी प्राकृतिक छटा के लिए मशहूर पूर्वोत्तर राज्यों -  नगालेंड, त्रिपुरा मेघालय और मणिपुर में हुआ , उसके बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जम कर वन खोए।


 

भारत की गिनती दुनिया के 10 सबसे अधिक वन-समृद्ध देशों में होती है . यहाँ लगभग 809 लाख  हेक्टेयर पेड़ हैं - देश का लगभग 25 फ़ीसदी . यह भी कडवा सच है इसमें लगातार गिरवट आ रही है . आंकड़े देखेंगे तो हरियाली पर कोई फर्क नहीं है लेकिन समझना  होगा कि वन और हरियाली में फर्क होता है , एक नैसर्गिक  वन  सदियों में विकसित होता है  और उनके साथ एक समूचा जैविक और पर्यावरणीय चक्र सक्रीय रहता है . बीते कुछ दशकों  में ही आर्थिक विकास और स्थानीय संसाधनों के अत्यधिक दोहन की मिलीभगत के चलते भारत को अपने सघन  वन क्षेत्र का लगभग 80% खोना पड़ा।



भारत इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसके पास सेटेलाईट आधारित  वन आवरण मूल्यांकन की एक वैज्ञानिक प्रणाली  अस्सी के दशक से है, जिसके कारण  "योजना, नीति निर्माण और प्रमाणिक फैसले लेने का अनिवार्य आंकड़े मिलते रहे हैं . भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) ने 1987 से हर दो साल में देश की हरियाली की स्थिति पर रिपोर्ट जारी करता है सन 1980 के दशक की शुरुआत में हमारे यहाँ वन आच्छादित क्षेत्र 19.53% था जो 2021 में बढ़कर 21.71% हो गया है। यदि इसमें अन्य हरियाली के  आंकड़े अनुमानित 2.91 प्रतिशत को भी जोड़ लें तो फाईलों में देश का कुल हरित आवरण 24.62% है।



जबकि भारत में वन की गणना के लिए एक  हेक्टेयर या उससे अधिक के ऐसे सभी भूखंडों  को शामिल किया जाता है जहां कम से कम 10 प्रतिशत वृक्ष हों, फिर वह भूमि चाहे निजी हो बगीचा हो . वैसे यह यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित मानदंडों के विपरीत है , जिसमें कहा गया है कि  खेती और शहरी भूमि के पेड़ों को जंगल नहीं कहा  जा सकता ।

जिस जगह हरियाली  का दायरा 40% या  उससे अधिक हो, उसे घना  जंगल खा जाता है . जबकि 10से 40% के बीच वाले को खुले वन की श्रेणी में रखा गया है। 2003 के बाद से,  70 फीसदी से अधिक पेड़ वाले इलाके को अति सघन वन की एक नई श्रेणी में परिभाषित किया गया था।  सन 2001 के बाद एक हेक्टेयर से कम या  अलग-अलग या छोटे समूह में लगे पेड़ों को भी हरियाली गणना में आंका जाने लगा ।

 

अंतरिक्ष विभाग के तहत नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी (NRSA) ने 1971-1975 (16.89% )और 1980-1982(14.10% ) की  अवधि के लिए उपग्रह चित्रों के माध्यम से बताया  था कि केवल सात वर्षों में 2.79% जंगल गायब हो गए थे । जंगल की जमीन पर अतिक्रमण कर वहां बस्ती या खेत बसाने के कोई अधिकृत  आंकड़े तो है नहीं लेकिन कुछ साल पहले संसद में बताया गया था कि 1951 और 1980 के बीच 42,380 वर्ग किमी वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए बदल दिया गया . सनद रहे यह क्षेत्रफल हरियाणा राज्य  के बराबर है ।

जंगल में आग, खनन, विकास के लिए जमीन-उपयोग  का बदलाव की अंधाधुंध मार के बीच भारतीय वन सर्वेक्षण  ने 2011 में जो आंकड़े प्रस्तुत किये उससे पता चला कागजों अपर दर्ज जंगल के एक तिहाई हिस्से पर कोई जंगल नहीं था। दूसरे शब्दों में, भारत के पुराने प्राकृतिक वनों का लगभग एक-तिहाई - 2.44 लाख वर्ग किमी (उत्तर प्रदेश से बड़ा) या भारत का 7.43% - पहले ही समाप्त हो चुका है।

प्राकृतिक वन सिकुड़ रहे हैं लेकिन आंकड़ों में हरियाली का विस्तार हो रहा है लेकिन यह जान लें कि जिस तेजी से जंगल का विस्तार  बताया जा रहा है, असल में यह  संभव ही  नहीं हैं . यह हरियाली  व्यावसायिक वृक्षारोपण, बागों, ग्रामीण घरों, शहरी आवासों के कारण तो है लेकिन यह वन नहीं है , सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करें तो सन 2003 से अभी तक लगभग 20,000 वर्ग किमी के घने जंगलों को गैर वन अधिसूचित किया गया और उसकी भरपाई के लिए गैर-वन लगभग 11,000 वर्ग किमी में पेड़ लगा दिए गये इस तरह की हरियाली में न  तो जैव विविधता का ध्यान रखा जाता है और न ही पारम्परिक वन की तरह यहाँ बड़े पेड़,  से लेकर झाडी और घास, बरसाती पानी को रोकने की संरचनाएं और जीव जंतु होते हैं . जान लें इस तरह की हरियाली धरती  को बचाने के लिए वह सब फायदे नहीं  देती जो  प्राकृतिक वन से मिलते हैं . नए पेड़ों की कार्बन सोखने की क्षमता, बादलों को आकर्षित करने के गुण , जीव जंतुओं को आसरा और भोजन देने की विशेषता होती नहीं हैं .

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

life giving water is poison

  जहर होता जीवनदायी जल पंकज चतुर्वेदी