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मंगलवार, 12 सितंबर 2023

Hydroelectric projects increase the risk of landslides in Himachal

         जल विद्धुत परियोजनाओं ने बढाया हिमाचल में भूस्खलन का खतरा

पंकज चतुर्वेदी

 


सुंदर, शांत , सुरम्य हिमाचल प्रदेश में इन दिनों  मौत का सन्नाटा है . छोटे से राज्य का बड़ा हिस्सा अचानक आई तेज बरसात और जमीन खिसकने से कब्रिस्तान बना हुआ है तो जहां आपदा आई नहीं वहन के लोग भी आशंका और भी में जी रहे हैं . राज्य के  दो नेशनल हाई वे  सहित कोई 1220 सड़कें ठप्प हैं . कई सौ बिजली ट्रांसफार्मर  नष्ट हो गए तो अँधेरा है . लगभग 285 गाँव तक गये नलों के पाइप अब सूखे हैं . 330 लोग मारे जा चुके हैं . 38 लापता हैं . एक अनुमान है कि अभी तक लगभग 7500 करोड़ का नुकसान हो चुका है . राजधानी शिमला से ले कर सुदूर किन्नोर तक पहाड़ों के धसकने से घर, खेत, से ले कर सार्वजनिक संपत्ति का जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में राज्य को  सालों लगेंगे. वैसे यदि गंभीरता से देखें तो यह हालात भले ही आपदा से बने हों लेकिन इन आपदाओं को बुलाने में  इन्सान की भूमिका भी कम नहीं हैं. जब दुनियाभर के शोध कह रहे थे कि हिमालय पर्वत जैसे युवा पहाड़ पर पानी को रोकने,  जलाशय बनाने और सुरंगे बनाने के लिए विस्फोटक के इस्तेमाल के अंजाम अच्छे नहीं होंगे, तब हिमाचल की जल धाराओं पर छोटे-बड़े बिजली संयंत्र लगा कर उसे विकास का प्रतिमान निरुपित किया जा रहा था .

नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी,  इसरो द्वारा तैयार देश के भूस्खलन नक्शे में हिमाचल प्रदेश के सभी 12 जिलों को  बेहद संवेदनशील की श्रेणी में रखा गया है .  देश के कुल 147 ऐसे जिलों में संवेदनशीलता की  दृष्टि से  मंडी को 16 वें स्थान पर रखा गया है. यह आंकड़ा और चेतावनी फाइल में सिसकती रही और इस बार मंडी में तबाही का भयावह मंजर सामने आ गया .  ठीक यही हाल शिमला का हुआ जिसका स्थान इस सूची में 61वे नम्बर पर दर्ज है . प्रदेश में 17,120 स्थान भूस्खलन संभावित क्षेत्र अंकित हैं , जिनमें से 675 बेहद संवेदनशील मूलभूत सुविधाओं और घनी आबादी के करीब हैं . इनम सर्वाधिक स्थान 133 चंबा जिले में , मंडी (110), कांगड़ा (102), लाहुल-स्पीती (91), उना (63), कुल्लू (55), शिमला (50), सोलन (44) , आदि हैं . यहाँ भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिला को सबसे खतरनाक माना जाता है। बीते साल भी किन्नौर के बटसेरी और न्यूगलसरी में दो हादसों में ही 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद किन्नौर जिला में भूस्खलन को लेकर भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के साथ साथ आई आई टी , मंडी व रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है। 


भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है। हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक “लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट” अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल पर धरती खिसकने का खतरा है . लगभग 10 ऐसे  मेगा हाइड्रोपावर प्लांट , स्थल मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।



राज्य  आपदा प्रबंधन प्राधिकरण  ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित 675 स्थल चिन्हित किए है। चेतावनी के बाद भी किन्नोर में , एक हज़ार मेगा वाट की करचम और 300 मेगा वाट की  बासपा परियोजनाओं  पर काम चल रहा है . एक बात और समझना होगा कि "वर्तमान में बारिश का तरीका बदल रहा है और गर्मियों में तापमान सामान्य से कहीं अधिक पर पहुंच रहा है। ऐसे में मेगा जलविद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देने की राज्य की नीति को एक नाजुक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र में लागू किया जा रहा है। 

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 97.42% भूस्खलन की संभावना में है। हिमाचल सरकार की डिज़ास्टर मैनेजमेंट सेल द्वारा प्रकाशित एक लैंडस्लाइड हैज़ार्ड रिस्क असेसमेंट अध्ययन ने पाया कि बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर स्थल भूस्खलन आपदा जोखिम के खतरे में हैं और कम से कम 10 ऐसे मेगा हाइड्रोपावर स्थल हैं जो कि मध्यम और उच्च जोखिम वाले भूस्खलन क्षेत्रों में स्थित हैं।

वैसे हिमाचल प्रदेश में  पानी से बिजली बनाने का कार्य 120 सालों से हो रहा है . हिमाचल प्रदेश में ऊर्जा दोहन का कार्य इसके पूर्ण राज्य घोषित होने से पहले ही शुरू हो गया था। इसकी शुरुआत वर्ष 1908 में चंबा में 0.10 मेगावाट क्षमता की एक छोटी जल विद्युत परियोजना के निर्माण के कार्य से शुरू हुई थी। इसके बाद वर्ष 1912 में औपचारिक रूप से शिमला जिले के चाबा में 1.75 मेगावाट क्षमता का बिजली संयंत्र शुरू हुआ जिसे ब्रिटिश भारत की बिजली संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थापित किया गया था। इसका सफल परिचालन होने पर यहां और बिजली संयंत्र लगाने की संभावनाएं तलाशी जाने लगीं। इसी योजना के तहत मंडी जिले के जोगिन्द्र नगर में 48 मेगावाट की बड़ी परियोजना का निर्माण कार्य शुरू किया गया जो वर्ष 1932 में पूरा हुआ। इस संयंत्र की बिजली आपूर्ति केवल रियासतों की राजधानियों के लिए की जाती थी। आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटी-बड़ी बिजली परियोजनायें चालू हैं जो जिनकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1000 से अधिक जलविद्युत परियोजनायें लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इसके लिये सतलुज, व्यास, राबी और पार्वती समेत तमाम छोटी-बड़ी नदियों पर बांधों की कतार खड़ी कर दी गई है. हिमाचल सरकार की चालू, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं की कुल क्षमता ही 3800 मेगावाट से ज्यादा है. 

हिमाचल प्रदेश में जलवायु  परिवर्तन  की चोट कितनी गहरी है , इसका अंदाज़ इस बात से लगया जा सकता है कि प्रदेश के 50 स्थानों पर  आई आई टी मंदी द्वारा विकसित आपदा पूर्व सूचना यंत्र लगाये गए हैं . भूस्खलन जैसी आपदा से पहले ये लाल रौशनी के साथ  तेज आवाज़ में सायरन बजाते हैं  लेकिन इस बार आपदा इतनी तेजी से आई कि ये उपकरण काम के नहीं रहे .  यह बात कई शोध पत्र  कह  चुके हैं कि हिमाचल प्रदेश में अंधाधुंध जल विद्युत परियोजनाओं से चार किस्म की दिक्कते आ रही हैं. पहला इसका  भूवैज्ञानिक प्रभाव है , जिसके तहत  भूस्खलन , तेजी से मिटटी का ढहना शामिल है . यह सड़कों, खेतों, घरों को क्षति पहुंचाता है . दूसरा प्रभाव जलभूवैज्ञानिक है जिसमें देखा गया कि झीलों और भूजल स्रोतों में जल स्तर कम हो रहा है .   तीसरा नुकसान है - बिजली परियोजनाओं में नदियों के किनारों पर खुदाई और बह कर आये मलवे के जमा होने से वनों और चरागाहों में जलभराव बढ़ रहा है. ऐसी परियोजनाओं का चौथा खतरा है , सुरक्षा में कोताही के चलते हादसों की संभावना .

यह सच है कि विकास का पहिया बगैर  उर्जा के घूम नहीं सकता लेकिन उर्जा के लिए ऐसी परियोजनाओं से बचा जाना चाहिए जो कि कुदतर की अनमोल देन कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश को हादसों का प्रदेश बना दे . 

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