जल
निधियों को उजाड़ने से प्यासे हैं शहर
पंकज
चतुर्वेदी
कैसी विडंबना है कि जिस शहर के बीच से सदानीरा यमुना जैसी नदी
कोई 27 किलोमीटर बहती हो , वह हर साल
चैत बीतते ही पानी कि किल्लत के लिए
कुख्यात हो जाता है । दिल्ली की सरकार अपने जल-पिटारे की परवाह साल भर अकरती नहीं
और जब पनि के लिए आम लोग हाल करते हैं तो
हरियाणा पर आरोप लगा कर सुप्रीम
कोर्ट का रुख करती है । यह बीते आठ सालों
से हर बार हो रहा है । जब दिल्ली में यमुना लबालब होती है तो यहाँ के नाले-
कारखाने उसमें इतना जहर घोलते हैं कि नदी सारे रास्ते हाँफती है और जब पानी का
संकट खड़ा होता है तो नदी की याद आती है । यह हाल केवल दिल्ली का नहीं, देश के लगभग
सभी बड़े शहरों का है । अपने तालाबों पर मिट्टी डाल कर कंक्रीट से तन गया बैंगलुरु तो ’केपटाउन’ की तरह जल-शून्य की
चेतावनी से बहाल है और अभी पंद्रह दिन में जब मानसून आएगा तो शहर जल भराव के चलते
ठिठक जाएगा । बंबई की पाँच नदियां नाला बन गई और बरसात में जो पानी शहर की प्यास
बुझाता, अब वह सँकरे रास्तों से बह कर समुद्र के खारे पानी में मिल जाता है
और जरूरत के समय लोग भूजल और टैंकर
के जरिए जैसे तैसे जिंदगी काटते हैं । चाहे हैदराबाद हो या चेन्नई या फिर इंदौर ,
पटना या श्रीनगर , नक्शे पर वहाँ
नदी-तालाब- नहर का जाल है । दुर्भाग्य है कि जब इन्द्र देवता अपना आशीष देते हैं
तो इन जल-भंडारों को अधिक से अधिक जल से भरने के बनिस्पत समाज इसे मिट्टी से भर कर जमीन का लोभ करता है ।
लोकसभ चुनाव निबटे और दिल्ली में पानी को ले
कर आरोप-प्रत्यारोप , अदालत का दाखल, मटके फोड़ना शुरू हो गया । भले ही लोग इस बात
से खुश हो कि उनके पास पानी का बिल आता नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि राजधानी दिल्ली
कि कोई 31 फ़ीसदी आबादी को स्वच्छ पेय जल
उनके घर में लगे नल से नहीं मिलता है , हजारों टेंकर हर दिन कालोनियों में जाते हैं और उनके लिए पानी
जुटाने के लिए पाताल को इतनी गहराई तक खोद दिया गया है कि सरकारी भाषा में कई जगह
अब यह “डार्क जोन” बन गया है । दिल्ली के करीबी गाजियाबाद जो यमुना- हिंडन के
त्रिभुज पर है , अधिकांश कालोनियाँ पानी के लिए तरस रही है क्योंकि दोनों नदियां
अब कूड़ा ढोने का मार्ग बन कर रह गई हैं । आधुनिकता की इबारत
लिखने वाले गुरुग्राम में जरूरत की तुलना
में 105 एमएलडी काम पानी की आपूर्ति हो
रही है ।
दिल्ली में तो केवल यमुना ही नहीं बल्कि 983
तालाब- झील-जोहड़ हैं । जल संसाधन मंत्रालय की गणना बताती है कि इनमें से किसी को
भी भी प्यास बुझाने के काबिल नहीं माना जाता । दिल्ली गंगा और भाखड़ा से सैंकड़ों
किलोमीटर दूर से पानी मंगवाती है लेकिन अपने ही तालाबों को इस लायक नहीं रखती कि
ये बरसात का जल जमा कर सकें। जिस तालाब में जमा पानी जीवन की उम्मीद बन सकता है
उनमें से तीन चौथाई जल निधियों का तो इस्तेमाल महज सीवर की गंदगी बहाने में ही
होता है ।
तालाबों को चौपट करने का खामियाजा समाज ने किस
तरह भुगता, इसकी सबसे बेहतर बानगी बैंगलुरु ही है। यहां समाज, अदालत,
सरकार सभी कुछ असहाय है जमीन माफिया के सामने। यदि शहर की जल कुंडली बांचें तो यह बात अस्वाभाविक सी
लगती है कि वहाँ जरूरत का महज 80 फीसदी जल
ही आपूर्ति हो पा रहा है । एक करोड़ 40 लाख आबादी
वाले महानगर के पग-पग पर तो जल
निधियां है। लेकिन जब इस ‘कुंडली’ की ‘गृह
दशा’ देखें तो स्पष्ट होता है कि अंधाधुंध
शहरीकरण और उसके लालच में उजाड़ी जा रही पारंपरिक जल निधियों व हरियाली का यदि यही
दौर चला तो बंगलूरू को केपटाउन बनने से कोई नहीं रोक सकता । सरकारी रिकार्ड के
मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलूरू शहर में 2789 केरे यानी झील हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई। सन 1985 में शहर में केवल 34 तालाब बचे और
अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई हे। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है
कि ना केवल शहर का मौसम बदल गया है,
बल्कि लोग बूंद-बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। हैदराबाद और चेन्नई में भी जैसे ही विदेशी कंपनियां आना
शुरू हुई और आबादी बढ़ने के साथ मकान की
जरूरत बढ़ी, तालाब- नदियों को ही समेटा गया
और जल संकट को खुद आमंत्रित कर लिया ।
जल संकट और उसे इंसान द्वारा ही आमंत्रित करने
के उदाहरण , बस शहर का नाम बदलते जाएँ, भारत में हर कोने में हैं । बीते एक दशक में सरकार ने हर घर
नल, अमृत सरोवर और अटल भूजल जैसी तीन महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू कीं , लेकिन इनके
वांछित परिणाम न आने का मूल कारण रहा ही
इन सभी में न जन भागीदारी रही और न ही आम
लोगों में जिम्मेदारी का भाव। यह समझना होगा कि प्रकृतिजन्य जितनी भी समस्याएं हैं
, उनके निदान किसी भी भविष्य की योजना या यंत्र में नहीं हैं । इनके लिए हमे अतीत
में ही
झांकना होगा – जो प्रणाली
युगों-सदियों से चल रही थीं , उनके सामने आधुनिक यांत्रिकी गौण है और वह
तात्कालिक हाल भले ही बताया दे लेकिन
दूरगामी निदान उनके बस का है नहीं ।
समझना अहोगा कि देश के 10 में से सात महानगरों में भूजल का स्तर अब बेहद खतरनाक
मोड पर है और अब उसे और उलीचा नहीं जा सकता।
डब्लू डब्लू एफ की एक ताजा रिपोर्ट
चेत चुकी है कि जब भारत आजादी के सौ साल
मनाएगा तब देश के 30 शहर जल-हीन की सीमा तक सूख जाएंगे । इनमें महानगर और
राजधानियाँ तो हैं ही इंदौर, भटिंडा और कोयंबटूर जैसे शहर भी हैं । यह कड़वा सच है कि जलवायु अपरिवर्तन के चलते चरम
मौसम ने जल-चक्र को गड़बड़ाए है लेकिन इसके
साथ ग्रामीण अञ्चल से शहरों की तरफ तेज पलायन, अनियोजित शहरीकारण, काम बरसात- अधिक
गर्मी और उथले जल-स्रोतों में अधिक वाष्पीकरण
और साथ ही जल का बदतर प्रबंधन – कुछ ऐसे कारण हैं जो जल संकट के लिए
प्रकृति से अधिक इंसान को कतघरे में खड़ा करते हैं ।
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा
हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब
क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़
हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। ऊपर से शहरीकारण के कारण घरों में
बढ़ती पानी की खपत। असल में इस बात को लेग
नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो
समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। देश की जल-कुंडली भी बाँचें तो भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल
है। दुनिया के कुल जल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की
भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता
है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है।
इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियो
में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के
बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि
बकाया आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो
बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर
पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध,
रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल
स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के
हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की
कमी से जूझने की रही है । अब कस्बाई लोग बीस रूपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने
में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच
व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि
दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां
बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों,
नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता
है।
हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा
यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना
हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना।
प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है।
दिल्ली हो या देश, यदि प्यास का सवाल है तो
उसका निदान पुराने तालाबों , कुओं और बावड़ियों , चोटी नदियों और सरिताओं को उनके
मूल स्वरुप में लौटने में ही छिपा है। एक बात गांठ बांध कर रखना होगा कि भूजल लंबे
समय तक प्यास का विकल्प नहीं हैं । भूमि के लोभ को पड़े रख कर नदी- तालाब को पानी की अमूल्य निधियाँ मान लो तो कभी किसी का कंठ रीता नहीं रहेगा ।
कैसे प्यास हुआ कोयंबटूर
पश्चिमी घाटों के चरणों में बसा तमिलनाडु
का कोयंबटूर वैसे तो नॉययल जैसे सदा नीरा नदी के तट पर बस है । यहाँ पिल्लूर , सिरुवनी और
अलियार बांधों से सालों से पानी मिलता रहा । जिले में छोटी बड़ी दर्जन नदियों का जाल है । यह सच है कि तेज गर्मी होने
से वाष्पीकरण से बांध जल्दी खाली होने लगे
लेकिन असलियत यह है कि इन जलाशयों में जमी गाद को साफ करने में कभी ईमानदारी से
प्रयास हुआ नहीं सो उथले जलाशयों की जल
ग्रहण क्षमता काम हो गई । पानी का खर्च भी बढ़ और नदियों को जगह जगह बांधने, अतिक्रमण और अवैध बालू खनन
ने इस ऐतिहासोक नगर को बेपानी बना दिया ।
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