My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 28 अगस्त 2024

game in the market, game market

 

बाजार में खेल, खेल का बाजार

पंकज चतुर्वेदी



यह हर बार होता है कि जब ओलंपिक या कोई अंतर्राष्ट्रीय  खेल स्पर्धा समाप्त होती हैं औरर भारत के खिलाड़ी अपेक्षा से बहुत काम सफलता के बाद लौटते हैं तो  आलोचन, व्यंग, व्यवस्था में सुधार  की मांग और सुझाव का एक हफ्ते का दौर चलता है, और फिर  सब कुछ पुराने  ढर्रे पर आ जाता है – खिलाड़ी को न सुविधा,  न सम्मान । जो सफल हो कर आए उन्हें  झोली भर भर कर पुरस्कार और  व्यावसायिक विज्ञापन  भी  लेकिन  सफलता पाने को मेहनत करने वालों को न्यूनतम  सहयोग भी नहीं ।  सफल खिलाड़ी व  तैयारी कर रहे प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज सामने आती हैं । उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ शुरू  हो जाता है।





एरिक प्रभाकर! यह नाम कई के लिये नया हो सकता है लेकिन अगर आप भारतीय ओलंपिक के इतिहास को खंगालेंगे तो इस नाम से भी परिचित हो जाएंगे। 23 फरवरी 1925 को जन्में प्रभाकर ने 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन सेंकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उस दौर में अर्थशास्त्र में एमए, वह भी गोल्ड मेडल के साथ, फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा के लिए रोड्स फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय, यही नहीं आजाद भारत की पहली आईएएस में चयनित श्री एरिक प्रभाकर की किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ सन 1994 में आई थी व बाद में उसका हिंदी व कई अन्य भारतय भाशाओं में अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापा। 


काश हमारे खेल महकमे में से किसी जिम्मेदार ने उस पुस्तक को पढ लिया होता। उन्होंने बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। भारतीय खेलों के कर्ताधर्ताओ हो सके तो कभी यह किताब पढ़कर उसमें दिये गये उपायों पर अमल करने की कोशिश करना। यदि वह पुस्तक हर खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो मैं गारंटी से कह सकता हूं कि परिणाम अच्छे निकलेंगे। कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राष्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाण  पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राष्ट्रीय  स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है।

लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है। वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के शहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं , जहां  स्वाभाविक खिलाड़ी उन्मुक्त  प्रेक्टिस किया करते थे। मैदान कंक्रीट के जंगल के उदरस्थ हुए तो खेल का मुकाम क्लब या स्टेडियम में तब्दील हो गया। वहां जाना, वहां की सुविधाओं का इस्तेमाल करना आमोखास के बस की बात होता नहीं ।

 फिर खेल एसोशिसन की राजनीति तो है ही । हाल के पेरिस ओलंपिक में ऐसे राज्यों से भी दो-दो  लोग गए जहां से कोई खिलाड़ी ही नहीं गया । सैंकड़ाभर से ज्यादा गैर खिलाड़ियों के दल ने कर दिया है। यह कटु सत्य है कि विजेता खिलाड़ियों पर जिस तरह से लोग  पैसा लुटाते हैं असल में यह उनका खेल के प्रति प्रेम या खिलाड़ी के प्रति सम्मान नही होता, यह तो महज बाजार में आए एक नए नाम पर निवेश होता है। क्रिकेट की बानगी सामने है, जिसमें ट्रैनिंग से ले कर आगे तक कारपोरेट घरानों का सहयोग व संलिप्तता है।

हमारे यहां बच्चों के लिए, शिक्षा के लिए किए जा रहे काम को जिम्मेदारी से ज्यादा धर्माथ का काम माना जाता है और तभी स्कूलों, हॉस्टल, खेल मैदान, खिलाड़ियों की दुर्गति, स्कूली टूर्नामेंट स्तर पर खिलाड़ियों को ठीक से खाना तक नहीं मिलना जैसी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। हुक्मुरान समझते हैं कि ‘‘इतना कर दिया वह कम है क्या’’। मुल्क का हर बच्चा भलीभांति विकसित हो, शिक्षित हो, उसकी प्रतिभा को निखरने का हरसंभव परिवेश मिले, यह देश के लिए अनिवार्य है, ना कि इसके लिए किए जा रहे सरकारी बजट का व्यय कोई दया । यह भाव जब तक पूरी मशीनरी में विकसित नहीं होगा, हम बालपन में उर्जावान, उदीयमान और उच्च महत्वाकांक्षा वाले बच्चों को सही ऊंचाई तक नहीं ले जा पांगे।

अब समाज को ही अपनी प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवाय कसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हें इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में शरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेगों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे लेगों को तलाशें। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, खेलने  का ,माहौल, उपकरण मिलें , इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लोगों  को ही ऐसे खिलाड़ियों  को शासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखा या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...