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शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

Jute can change faith of farmers



जूट उद्योग को दरकार से सरकारी संरक्षण की

पंकज चतुर्वेदी

 
डेली न्‍यूज, जयपुर 2 जनवरी 2015 http://dailynewsnetwork.epapr.in/409175/Daily-news/03-01-2015#page/6/1
जूट को पर्यावरण-मित्र और फिर से उपयोग लायक प्राकृतिक फाईबर है । यह बारिश की फसल है और अगस्त-सितंबर में इसकी कटाई होने लगती है। दुनियाभर में जिस तरह नष्‍ट ना होने वाली प्लास्टिक और पेड़ काट कर तैयार कागज के इस्तेमाल से परहेज की मुहिम चल रही है, ऐसे में जूट की मांग बढ़ गई है ।  इसके बावजूद भारत में जूट की खेती सरकारी उपेक्षा से आहत है । हमारे देश में जूट उपजाने वाले खेतों के महज 13 फीसदी ही सिंचित  हैं । शेष  खेती भगवान भरोसे यानी बारिश पर निर्भर करती है । चूंकि जूट की खेती बेहद खर्चीला व मेहनत का काम है और सरकार इसके किसानों की मूलभूत जरूरतों जैसे - सिंचाई, उन्नत बीज, फसल सुरक्षा और बाजार के प्रति गंभीर नहीं रही है, अतः मांग के बावजूद हर साल जूट का रकवा घटता जा रहा है । उधर बांग्लादेश के जूट उत्पादकों से मिल रही चुनौतियों के चलते हमारा जूट उद्योग बदतर होता जा रहा है।
जूट की खेती मूलरूप से पश्चिम  बंगाल, असम, ओडिशा , मेघालय, त्रिपुरा व उत्तरप्रदेश में होती है । यहां विश्‍व  के कुल जूट उत्पादन का 40 प्रतिशत उपजाता है ।  भारत के कोई 40 लाख किसान लगभग आठ लाख हैक्टर में जूट उगाते हैं । जबकि इस जूट से बाजार की मांग लायक उत्पाद तैयार करने के कारखानों में ढाई लाख से अधिक लोग रोजगार पाते हैं । देश में पैदा होने वाले जूट का आधा तो अकेले पश्‍चिम बंगाल में होता है । हालांकि हमारे देश में जूट पैदा करना छोटे या मझोले किसानों का ही काम है ।  
द सी एक्‍सप्रेस, आगरा http://theseaexpress.com/epapermain.aspx
इन दिनों अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में भारतीय उपमहाद्वीप के पारंपरिक जूट की अच्छी मांग है । जूट का इस्तेमाल न केवल बोरे बनाने में , बल्कि  सजावटी सामान, फैशनेबल कपड़े व चप्पल आदि बनाने में भी हो रहा है । कई फैशन संस्थान इस फैब्रीक से अत्याधुनि कपड़े बना कर उनका सफल षो भी कर चुके हैं । यूरोप के उच्च वर्ग में इसकी ड्रेसों की अच्छी मांग है । जूट के बारीक हस्तषिल्प के उम्दा कारीगर हमरे देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के गांव-गांव में फैले हुए हैं । गौरतलब है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में रोजगार के अवसर मुहैया करवाना व पारंपरिक लोक षिल्पियों को काम दिलवाना सरकार के सामने सदैव से चुनौती रहा है ।
जूट की डंडी से उम्दा दर्जे का चिकना कागज बनता है । हमारे देश में हर साल कोई 45 लाख क्विंटल जूट-डंठल निकलता है और यह सब चूल्हे में ईंधन के रूप में फुंक जाता है । लबकि इसका ताप कम होता है और धुआं अत्यधिक । थोड़ी सी पूंजी से डंठलों से कागज बनाने के कारखाने पर भी सरकार को विचार करना चाहिए ।
जूट उद्योग सदैव से निर्यातोन्मुख रहा है । कच्चे जूट व उससे बने सामान के उत्पादन की द़ष्टि  से भारत दुनिया में पहले स्थान पर और इससे बनी चीजों के निर्यात के मामले में दूसरे स्थान पर है । हर साल चीनी और अनाज के लिए जूट के बोरों की अनिवार्य पैकेजिंग के लिए सरकार ने 1987 में एक विशेष  अधिनियम  लागू किया था । गत वर्ष  इस अधिनियम के विरूद्ध कोलकाता हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी गई थी ।  उल्लेखनीय है कि चीनी व अनाज के लिए जूट के बोरे को अनिवार्य तो कर दिया गया, लेकिन सरकार ही प्र्याप्त संख्या में बोरे उपलब्ध नहीं करवा पाई । यानी महज पैकेजिंग सामग्री के अभाव में इनके व्यापार का नुकसान हुआ ।
जूट की खेती के लिए आवश्‍यक अधिक पानी की इस क्षेत्र में कमी नहीं है । जाहिर है कि बाढ़ व पर्याप्त मात्रा में श्रमिकों की मौजूदगी इस इलाके में जूट उत्पादन व उसके हस्त शिल्प की बेहतर संभावनाएं दर्शाती है । इसके विपरित असम में हर साल जूट की बुवाई घटती जा रही है । नगालेंड में थोड़ी सी जमीन पर इसकी खेती हो रही है । मेघालय के गारो व खासी पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 5000 हेक्टर में जूट उगाया जा रहा है । त्रिपुरा में भी जूट पैदावार में हर साल कमी आ रही है । आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि हमारे खेतों में जूट की फसल साल-दर-साल कम होती जा रही है । वर्ष 2007-08 से 2012-13 के छह साल के दौरान देश में जूट पैदावार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2008-09 में सबसे कम 1476 लाख टन जूट खेतों में उगा । सन 2007-08 में 1782 लाख टन, वर्ष 2009-10 में 1620, 10-11 में 1800, सन 2011-12 में 1845 और सन 12-13 में 1674 लाख टन उत्पादन हुआ। आंकडे साफ दर्शाते हैं कि उत्पादन बढ नहीं रहा है।  असल में बांग्लादेश सरकार जूट उत्पादों को निर्यात करने पर सीधे 10 प्रतिशत नगद सहायता देती है। इसके चलते वहां के उत्पाद सस्ते हैं व वहां के उत्पादक अधिक उत्साह से यह काम करते है।। इसके विपरीत हारे यहां जूट के तागों की कीमतें 15 प्रतिशत कम हो गई हैं, इससे किसान का लाभ बहुत ही कम हो गया है और उसका अपनी पारंपरिक खेती से मोह भंग हो रहा है।
उत्तर -पूर्वी राज्यों की जमीन और जलवायु जहां बेहतरीन जूट उत्पादन में सक्षम है, वहीं किसानों की माली हालत ठीक ना होना व पैदावार के लिए बाजार का ना होना एक त्रासदी ही है ।  असम के अमीनगंज में सरकार ने प्लास्टिक टेक्नालाजी के प्रशिक्षण का संस्थान तो खोल दिया, लेकिन स्थानीय उत्पाद व तकनीक के जूट की सुध किसी ने नहीं ली । जूट के थैले, सजावटी सामान, फ्लोरिंग, शा, चादर आदि बनाने में इलाके की जनजातियों को महारत् हांसिल है । जरूरत है तो बस उन्हें प्रोत्साहित करने  और उनके हुनर को दुनिया के सामने लाने के सही मंच की ।
विडंबना है कि इतनी जबरदस्त संभावनाओं वाले उत्पाद को उगाने के क्षेत्रों के विधिवत चिन्हांकन का काम भी नहीं हुआ है । ऐसे इलाकों को पहचान कर वहां अधिक फसल देने वाले बीज व तकनीक मुहैया करवा कर उत्तर-पूर्वी राज्यों में रोजगार की गंभीर समस्या का सहजता से हल खोजा जा सकता है । जूट महज पेट भरने का साधन मात्र नहीं है, यह मनुष्‍
य और प्रकृति के बीच  बढ़ रही दूरी के बीच सेतु भी है ।

पंकज चतुर्वेदी

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