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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

BUNDELKHAND CAN BE DUMPING GROUND FOR ATOMIC WASTE

Rashtriy sahara 18-2-15http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=9
परमाणु बिजलीघरों का कचरा बड़ी समस्या

                                                                         पंकज चतुव्रेदी
हाल में परमाणु जवाबदेही कानून के बारे में स्पष्ट कर दिया गया है कि कोई दुर्घटना होने की सूरत में पीड़ित पक्ष रियेक्टर सप्लाई करने वाली कपंनी पर मुआवजे का दावा नहीं कर सकेगा। सालों साल बिजली की मांग बढ़ रही है, हालांकि अभी हम कुल 4780 मेगावाट बिजली ही परमाणु से उपजा रहे हैं जो हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसद है। लेकिन अनुमान है कि हमारे परमाणु ऊर्जाघर 2020 तक 14600 मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और 2050 तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई अणु-शक्ति से आएगा। विकास का महत्वपूर्ण घटक होने के कारण बिजली की मांग व उत्पादन बढ़ना स्वाभाविक है। इस रूप में परमाणु बिजली जरूरी विकल्प है लेकिन परमाणुघरों से निकले कचरे का निबटान कहां व कैसे हो इस पर गंभीरता से सोचना होगा। सनद रहे कि एक सीमा से अधिक विकिरण मानव शरीर व पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह होता है और सालों-साल प्रभावी रहता है। उसकी नजीर जापान के हिरोशिमा व नागासाकी हैं। खैर, परमाणु जवाबदेही पर नए स्पष्टीकरण के बाद यह मसला और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। वैसे तो इस मसले पर 14 मार्च 2012 को एक प्रश्न के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने लोकसभा में बताया था कि परमाणु कचरे का निबटना कैसे होता है। लेकिन कहां और कब होता है, जैसे बेहद संवेदनशील सवाल अनुत्तरित ही रहते हैं। यह बात सालों पहले भी सुगबुगाई थी कि ऐसे कचरे को जमीन के भीतर गाड़ने के लिए उपेक्षित, वीरान व पथरीले इलाकों को चुना गया है और उसमें बुंदेलखंड का भी नाम था। सरकार का लोकसभा में दिया गया जवाब बताता है कि परमाणु बिजलीघर के कचरे को अतिसंवेदनशील, कम संवेदनशील व निष्क्रिय में छांटा जाता है। खतरनाक कचरे को सीमेंट, पॉलीमर, कांच जैसे पदार्थों में मिला ठोस में बदला जाता है। इसे दोहरी परत वाले स्टेनलेस स्टील के पात्रों में तब तक बिजली घरों में ही रखा जाता है। पूरी तरह ठोस में बदल जाने के बाद जब उसके रेडियो एक्टिव गुण क्षीण हो जाते हैं तो उसे जमीन की गहराई में दफनाने की तैयारी की जाती है। पश्चिमी देश ऐसे कचरे को अब तक गहरे समुद्र में दबाते रहे हैं। अणु ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने के लिए यूरेनियम नाम के रेडियो एक्टिव को बतौर ईधन प्रयोग में लाया जाता है। न्यूट्रान की बम वष्ा पर रेडियो एक्टिव तत्व में भयंकर विखंडन होता है। विखंडन प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए उसमें केडमियाम या बोरोन स्टील की छड़ें लगाई जाती है। इसके नाभिकीय विखंडन पर ऊर्जा के साथ- साथ क्रिप्टान, जिनान, सीजियम, स्ट्रांशियम आदि तत्व बनते जाते हैं। एक बार विखंडन शुरू होने पर यह प्रक्रिया अनंत काल तक चलती रहती हैं। इस तरह यहां से निकला कचरा बेहद विध्वंसकारी होता है और इसका निबटान सारी दुनिया के लिए समस्या है। भारत में हर साल भारी मात्रा में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वत, गंगा-सिंधु के कछार या रेगिस्तान में तो डाला नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं भूकंप की आशंका है तो कही बाढ़ का खतरा। कहीं भूजल स्तर काफी ऊंचा है तो कहीं घनी आबादी। यह पुख्ता खबर है कि परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों को बुंदेलखंड, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश का कुछ पथरीला इलाका इस कचरे को दफनाने के लिए सर्वाधिक मुफीद लगा और अब तक कई बार यहां गहराई में स्टील के ड्रम दबाए जा चुके हैं। परमाणु कचरे को बुंदेलखंड में दबाने का सबसे बड़ा कारण यहां यहां 50 फीट गहराई तक ही मिट्टी है और उसके बाद 250 फीट गहराई तक ग्रेनाईट पत्थर है। भूगर्भ वैज्ञानिक अविनाश खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड ग्रेनाइट का निर्माण कोई 250 करोड़ साल पहले तरल मेग्मा से हुआ था। तबसे विभिन्न मौसमों के प्रभाव ने इस पत्थर को अन्य किसी प्रभाव का रोधी बना दिया है। यहां गहराई में बगैर किसी टूट या दरार के चट्टाने हैं और इसीलिए इसे कचरा दबाने का सुरक्षित स्थान मना गया। अणु कचरे से निकलने वाली किरणों न तो दिखती हैं और न ही इसका कोई स्वाद या गंध होता है। लेकिन ये मानव शरीर के प्रोटीन, एंजाइम, अनुवांशिक अवयवों में बदलाव ला देती हैं। यदि एक बार रेडियो एक्टिव तत्व शरीर में मात्रा से अधिक प्रवेश कर जाए तो उसके दुष्प्रभाव से बचना असंभव है। विभिन्न अणु बिजली घरों के करीबी गांव- बस्तियों के बाशिंदों में शरीर में गांठ बनना, गर्भपात, कैंसर, अविकसित बच्चे पैदा होना जैसे हादसे आम हैं क्योंकि जैव कोशिकाओं पर रेडियो एक्टिव असर पड़ते ही उनका विकृत होना शुरू हो जाता है। खून के प्रतिरोधी तत्व भी विकिरण के चलते कमजोर हो जाते हैं। इससे एलर्जी, दिल की बीमारी, डायबीटिज जैसे रोग होते हैं। पानी में विकिरण रिसाव की दशा में नाईट्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। यह जानलेवा होता है। इस कचरे को बुंदेलखंड में ठिकाने लगाने से पहले वैज्ञानिकों ने यहां बाढ़, भूकंप, युद्ध और जनता की भूजल पर निर्भरता जैसे मसलों पर शायद गंभीरता से विचार नहीं किया। इलाके में पांच साल में दो बार कम वष्ा व एक बार अति वष्ा के कारण बाढ़ मौसमी चक्र बन चुका है। श्री खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड का जल-स्तर शून्य से सौ फीट तक है। बुंदेलखंड ग्रेनाइट में बेसीन, सब बेसीन और माईक्रो बेसीन, यहां नदियों, नालों के बहाव के आधार पर बंटे हुए हैं लेकिन ये किसी न किसी तरीके से आपस में जुड़े हुए हैं यानी पानी के माध्यम से यदि रेडियो एक्टिव रिसाव हो गया तो उसे रोक पाना संभव नहीं होगा। नदियों के प्रभाव से पैदा टैटोनिक फोर्स के कारण चट्टानों में ज्वाईंट प्लेन, लीनियामेंट टूटफूट होती रहती है, जिससे विकिरण फैलने की संभावना बनी रहती है। बुंदेलखंड के ललितपुर व छतरपुर जिले में यूरेनियम अयस्क भारी मात्रा में पाया गया है। वहीं छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना के भूगर्भ में आयोडीन का आधिक्य है। दोनों तत्व अणु विकिरण के अच्छे वाहक है। यह इलाका भयंकर गर्मी वाला है जहां 47 डिग्री तापमान कई-कई दिनों तक होता है। ऐसे में रेडियो एक्टिव विकिरण फूटा तो तेजी से फैलेगा। यहां केन- बेतवा नदी जोड़ भी भू संरचना को प्रभावित करेगी। हालांकि परमाणु ऊर्जा विभाग विकिरण को खतरनाक नहीं मानता है। विभाग के एक परिपत्र के मुताबिक विकिरण सदैव पर्यावरण का हिस्सा रहा है। अंतरिक्ष किरणों, मिट्टी, ईंट, कंक्रीट के घरों आदि में 15 से 100 मिलीरिम सालाना का विकिरण उत्सर्जित होता है पर परमाणु भट्टी से निकलने वाले कचरे का विकिरण इससे कई-कई हजार गुणा होता है। भले ही भूविज्ञान परमाणु कचरे के निबटान के लिए बुंदेलखंड को माकूल मानते हों, लेकिन वास्तव में यहां की जनता की अल्प जागरूकता और जन प्रतिनिधियों के उपेक्षित रवैये के कारण ही यह सबसे कम प्रतिरोध वाला इलाका मान लिया गया है।
    

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