बहुत
पुरानी है बुंदेलखंड की मांग
पंकज
चतुर्वेदी
jansandesh times, UP 18-2-15http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/18-02-2015&spgmPic=7 |
बुंदेलखंड
सूखे से बेहाल रहने के कारण चर्चा में रहता है । लोगेंा के पेट से उफन रही
भूख-प्यास की आग पर जब सियासत की हांडी खदबदाती है, उस समय यहां के लोग रोजी-रोटी की तलाश में
दिल्ली-पंजाब की ओर लाखों की संख्या में पलायन करते हैं। कहा जाता है कि जहां का
नेत्त्व कमजोर होता है वहां अलगाव और पिछड़ापन साथ-साथ आता है । मायावती के
षासनकाल में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पारित चार राज्यों के प्रस्ताव ने इलाके
के लोगों में अपनी कई दशक पुरानी मांग के पूरा होने की उम्मीद जगा दी थी। हालांकि
यह तय है कि महज छह जिलों, 22 विधानसभा
सीटों और एक करोउ़ से भी कम आबादी के उत्तर प्रदेश के बुदेलखंड का अलग राज्य बनना
तब तक संभव नहीं होगा, जब तक मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड को भी इसमें मिलाने की
प्रक्रिया प्रारंभ ना हो। तेलंगाना राज्य
की घोशणा के बाद एक बार फिर बुंदेलखंडवासी सरकार की ओर उम्मीदों से ताक रहे हैं
यह
तथ्य सर्वमान्य हैं कि बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा के मामले में संपन्न हैं, यह
इलाका अल्प वर्षा का स्थाई शिकार हैं और यह भी कि यह इलाका लगातार सरकारी उपेक्षा
का शिकार रहा हैं । यहां दो साल मे ंएक बार जब भी सूखा पड़ता है सरकारें राहत के
मलहम लगाने लगती हैं, लेकिन इन तदर्थ-व्यवस्थाओं से यहां की तकदीर नहीं बदली जा
सकती । यहां के बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और आम लोगों का बड़ा वर्ग यह
मान चुका है कि अलग राज्य के अलावा उनके भाग्योदय का और कोई विकल्प नहीं हैं ।
तीन
साल पहले कांगेस के युवराज राहुल गांधी और उसके बाद तब की मुख्यमंत्री मायावती
सूखा-ग्रस्त बुंदेलखंड का दर्द जानने गए थे। दोनों ने ही अलग से बुंदेलखंड राज्य
की मांग का समर्थन किया था। ये पहले राजनेता नहीं हैं जो अलग राज्य को इलाके की
तकदीर बदलने की कुंजी बताते हैं । इसे पहले गंगाचरण राजपूत, राजा
बुंदेला , सत्यव्रत
चतुर्वेदी सहित कई कांगे्रसी बुंदेलखंड को अलग राज्य बनााने के धरना-प्रदर्शनों
में अगुवाई करते रहे हैं । भारतीय जनता पार्टी के दर्जनों सांसद भी इसके हिमायती
रहे हैं । यही नहीं अटलबिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रीत्व काल में बंुदेलखंड की सभी
लोकसभा सीटों पर भाजपा का एकाधिकार था । अपने घोशणा पत्र और जन सभाओं में भाजपा
नेता पृथक राज्य की मांग उठाते रहे , लेकिन सत्ता सम्हालने के बाद वे अपने
वायदे भूल गए । उ.प्र. से तो यदा कदा अलग राज्य की बात होती रही हैं, लेकिन
मध्यप्रदेश की सरकार इस पर मौन हैं । इतना
व्यापक राजनीतिक समर्थ होने के बावजूद अलग
से राज्य की बात के मूर्तरूप होने में कोई प्रगति होना स्पष्ट दर्शाता है कि
राजनीतिज्ञों का असली मकसद बुंदेलखंड के नाम पर महज सियासत करना है ।
यहां
अलग राज्य की मांग बहुत पुरानी हैं, सन 1942 से इसका आंदंोलन चल रहा हैं । समय-समय पर
राजनैतिक दल इसका फायदा भी उठाते रहे हैं । कुछ साल पहले पृथक बुंदेलखंड राज्य
आंदोलन उग्र हो गया था । समर्थकों ने आधा दर्जन सरकारी वाहनों को आग लगा दी । कई
जगह रेल गाडि़यां रोकी गईं । बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के संयोजक शंकरलाल मेहरोत्रा
और अन्य चार लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कई महीनों जेल रहे और
दुर्भाग्य से श्री मेहरोत्रा जेल में लीवर की ऐसी बीमारी के शिकार हुए कि उनका
असामयिक देहावसान हो गया । उसके बाद अभिनेता राजा बंुदेला इस आंदोलन की कमान
संभाले हुए हैं । वे कांग्रेस में भी गए लेकिन अब अपना अलग दल बना कर काम कर रहे
हैं। इसके अलावा बादशाह सिंह का संगटन भी अलग राज्य की राजनीति करता है । वैसे
बादशाह सिंह मौदहा से विधायक हैं, उनकी बाहुबली छबि है और कई पार्टियों का
फेरा लगाते रहे हैं और इन दिनों जेल में है।
भारत
के नक्शे के ठीक मध्य स्थित बंुदेलखंड का क्षेत्र यमुना, नर्मदा, चंबल
और टौंस नदियों के बीच लगभग 400 किलोमीटर पूर्व से पश्चिम और इतना ही
उत्तर से दक्षिण वर्गाकार फैला हुआ है । लगभग 1.60 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले इस भू-भाग
की भाषा, संस्कृति, आचार-विचारों
एकरूपता के बावजूद यह उ.प्र. व म.प्र. दो राज्यों में विभाजित हैं । सन् 200-500
ईस्वी में वाकाटक युग से इस क्षेत्र की पहचान अलग राज्य के रूप में रही हैं । यह
स्वरूप चंदेलों (सन् 831-1203 ई) और उसके बाद बुंदेलों, फिर
अंग्रेजों के शासनकाल तक बरकरार रहा । शुरू में यह भू-भाग जैजाक-मुक्ति या जुझौति
कहा जाता था । बुंदेला शासकों के दौरान यह बंुदेलखंड कहा जाता था । स्वतंत्रता से
पहले बंुदेलखंड राज्य बना भी था और उसकी राजधानी नौगांव बनाई गई थी । लेकिन दो
महीने बाद ही इसका विभाजन विंध्यप्रदेश के रूप में हो गया था । 1942
में प्रसिद्ध साहित्कार व संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने टीकमगढ़ रियासत के
महाराज वीर सिंह देव के सहयोग से पृथक राज्य का जनांदोलन शुरू किया था । तब ‘मधुकर’ का
एक विशेश अंक बुंदेलखड पर छापा गया था ।
देश
को आजादी के तत्काल बाद केंद्र सरकार ने राज्यों के गठन के दिशानीति तय करने हेतु ‘दर
आयोग’ का
गठन किया । इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि नए राज्य प्रशासनिक सुविधा, ऐतिहासिक
एवं भौगोलिक संरचना, सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर होना चाहिए । इस तरह
बंुदेलखंड के गठन का रास्ता बड़ा स्पष्ट था । लेकिन तब कतिपय नेता भाषाई या जातीय
आधार के पक्षधर थे ।
पहले
गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल ने अनेक रियासतों को मिला कर अलग से बंुदेलखंड राज्य
बनाने की परिकल्पना प्रस्तुत की थी, लेकिन तत्कालीन केंद्रीय सरकार उससे असहमत
रही थी । 1948
में जवाहरलाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल और पट्टाभी सीतारामैय्या की अगुआई में
गठित जेवीपी आयोग ने बुंदेलखंड राज्य के पृथक अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया था ।
लेकिन 1955
में बनाए गए राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रमुख केएम पणिक्कर ने अपनी रिपोर्ट में पृथक
बुंदेलखंड राज्य के औचित्य का तर्कपूर्ण समर्थन किया था । यहीं नहीं आजादी के
पश्चात केंद्र सरकार के स्वराष्ट्र विभाग के सचिव श्री मेनन ने विस्तृत अध्ययन के
बाद एक रिपोर्ट तैयार की थी । इसमें बुंदेलखंड को दो राज्यों में विभाजित रखने को
क्षेत्र के विकास में अडंगा निरूपित किया था ।
बुंदेलखंड
के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाईट दुनियाभर में घूम मचाए
हैं । यहां की खदानों में गोरा पत्थर,, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी
के भंडार हैं । इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में
आवाज लगा कर बिकती हैं । इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता
को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है । आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं ।
लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं । खजुराहो, झांसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल सालभर विदेषी
घुमक्कड़ेां को आकर्षित करते हैं । अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिला
कर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन
इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता हैं ।
लगातार
सवाल यही उठ रहा है कि नए राज्यों के गठन का आधार क्या हो ? पुरानी
मांग या भौगोलिक संरचना या क्षेत्रों का पिछड़ापन या फिर छोटे राज्यों का सिद्धांत
। इन सभी पर तो बुंदेलखंड राज्य की मांग का आधार सशक्त रहा हैं ।
बहरहाल इस मसले पर मध्यप्रदेश
सरकार की चुप्पी बुंदेलखंड को सुलगा रही है । लगातार सूखे से हलाकांत
बुंदेलखंडवासियों में अपनी उपेक्षा से असंतोश उपज रहा हैं ।
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