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पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
First Published:19-02-15 09:20 PMLast Updated:19-02-15 09:20 PM
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पानी हमेशा ही एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल
जैसी विषमताएं भी हमेशा ही रही हैं। यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि
लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिंडों से पलायन कर गए। उसके
पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते
ही घरों के आंगन, गांव के पनघट और कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं
गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। गरमी
के चार महीनों के लिए पानी जमा करना, उसे किफायत से खर्च करना, यह सब हमारी
संस्कृति का ही हिस्सा था। पाइप से पानी आने के पहले का समाज मौसम के गणित
और पानी की उपलब्धता से पूरी तरह वाकिफ था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं सदियों से सूखे का सामना करते रहे हैं। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो, लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल जल-संवर्धन के कुछ ऐसे सलीके थे, जो गुम हो गए हैं और अब जब पाताल का पानी निकालने तथा नदियों पर बांध बनाने की जुगत फेल होती दिख रही हैं, तो फिर उनकी याद आने लगी है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला अच्छी तरह जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए। ऐसे स्थानीय तौर-तरीके देश के लगभग हर हिस्से में मौजूद रहे हैं।
देश में हर साल औसतन 37 करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा जल प्राप्त होता है, जबकि देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़, 80 लाख हेक्टेयर मीटर है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए, तो पांच सौ लाख हेक्टेयर मीटर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियां रही हैं। एक तरफ तो हम उन सबको भूल गए हैं और दूसरी तरफ नई प्रणालियां विकसित नहीं कीं। पाइप से पानी की सप्लाई वाली उस प्रणाली को, जो मूल रूप से बड़े शहरों के लिए बनी थी और भूमिगत जल व नदियों के शोषण पर आधारित थी, हमने अपना आदर्श बन लिया। यहां तक कि गांवों व कस्बों में भी।
अब जब यह व्यवस्था शहरों तक के लिए अपर्याप्त साबित हो रही है, पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने का कोई विकल्प नहीं रह गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं सदियों से सूखे का सामना करते रहे हैं। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो, लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल जल-संवर्धन के कुछ ऐसे सलीके थे, जो गुम हो गए हैं और अब जब पाताल का पानी निकालने तथा नदियों पर बांध बनाने की जुगत फेल होती दिख रही हैं, तो फिर उनकी याद आने लगी है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला अच्छी तरह जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए। ऐसे स्थानीय तौर-तरीके देश के लगभग हर हिस्से में मौजूद रहे हैं।
देश में हर साल औसतन 37 करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा जल प्राप्त होता है, जबकि देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़, 80 लाख हेक्टेयर मीटर है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए, तो पांच सौ लाख हेक्टेयर मीटर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियां रही हैं। एक तरफ तो हम उन सबको भूल गए हैं और दूसरी तरफ नई प्रणालियां विकसित नहीं कीं। पाइप से पानी की सप्लाई वाली उस प्रणाली को, जो मूल रूप से बड़े शहरों के लिए बनी थी और भूमिगत जल व नदियों के शोषण पर आधारित थी, हमने अपना आदर्श बन लिया। यहां तक कि गांवों व कस्बों में भी।
अब जब यह व्यवस्था शहरों तक के लिए अपर्याप्त साबित हो रही है, पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने का कोई विकल्प नहीं रह गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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पानी
हमेशा ही एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल जैसी विषमताएं
भी हमेशा ही रही हैं। यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी
के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो
हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आंगन,
गांव के पनघट और कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं।
बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। गरमी के चार महीनों
के लिए पानी जमा करना, उसे किफायत से खर्च करना, यह सब हमारी संस्कृति का
ही हिस्सा था। पाइप से पानी आने के पहले का समाज मौसम के गणित और पानी की
उपलब्धता से पूरी तरह वाकिफ था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं सदियों से सूखे का सामना करते रहे हैं। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो, लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल जल-संवर्धन के कुछ ऐसे सलीके थे, जो गुम हो गए हैं और अब जब पाताल का पानी निकालने तथा नदियों पर बांध बनाने की जुगत फेल होती दिख रही हैं, तो फिर उनकी याद आने लगी है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला अच्छी तरह जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए। ऐसे स्थानीय तौर-तरीके देश के लगभग हर हिस्से में मौजूद रहे हैं।
देश में हर साल औसतन 37 करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा जल प्राप्त होता है, जबकि देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़, 80 लाख हेक्टेयर मीटर है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए, तो पांच सौ लाख हेक्टेयर मीटर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियां रही हैं। एक तरफ तो हम उन सबको भूल गए हैं और दूसरी तरफ नई प्रणालियां विकसित नहीं कीं। पाइप से पानी की सप्लाई वाली उस प्रणाली को, जो मूल रूप से बड़े शहरों के लिए बनी थी और भूमिगत जल व नदियों के शोषण पर आधारित थी, हमने अपना आदर्श बन लिया। यहां तक कि गांवों व कस्बों में भी।
अब जब यह व्यवस्था शहरों तक के लिए अपर्याप्त साबित हो रही है, पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने का कोई विकल्प नहीं रह गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुएं सदियों से सूखे का सामना करते रहे हैं। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो, लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल जल-संवर्धन के कुछ ऐसे सलीके थे, जो गुम हो गए हैं और अब जब पाताल का पानी निकालने तथा नदियों पर बांध बनाने की जुगत फेल होती दिख रही हैं, तो फिर उनकी याद आने लगी है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला अच्छी तरह जानते थे। उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है, जो शाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए। ऐसे स्थानीय तौर-तरीके देश के लगभग हर हिस्से में मौजूद रहे हैं।
देश में हर साल औसतन 37 करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा जल प्राप्त होता है, जबकि देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़, 80 लाख हेक्टेयर मीटर है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए, तो पांच सौ लाख हेक्टेयर मीटर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियां रही हैं। एक तरफ तो हम उन सबको भूल गए हैं और दूसरी तरफ नई प्रणालियां विकसित नहीं कीं। पाइप से पानी की सप्लाई वाली उस प्रणाली को, जो मूल रूप से बड़े शहरों के लिए बनी थी और भूमिगत जल व नदियों के शोषण पर आधारित थी, हमने अपना आदर्श बन लिया। यहां तक कि गांवों व कस्बों में भी।
अब जब यह व्यवस्था शहरों तक के लिए अपर्याप्त साबित हो रही है, पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने का कोई विकल्प नहीं रह गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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