पंकज चतुव्रेदी
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Rashtriy Sahara 15-2-2015http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=9 |
भारत में प्रकाशन उद्योग की वृद्धि सालाना बीस फीसद है, यानी तेजी से बढ़ता बाजार। हो भी क्यों नहीं! आजादी के बाद से सरकार अधिकाधिक लोगों को साक्षर बनाने के उपक्रम में जो लगी है। आज जिस गति से पढ़ने-पढ़ाने की बात आगे बढ़ रही है, उसी हिसाब से किताबों की जरूरत भी बढ़ रही है। हालांकि मनोरंजन, ज्ञानवर्धन, शिक्षा को सतत बनाये रखने के लिए जागरूकता की प्रतीक किताबों की बहुत जरूरत है लेकिन आज भी किसी जिला मुख्यालय पर पसंदीदा पुस्तक प्राप्त करना लगभग मुश्किल है, क्योंकि उसकी कोई दुकान होती ही नहीं है। वह तो भला हो ऑनलाइन व्यापार का कि अब पुस्तकें मध्यम वर्ग तक पहुंच पा रही हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पाठक, पुस्तक प्रेमी, प्रकाशक जब कभी मिलते हैं तो एक ही उलाहना होता है कि उनकी पसंदीदा कम कीमत वाली किताबें मिलती ही नहीं हैं। अंग्रेजी किताबों के बड़े स्टोर हैं। कई मल्टी ब्रांड रिटेल चेनों में भी अधिसंख्य अंग्रेजी पुस्तकें मिल जाती है लेकिन हिंदी व अन्य भारतीय भाषा के पाठक इंतजार करते हैं किसी पुस्तक मेले का। यदा-कदा उनके इलाके में कोई किताब गाड़ी भी आ जाती है, लेकिन मांग और जरूरत के सामने सप्लाई बेहद कम या नाममात्र की होती है। कभी- कभार कोई निजी संस्था छोटा-मोटा पुस्तक मेला या प्रदर्शनी लगाती भी है तो उसमें पाठक के पास पसंदीदा पुस्तक चुनने का विकल्प बेहद सीमित होता है। देश के कोई पैंतीस फीसद हिस्से में हिंदी पुस्तकों की मांग रहती है और ऐसा नहीं है कि हिंदी में स्तरीय या वाजिब दाम की पुस्तकों की कोई कमी है। प्रथम पंद्रह-बीस रपए में बच्चों की बहुरंगी पुस्तकें ला रहा है। एकलव्य, रूम टू रीड जैसी कई संस्थाएं चर्चित लेखकों की उत्कृष्ट चित्रों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर की पुस्तकें बहुत कम कीमत पर छाप रही हैं। जयपुर के बोधि प्रकाशन ने तो हिंदी साहित्य के श्रेष्ठतम रचनाकारों की उम्दा पुस्तकों को सौ रपए में दस किताबों के सेट के रूप में बाजार में उतार तहलका मचा दिया है। नेशनल बुक ट्रस्ट की पुस्तकें किसी भी स्तर पर किसी अंतरराष्ट्रीय संस्थान से कम नहीं हैं और कीमत इतनी कम कि पाठक कहता है, यह तो बहुत सस्ती है। विश्व विजय, राजपाल, राजकमल, वाणी जैसे प्रकाशक भी आम लोगों के लिए पेपरबैक पुस्तकें तीस से पचास रपए कीमत पर बाजार में ला रहे हैं। आगरा, मेरठ, रोहतक की छोड़ें, दिल्ली में ही रोहिणी, महरौली या शाहदरा में इन किताबों की दुकान मिलना असंभव है। आश्र्चय कि मांग है, उत्पाद है लेकिन खरीदार तक पहुंच नहीं पा रहा है उत्पाद। ऊपर से लेखक का रुदन कि प्रकाशक उसकी किताब पाठक तक पहुंचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा है। यदि उनसे सवाल पूछें कि वह क्या करे? तो बगलें झांकने के अलावा कोई जवाब नहीं मिलेगा। असल में हमारे पुस्तक प्रोन्नयनकर्ताओं को जनता और बाजार के मिजाज का अता-पता नहीं है। लेखक कलम चला कर मुग्ध है और प्रकाशक कागज काले कर-करके। उसकी मानसिकता बन चुकी है कि सरकारी सप्लाई ही कमाई का जरिया है। उसमें घूसखोरी चलती है, बस। इसका खमियाजा वे प्रकाशक भी उठाते हैं जो पवित्र आस्था के साथ केवल पाठक के लिए काम करते हैं। एक शिकायत रहती है कि रेलवे या बस स्टेशन, हवाई अड्डे या मुख्य बाजार में किताब की दुकानों पर भी वाजिब दाम वाली बेहतरीन किताबें नहीं मिलती हैं। ऐसा नहीं है कि नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रथम या बोधि प्रकाशन आदि ऐसा नहीं चाहते हैं। दुकानदार भी जानता है कि ये किताबें आने के साथ ही बिक जाएंगी, फिर भी वह इन्हें नहीं रखता है। यह सब जानते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड या मुख्य बाजार में दुकानों के किराये में बेतहाशा वृद्धि हुई है। विशेष रूप से ऐसे व्यस्त स्थानों पर किताबों की दुकान बहुत छोटे आकार की होती हैं। दुकानदार वही किताब रखता है जो जगह कम घेरे और एक कॉपी बेचने पर मुनाफा ज्यादा दे और ज्यादा दिन स्टॉक न रखना पड़े। अब किफायती दाम की पुस्तकों की कीमत ही दस से पचीस रपए है यानी एक किताब बेचने पर विक्रेता को बमुश्किल चार से सात रपए मिलेंगे। वहीं जेफरी आर्चर या शिव खेड़ा की एक किताब पर उसे तीस-चालीस रपए मिल जाते हैं। जाहिर है, उसका ध्यान उसी पर होगा क्योंकि दुकानदार धर्मार्थ खाता खोलने के लिए तो बैठा नहीं है। तो क्या बाजार के दबाव में कम कीमत की स्तरीय किताबों का कोई स्थान नहीं है? हकीकत में ऐसी पुस्तकें समाज और सरकार दोनों के लिए जरूरी हैं और थोड़े से प्रयास इन पुस्तकों तक पाठकों की पहुंच बना सकते हैं। ईरान को भले हम एक पुरातनपंथी देश कहें, लेकिन यह जानकर अच्छा लगेगा कि तेहरान में एक ‘बुक-मॉल’ है, सरकारी किताबों का बहुब्रांड स्टोर। बेहद कम कीमत पर यहां प्रकाशकों को दुकानें दी गई हैं। बिलिंग, सुरक्षा, प्रचार व अन्य साझा जिम्मेदारियां सरकार के जिम्मे, प्रकाशक को बस अच्छी किताबें रखनी हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट साल में एक बार प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले के आयोजन के लिए जो किराया देता है और ऊपर से अस्थाई निर्माण पर जो खर्च करता है, उससे एक छोटा सा मॉल शुरू किया जा सकता है। देश के कम से कम आठ महानगरों में ऐसे मॉल की शुरुआत सरकार के लिए बड़ी बात नहीं है। यह बात दीगर है कि हमारे यहां विशेष रूप से हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में जिस तरह अनियोजित व और फर्जी प्रकाशन संस्थानों का बोलबाला है, उसमें असली प्रकाशक को चुनकर उसे जगह देना थोड़ा टेढ़ी खीर होगा। हाल में नेशनल बुक ट्रस्ट ने कुछ राज्यों में पोस्ट आफिस में पुस्तकों की दुकान की, जो सफल रही और अब दिल्ली में मेट्रो के साथ यह प्रयोग हो रहा है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय का प्रकाशन विभाग पहले अपने डीएवीपी कार्यालयों में पुस्तकों की बिक्री करता था लेकिन एक तो वहां किसी ने रुचि नहीं दिखाई, दूसरा प्रकाशन विभाग की पुस्तकों का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ सो यह काम आगे नहीं बढ़ पाया, लेकिन आज जिस तरह प्रापर्टी की कीमतें बढ़ी हैं और हर जगह पुस्तकों की दुकान खोलना बेहद महंगा है, साथ ही लोगों की पुस्तकों के प्रति रुचि बढ़ी है, प्रकाशन विभाग अपने दफ्तरों को सकिय्र कर सकता है। नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, एनसीईआरटी, साहित्य अकादेमी, विज्ञान प्रसार जैसे कई सरकारी प्रकाशन संस्थान एक साथ मिल कर साझा दुकानों की श्रृंखला देशभर में शुरू करें तो पुस्तकें बहुत हद तक पाठकों की पहुंच में आ सकती हैं। वैसे अभी हर राज्य में ऐसा केंद्र बनाने की कवायद शुरू हो गई है लेकिन कई राज्य सरकारें इसके लिए स्थान देने को प्राथमिकता नहीं समझती हैं। इसी तरह निजी प्रकाशक भी एक सिंडिकेट बना कर साझा प्रयास कर सकते हैं। छोटे-छोटे स्थानों पर अधिक से अधिक पुस्तक मेलों का आयोजन अच्छा विकल्प हो सकता है। असल में पुस्तक मेलों में भागीदारी बेहद महंगा सौदा होता जा रहा है। पहले स्टाल का किराया देना, फिर अपने माल को उस स्थान तक ढोना और उसके बाद पुस्तक मेला अवधि में अपने कम से कम दो कर्मचारी वहां रखना। मरी-गिरी हालत में भी एक प्रकाशक को एक पुस्तक मेला कम से कम पचहत्तर हजार का पड़ता है। किराया कम करना, प्रकाशकों का माल ढोने में छूट देना, भागीदारों को किफायती दर पर ठहरने की जगह उपलब्ध करवाने जैसे प्रयोग किसी भी पुस्तक मेला आयोजन पर सरकार पर बमुष्किल दो करोड़ का अतिरिक्त आर्थिक भर डालेंगे जो बड़ी राशि नहीं है, लेकिन इससे पठन-पाठन की जो संस्कृति विकसित होगी, उसका कोई मोल लगाया नहीं जा सकता। हां, यह सब छूट-सुविधाएं भी केवल किफायती दाम वाले प्रकाशक को ही मिले। रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, हवाई अड्डों, विविद्यालयों पर ऐसी पुस्तकों की दुकानों को अनिवार्य करना कोई बड़ी बात नहीं है। इन दिनों बेरोजगारों को घर बैठे बगैर काम के भत्ता देने का शोर भी सुनाई देता रहा है। काश इन लोगों को कम कीमत की स्तरीय किताबें बेचने के काम में लगा दिया जाता तो उन्हें भत्ते के साथ कमीशन में कुछ और रकम मिल जाती। युवाओं को बांटे जा रहे लेपटॉप का इस्तेमाल ऑनलाइन पुस्तक बिक्री केंद्र के तौर पर करने से सोने में सुहागा हो सकता है। सुझाव तो और भी दिए जा सकते हैं जो बहुत कम लागत पर पुस्तकों को घर-घर पहुंचाने में सार्थक सटीक कदम होंगे, लेकिन वह इच्छाशक्ति तो सरकार को प्रकट करनी होगी जो इन उपायों के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है।
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