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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

Pulses will make hole in your pocket

खतरा बनता खाली दाल का कटोरा

डेली न्‍यूज, जयपुर 18 अप्रेल 15
                                                             पंकज चतुर्वेदी
बेमौसम बारिष ने देषभर में  खेती-किसानी का जो नुकसान किया है, उसका असर जल्द ही बाजार में दिखने लगेगा । वैसे भी हमारे यहां मांग की तुलना में दाल की उत्पादन कम होता है और इस बार की प्राकृतिक आपदा की चपेट में दाल की फसल को जबरदस्त नुकसान हुआ है। अनुमान है कि लगभग पंद्रह प्रतिषत फसल नश्ट हो गई है, जबकि गुणत्ता कम होने की भी काफी संभावना है। एक तरफ सब्जी-फल के दाम आसमान दू रहे हैं तो आम आदमी के भोजन से दाल तो नदारत है, कारण है - मांग की तुलना में कम उत्पादन, डालर के मुकाबले रूपए के कमजोर होने से घटता आयात और उसके आसमान छूते दाम। वह दिन अब हवा हो गए हैं जब आम मेहनतकष लोगों के लिए प्रेाटीन का मुख्य स्त्रोत दालें हुआ करती थीं। देष की आबादी बढ़ी, लोगों की पोश्टिक आहार की मांग भी बढ़ी, बढ़ा नहीं तो दाल बुवाई का रकवा। परिणाम सामने हैं- मांग की तुलाना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं। सबसे ज्यादा लोकप्रिय तुअर(अरहर)दाल में गत एक साल के दौरा प्रति किलो 23 रूप्ए का उछाल आया है।
भारत में दालों की खपत 220 से 230 लाख टन की सालाना, जबकि कृशि मंत्रालय कह चुका है कि इस बार दाल का उत्पादन 184.3 लाख टन रह सकता है जो पिछले साल के उत्पादन 197.8 लाख टन से बेहद कम है। दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढेंगें, नजीतन आम आदमी प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लिए दीगर अनाजों पर निर्भर होगा । इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ौतरी होगी।सनद रहे कि गत् 25सालों से हम हर साल दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लिए इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की किसी ठोस योजना नहीं बन पा रही है ।
यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला देष है। दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रतिषत हमारे यहां है जबकि खपत 22 फीसदी है। इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो गए है जब आम-आदमी को ‘‘दाल-रोटी खाओ, प्रभ्ुा के गुण गाओ’’  कह कर कम में ही गुजारा करने की सीख दे दी जाती थी । आज दाल अलबत्ता तो बाजार में मांग की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है, और जो उपलब्ध भी है तो उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर हो गया है ।
वर्ष 1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99.4 लाख टन था, जो 2006-07 आते-आते 145.2 लाख टन ही पहुंच पाया । सन 2008-09 में मुल्क के 220.9 लाख हैक्टर खेतों में 145.7 लाख टन दाल ही पैदा हो सकी। सनद रहे कि इस अवधि में देश की जनसंख्या में कई-कई गुणा बढ़ौतरी हुई है, जाहिर है कि आबदी के साथ दाल की मांग भी बढ़ी । इसी अवधि के दौरान गेंहू की फसल 104 लाख  टन से बढ़ कर 725 लाख टन तथा चावल की पैदावार 305.9 लाख टन से बढ़ कर 901.3 लाख टन हो गई । हरित क्रांति के दौर में दालों की उत्पादकता दर, अन्य फसलों की तुलना में बेहद कम रही है ।
दलहन फसलों की बुवाई के रकवे में बढ़ौतरी ना होना भी चिंता की बात है । सन 1965-66 में देश के 227.2 लख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोई जाती थी, सन 2005-06 आते-आते यह घट कर 223.1 लाख हेक्टेयर रह गया वर्ष 1985-86 में विश्व में दलहन के कुल उत्पादन में भारत का योगदान 26.01 प्रतिशत था, 1986-87 में यह आंकड़ा 19.97 पर पहुंच गया । सन 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ौतरी हुई और यह 22.64 फीसदी हो गया ।  लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांग से बहुत दूर रहे । हम गत् 25 वर्षो से लगातार विदेशों(म्यांमार, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंगवा रहे हैं ।  पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया था, लेकिन आलू-प्याज के लिए कोहराम काटने वाले राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे थे । पिछले साल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने नवंबर तक 18,000टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लिए वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी । माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उगली। एक तरफ आयातीत दाल बाजार मंे थी, सो किसानों को अपनी अपेक्षित रेट नहीं मिला ।  ऐसे में किसान के हाथ फिर निराशा लगी और अगली फसल में उसने दालों से एक बार फिर मंुह मोड़ लिया । इस बार तो संकट सामने दिख रहा है, बेहतर होगा कि सरकार अभी से दाल आयात करना षुरू कर दे। एक तो इस समय मासल खरीदने पर कम दोम में मिलेगा, दूसरा बाजार में बाहर का माल आने से देष में इसकी आपूर्ति सामान्य रहेगी व इसके चलते इसके भाव भी नियंत्रण में रहेंगे।
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन 2004 में इंटीग्रेटेड स्कीम फार आईल सीड, पल्सेज, आईल पाम एंड मेज़(आईएसओपीओएम) नामक योजना शुरू की थी । इसके तहत दाल बोने वाले किसानों को सबसिडी के साथ-साथ कई सुविधाएं देने की बात कही गई थी । वास्तव में यह योजना नारों से ऊपर नहीं आ पाई । इससे पहले चैथीं पंचवर्षीय योजना में ‘‘ इंटेंसिव पल्सेस डिस्ट्रीक्ट प्रोग्राम’’ के माध्यम से दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने का संकल्प लाल बस्तों से उबर नहीं पाया । सन 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परिणाम नहीं निकले । जहां सन 1950-51 में हमारे देष में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 ग्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 ग्राम से भी कम हो गई। क
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(आईसीएआर) की मानें तो हमारे देश में दलहनों के प्रामाणिक बीजों हर साल  मांग 13 लाख कुंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6.6 लाख कुंटल । यह तथ्य बानगी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए कितनी गंभीर है । यह दुख की बात है कि भारत , जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है । कमी हो तो बाहर से मंगवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है ।
नेशनल सैंपल सर्वे के एक सर्वेक्षण के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्रा में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है । इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है । शायद सभी सियासती पार्टियों की रूचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में हैं । तभी तो इतने षोर-षराबे के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लगाई जा रही है। इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटौरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है।

पंकज चतुर्वेदी, साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005



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