अविश्वास पर टिके पुलिस-तंत्र के बस का नहीं है नक्सलवाद से निबटना।
पंकज चतुर्वेदी
पिछले एक साल में यह आठवां हमला है
सुरक्षा बलों पर। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य
के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ
और बीएसएफ की कई टुकडि़यां मय हेलीकाॅप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही
तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है। नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की
पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है।, वे
खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा
बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। इस बार यह
हमला पिठमेल के पास हुआ है जिसमें एक कंपनी कमांडर सहित सात जवान शहीद हुए।
विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को
फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर
सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती
है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व
फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं।
बदले, प्रतिहिंसा और
प्रतिषोध की भावना केे चलते ही देश के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘
की
आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा
है। बदला लेने के लिए गठित सलवा जुडुम पर सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद
करें। बस्तर केे जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय
समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त
हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके
संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की
जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए
स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक
है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताश सुरक्षा बल जो
कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही षिकार बनते हैं
और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
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PRAJATANTRA LIVE 19-4-14 |
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से
सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा तक
है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां
चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर
उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे
आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां
पारंपरिक षीशम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के
तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा
में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की
गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण
करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके
बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र
सरकार के गृृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं।
इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई
थी। फिर भी चेतावनियों से बेपरवाह सुरक्षा बल लापरवाही से जंगल में घुस तो गए,
लेकिन
वापिस आते समय गहरे चक्रव्यू में फंस गए।
इस बार के हमले में कुछ कम नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण एसटीएफ
की पचास जवानों की टुकड़ीे में अधिकांश स्थानीय होना तथा उनका नक्सलियों द्वारा
दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ लेना भी था। यदि उनकी जगह कोई कें्रदीय
बल होता जो गोंडी नहीं समझता है तो नुकसान ज्यादा होता। सुरक्षा बल का यह दल
षुक्रवार की षाम को पोलमपल्ली व चिंतागुफा थाने से निकला था। शनिवार की सुबह यह दल जब वापिसी के लिए
पोलमपल्ली से निकला और पिठमेल के जंगल में सुबह सोढ़े दस बजे इनकी मुठभेड़ लगभग
चार सौ नक्सलियों के गिरोह से हो गई। नक्सली अपने लिए सुरक्षित ठिकाना बनाए बैठे
थे। उनकी अगली ंक्ति में कम उम्र के बच्चे व औरतें भी थीं जो अंधाधुंध फायरिंग कर
रहे थे। इस बार हमलावर दल मेढ के नीचे ज्यादा था तभी अधिकांश जवानों के पैर व कमर
से नीचे गोलियां ज्यादा लगी हैं। उसके बाद तीस घंटे तक मृतक जवानों के शव खुले
आसमान के नीचे पड़े रहे और प्रषासन उन्हें उठाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाया। राज्य
सरकार मीटिंग व बयान में व्यस्त रही व चार दिनों तक सुकमा से किरंदूल तक नक्सली
कोहराम काटते रहे।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना
है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना
के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी
होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी
होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629
क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं ,
इनमें
से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ
लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत
में पेषी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में
विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी
क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार
औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं,
इनमें
से 51 आदिवासी हैं।सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा
आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से
पार पहुंचेगी। इसके साथ ही एक और चैंकाने वाला आंकडा गौरतलब है कि ताजा जनगणना
बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि
उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में
यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी। सन 2011
में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या
भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा,
कांकेर
आदि में षेश देश के विपरीत महिला-पुरूष का
अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त
इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि
आदिवासियांे के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार
की सभी चार्जशीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए शो चनीय नहीं
है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना
अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं और यही नक्सलवाद
के लिए खाद-पानी है।
पुलिस पर आदिवासियों को भरोसा क्यों
नही है, उसकी बानगी एक निजी स्कूल की स्कूल टीचर सोनी सोरी है जिसे सुप्रीम
कोर्ट ने जमानत दे दी थी। उस पर आरोप लगया गया कि वह नक्सलियों के लिए एस्सार
कंपनी से वसूली कर रही थी फिर उसके साथ
पुलिस वालों ने बलात्कार किया, पूछताछ के नाम पर उसके गुप्तांगों में
पत्थर भर दिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दिल्ली के एम्स में इस पाशविकता का खुलासा
हुआ था। सुप्रीम कोर्ट को लिखे पत्र में सोनी ने कहा था, ‘‘ मुझे नंगा कर के
जमीन पर बिठाया जाता है। भूखा रखा जा रहा है। मेरे अंगों को छूकर तलाशी ली जाती
है। मैं भी एक भारतीय आदिवासी महिला हूं, मुझे में भी शर्म है, मुझे
शर्म लगती है। मैं अपनी लज्जा को बचा नहीं पा रही हूं। शर्मनाक शब्द कह कर मेरी
लज्जा पर आरोप लगाते हैं। जज साहब मुझ पर अत्याचार, जुल्म में आज भी
कमी नहीं है।’’
अभी 12 अप्रेल को ही
एक जांच में सामने आया कि किस तरह नक्सली मारे जाते हैं। सन 2011
में कथित मुठभेड़ में मारी गई मीना खलखो की जांच के लिए गठित अनिता झा आयोग की
रिपोर्ट के बाद बलरामपुर जिले के चांदो थाना के तत्कालीन प्रभारी सहित 25
पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया है। इससे स्पष्ट हो रहा है
कि 4 साल पहले हुई यह मुठभेड़ फर्जी थी और भेड़-बकरी चराने वाली 17
वर्षीय आदिवासी किशोरी मीना को माओवादी बताकर पुलिस ने मार गिराया था। 6 जुलाई-2011 को जब बलरामपुर
के लोंगरटोला में घटना हुई थी, तब पुलिस ने यह दावा किया था कि झारखंड
से आए माओवादियों के साथ दो घंटे तक चली मुठभेड़ के दौरान मीना खलखो भी गोलियां
चला रही थी, लेकिन पुलिस ने उसे मार गिराया था। पोस्टमार्टम
रिपोर्ट में सामने आया कि मीना को बेहद नजदीक से गोली मारी गई थी। यही नहीं उसके
साथ दुष्कर्म भी किया गया था। मुठभेड़ स्थल लोंगराटोला और मीना के गांव करंचा के
ग्रामीणों का कहना था कि उस रात उन्होंने केवल तीन गोलियों की आवाज सुनी थी। मीना
के परिजनों, राजनीतिक दलों और गैर सरकारी संगठनों ने आरोप
लगाया था कि पुलिसकर्मियों ने मीना का अपहरण कर उसके साथ दुष्कर्म किया और बाद में
उसे मौत के घाट उतार दिया। पहले इस मामले की जांच सीआईडी को ही सौंपी गई थी,
तब
कथित मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मियों के डीएनए टेस्ट की मांग भी उठी थी। सीआईडी
इसके लिए तैयार भी हो गई थी, लेकिन न्यायिक आयोग के गठन के बाद
सीआईडी ने यह कहते हुए अपने हाथ पीछे खींच लिए थे कि अब जो करेगा आयोग करेगा।
आरोपियों में चांदो थाने के तत्कालीन प्रभारी उपनिरीक्षक एन खेस, प्रधान
आरक्षक ललित भगत, महेश राम, विजेंद्र पैकरा,
इंद्रजीत
पैकरा, पंचराम ध्रुव, श्रवणकुमार, भदेश्वर राम,
मोहर
कुजुर, संजय टोप्पो, मनोज कुमार सहित उनके साथ रहे
छत्तीसगढ़ सशस्त्र पुलिस की १२वीं और १४वीं बटॉलियन के सिपाही शामिल हैं। शुरुआती
जांच के बाद राज्य सरकार ने आरोपी पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया था। बाद
में उन्हें फिर से थानों में बहाल कर दिया गया।
सन 2012 एक मामला सुकमा
जिले के जगरगुंडा थाने में दर्ज एक ममाला भी गौर करने लायक है जिसमें पुलिस ने 19
लोगों को आरोपी बनाया था। इस मामले में बताया गया कि सभी आरोपी खतरनाक नक्सली हैं
आक्र उनके पास से जब्ती में धनुश बाण, , खाना बनाने का बर्तन दर्षाया गया। इन सभी आदिवासियों को हत्या की
कोशिश करने , आर्म्स एक्ट , विस्फोटक एक्ट ,
घातक
अस्त्र शस्त्र से लैस होकर दंगा फैलाने और राज्य के अन्य कानून की धाराएं लगाईं
गईं।
अभी 28 मार्च को जेल
से सात साल बाद छूटी हिडमें का मामला सुन कर तो रौंगटे खउ़े हो जाते हैं। सुकमा के
एक छोटे से गांव की यह आदिवासी लड़की उस समय महज 16 साल की थी।
माता पिता बीमारी से चल बसे सो हिडमें मौसी के घर में रहती थी । मौसी के छोटे से
खेत पर वे खेती करते, जंगल से महुआ बीनते और संतोश की जिंदगी काटते। जनवरी सन 2008 में हिडमें के गाँव के पास के गाँव रामराम में मेला
लगा था । हिडमें भी अपनी मौसी और मौसेरी बहनों के साथ रामराम के मेले में गई। वहीं
से पुलिस वाले उसे उठा कर ले गए। कई दिनों
तक उसे अलग -अलग थानों में भेजा जाता व हर जगह पूरा थाना उसके साथ दुश्कर्म करता।
भयानक यातनाओं से हिडमें की हालत मरने जैसी हो गई थी , सो पुलिस वालों
ने नक्सली बता कर उसे जेल भेजने की व्यवस्था कर ली। कहा गया कि 23
सीआरपीएफ जवानों की हत्या में वह षामिल थी। उसे जगदलपुर जेल में डाल दिया गया ।
थाने में जो हिडमें के साथ हुआ था वो हैवानियत की इन्तेहा थी . जेल पहुँचने पर
हिडमें का गर्भाशय बाहर निकल आया । हिडमें
जेल में किससे कहती ? उसे बस गोंडी भाषा आती थी । हिडमें तो हिन्दी
भी नहीं बोल सकती थी । हिडमें ने अपने शरीर से बाहर निकले हुए उस मांस के लोथड़े को
दांत भींच कर फिर से शरीर के भीतर धकेल दिया । उसके शरीर से लगातार खून बहता रहता।
मांस का लोथड़ा बाहर आ जाता। एक दिन उसने ब्लेड के टुकड़े से अपने गर्भाशय को काट
कर फैंकने को तैयार हो गई। तब जा कर उसे अस्पताल भेजा गया। वहां उसका आपरेशन हुआ,
उसे
नौं टांके आए।
पुलिस ने हिडमें के खिलाफ़ दो औरतों और
दो पुलिस वालों को गवाह बताया था लेकिन वे
दोनों औरतें कभी अदालत के सामने नहीं पेश करी गयीं . दोनों पुलिस वालों ने हिडमें
का किसी मामले में हाथ होने की जानकारी से इनकार कर दिया । इस तरह सात साल जेल रह
गकर वह बाहर आई। जरा सोचें कि उनके समाज का कौन व्यक्ति पुलिस पर भरोसा करेगा।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात
साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक
सुरक्षा की स्थिति’’ विशय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि
देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल
प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों
का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के
दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान,
हिमाचल
प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख
औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’
और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’
में
इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर
कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी
कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सशस्त्र बलों को
खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर
कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक
गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य
मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर
उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम
पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में
फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की
साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना
बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके
सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत
तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को
नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या
की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिश करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या
बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया
अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के
चलते सात सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया
तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की
छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर
पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली
स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार
उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षाी ज्वाला बस्तर के
अंचलों से ही हैं। गौरतलब है कि चार सौ से
ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि
उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे
छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे
उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे
समझौते करती है। कष्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार
गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की
गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे
टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं
और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रषासन में
बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं,
जब
नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी
कोषिषें क्यों नहीं की गईं। याद करें 01
जुलाई 2010 की रात को आंध््राप्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराश्ट्र
की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ
आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया
था। पुलिस का दावा था किक यह मौतें मुठभेड में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे
कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले
में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन
यह बात बड़ी साजिश के साथ छुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश का
एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत षीर्श नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार
से षांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना
फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के
बाद नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से
डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश की ओर इशारा करती है कि वे कौन लोग
हैं जो नक्सलियों से शांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं। यदि आंकड़ों को देखें
तो सामने आता है कि जिन इलाकों में
लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप
से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही
अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर
विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य
में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को
जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर
संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की
संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकांे की कई करोड अरब की प्राकृतिक
संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996
में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को
लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की
जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी
अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ
दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है।
असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का,
लेकिन
हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांेकि
उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।
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