My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 4 जून 2015

world environment day : Save the sea

धरती के लिए जरूरी है समुद्र को बचाना
आज है विश्व पर्यावरण दिवस


उन दिनों इंसान के लिए समुद्र एक अनबूझ पहेली की तरह था। आज मानव ने समुद्र की गहराईयों को बहुत हद तक नाप लिया है। भौतिक सुखों का माध्यम बन गई है यह अथाह जल निधि। समुद्र केवल परिवहन या मछली का साधन नहीं रह गया, वहां से ईंधन, दवाई व बहुत कुछ प्राप्त किया जा रहा है। लेकिन इंसान के लिए भले ही यह उपलब्धि हो, लेकिन समुद्र के लिए तो यह अस्तित्व का खतरा बन रही है। आज जब पर्यावरण संरक्षण पर हर स्तर पर हल्ला मचा हुआ है, ऐसे में भी समुद्रों की अनूठी पारिस्थिति व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने पर कम ही चर्चा हो रही है। पृथ्वी के अधिकतर हिस्से पर कब्जा जमाए सागरों की विशालता व निर्मलता मानव जीवन को काफी हद तक प्रभावित करती है, हालांकि आम आदमी इस तथ्य से लगभग अनभिज्ञ है। पृथ्वी पर मौसम और वातावरण में नियमित बदलाव का काफी कुछ दारोमदार समुद्र पर ही होता है। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आने वाले दिनों में धरती पर जीवन का दारोमदार समुद्रों पर ही होगा। इसके बावजूद समुद्रों के दूषित होने के मसले को नदी या वायु प्रदूषण की तरह गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। समुद्र वैज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि सागर की निर्मल गहराईयां खाली बोतलों, केनों, अखबारों व शौच-पात्रों के अंबार से पटती जा रही हैं। मछलियों के अंधाधुंध शिकार और मंूगा की चट्टानों की बेहिसाब तुड़ाई के चलते सागरों का पर्यावरण संतुलन गड़बड़ाता जा रहा है। धरती के बाशिंदे समुद्रों के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। शहरों की गंदी नालियां, कचरा और कारखानों का अपशिष्ट सीधे ही समुद्रों में उड़ेला जा रहा है। आज समुद्र-प्रदूषण का 70 फीसदी धरती के निवासियों की लापरवाही के कारण है।यह आश्चर्यजनक लेकिन सत्य है कि गंदी नालियों की सीमित मात्रा यदि समुद्र जल में मिले तो फायदेमंद है। घरों की निकासी में मौजूद नाईट्रेट और फास्फेट समुद्र को उपजाऊ बनाते हैं। इससे छोटे पौधों की पैदावार बढ़ती है और इससे मछलियों को बेहतरीन भोजन मिलता है। लेकिन यदि इन लवणों की मात्रा बढ़ जाए तो इससे समुद्र को खतरा बढ़ जाता है। छोटे पौधों की संख्या बढ़ने से जल की गहराई में काई की परत मोटी हो जाती है। फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश भीतर तक नहीं जा पाता है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया या तो कम हो जाती है या फिर पूरी तरह रुक जाती है। साथ ही कार्बन डाई आक्साइड की अधिक मात्रा उत्सर्जित होने लगती है व इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन का खर्च बढ़ जाता है। सनद रहे कि यह ऑक्सीजन पानी में घुली ऑक्सीजन से ही प्राप्त होती है। इस तरह एल्गी यानी काई नष्ट होने लगती है। निर्जीव एल्गी में वैक्टीरिया उत्पन्न हो जाते हैं व इससे पानी में सड़न पैदा हो जाती है। इस तरह पानी में प्राण वायु का स्तर बेहद कम हो जाता है और तभी वहां जल-जीव मरने लगते हैं। ठीक यही हालत समुद्र में तेल रिसने पर होती है। खाड़ी देशों में लगातार युद्ध के चलते गत एक दशक में कई लाख गैलन तेल समुद्र में फैलता रहा है और इसका सीधा असर वहां के जीवों के जीवन पर पड़ा है। जब तटों के करीब की मछलियां शहरी प्रदूषण के कारण मरीं तो मछली मारने की बड़ी मशीनों ने गहराई में जाना शुरू कर दिया। अनुमान है कि हर साल 150,000 मीट्रिक टन प्लास्टिक के जाल व रस्सियां समुद्र में पड़ी रह जाती हैं और उसे खा कर लाखों व्हेल, सील व डाल्फिन जैसी मछलियां बेमौत मारी जाती हैं। भारत में तो गणेश व दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमाओं के विसर्जन ने कई किलोमीटर तक समुद्र को जीव-विहीन बना दिया है। कारखानों से निकला दूषित मलबा सागरों के लिए बड़ा खतरा है। साथ ही समुद्र में बढ़ता यातायात भी वहां के पर्यावरण का दुश्मन बन गया है। समुद्री जहाजों से गिरने वाला तेल, पेट्रोलियम पदार्थ, कीटनाशक, विषैली गैसों के खाली सिलेंडर आदि दिनों-दिन समुद्र के मिजाज को जहरीला बना रहे हैं। इस बढ़ते प्रदूषण के चलते समुद्र तटों, खाड़ियों आदि में मछली पकड़ने वालों पर विपरीत असर पड़ रहा है। पानी के विषैला होने के कारण जलचर जीवों के विकास, वृद्धि, भोजन, श्वसन क्रिया और उनमें रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। भारत में पश्चिम के गुजरात से नीचे आते हुए कोंकण, फिर मलाबार और कन्याकुमारी से ऊपर की ओर घूमते हुए कोरामंडल और आगे बंगाल के सुंदरबन तक कोई 5600 किलोमीटर सागर तट है। यहां नेशनल पार्क व सेंचुरी जैसे 33 संरक्षित क्षेत्र हैं। इनके तटों पर रहने वाले करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन समुद्र की मछली व अन्य उत्पाद ही हैं। लेकिन विडंबना है कि हमारे समुद्री तटों का पर्यावरणीय संतुलन तेजी से गड़बड़ा रहा है। मुंबई महानगर को कोई 40 किलोमीटर समुद्र तट का प्राकृतिक आशीर्वाद मिला हुआ है, लेकिन इसके नैसर्गिग रूप से छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि यह वरदान अब महानगर के लिए आफत बन गया है। इस महानगर में कई चौपाटियां हैं जो कि पर्यावरणीय त्रासदी का वीभत्स उदाहरण हैं। कफ परेड से गिरगांव चौपाटी तक कभी केवल सुनहरी रेत, चमकती चट्टानें और नारियल के पेड़ झूमते दिखते थे। कोई 75 साल पहले अंग्रेज शासकों ने वहां से पुराने बंगलों को हटा कर मरीन ड्राइव और बिजनेस सेंटर का निर्माण करवा दिया। उसके बाद तो मुंबई के समुद्री तट गंदगी, अतिक्रमण और बदबू के भंडार बन गए। जुहू चौपाटी के छोटे से हिस्से और फौज के कब्जे वाले नवल चौपाटी यानी कोलाबा के अलावा समूचा समुद्री किनारा कचरे व मलबे के ढेर में तब्दील हो गया है। तभी थोड़ी सी बरसात या ज्वार-भाटा में शहर कराहने लगता है। देश की पर्यटन राजधानी कहलाने वाले गोवा के कालानगुटे, बागा, अंजुना, बागटोर आदि चर्चित समुद्री तट पर्यटकों द्वारा फेंके गए कचरे से पट रहे हैं। शहर का कचरा भी लहरों के साथ किनारे पर आ जाता है और कीचड़ की गहरी परत छोड़ जाता है। चैन्नई के मरीना बीच के सौंदर्यीकरण पर तो खूब खर्चा हो रहा है, लेकिन पर्यावरणीय छेड़छाड़ पर कोई रोक-टोक नहीं है। पुरी में हाईकोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद समुद्र से 500 मीटर के दायरे में कई होटल बन गए हैं। समुद्र के किनारे बसे शहरों व होटलों से उत्सर्जित कचरे व अपशिष्टों के चलते जीवन-रेखा कहलाने वाले समुद्र तट बंजर और वीरान हो गए हैं। मछली पकड़ने के लिए बड़ी व शक्तिशाली मोटर बोटों की व्यवस्था करना बहुत कम मछुआरों के लिए ही संभव है। इस तरह समुद्री प्रदूषण लाखों लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट भी बन गया है। समुद्र तटों के संरक्षण के कई कानून हैं, कई अदालतों ने भी निर्देश दिए हैं, लेकिन इस दिशा में समाज से जिस जागरूकता की अपेक्षा है, उसका सर्वथा अभाव दिखता है।(लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सहायक संपादक हैं)
= पंकज चतुर्वेदी

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