विश्व पर्यावरण दिवस पर लें सफाई का संकल्प
दैनिक जागरण नेशनल एडीशन ५ जून १५ |
बीते एक साल के दौरान प्रधानमंत्री से लेकर अफसरान तक ने झाड़ू थामी - कूड़ा साफ करने के लिए। वे जानते हैं कि हमारा देश केवल साफ सफाई ना होने के कारण उत्पन्न संकटों के कारण हर साल 54 अरब डालर का नुकसान सहता है। इसमें बीमारियां, व्यापारिक व अन्य किस्म के घाटे शामिल है।। यदि भारत में लेाग कूड़े का प्रबंधन व सफाई सीख लें तो औसतन हर साल रू.1321 का लाभ होना तय है। आम लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक बनाने के लिए प्रधान मंत्रीजी व अन्य नामी गिरामी हस्तियों द्वारा सावर्चजनिक सफाई कार्य करना अच्छा कदम है, लेकिन हमें यह भी विचार करना होगा कि आखिर कूड़ा कम कैसे हो, क्योंकि कूड़ा घर-मुहल्ले से निकाल बाहर करना समस्या का निदान नहीं है, असल समस्या तो उसके बाद षुरू होती है कि कूड़े का निबटान कैसे हो। यह बात भी गौरतलब है कि भारत में पर्यावरणीय संकट के आधे से ज्यदा मसले कूड़ा या उसका ठीक से निबटान ना होने से उपजे है? जिसकी चपेट में जमीन व जल के हालात तो बेहद बुरे हो चुके हैं।
षायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब हमारे देश में किसी ना किसी कस्बे-शहर में कूड़े को ले कर आम लोगों का आक्रोश या फिर अपने घर-मुहल्ले के करीब कचरे का डंपिंग ग्राउंड ना बनने देने के आंदोलन ना होते हों। लोगों की बढ़ती आय व जीवन-स्तर ने कूड़े को बढ़ाया है और अब कूड़ा सरकार व समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना है कि यह कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चैगुना बढ़ रहा है। वह कूड़ा जिसे नष्ट करना संभव नहीं है, जिसमें प्लास्टिक शामिल है ; अणु बम से भी ज्यादा खतरनाक है और वह आने वाली कई पीढि़यों के लिए संकट है।
दिनांक 18 दिसंबर 2014 को दिल्ली हाई कोर्ट चेतावनी दे चुका है कि यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली जल्दी ही ठोस कचरे के ढेर में तब्दील हो जाएगी। दिल्ली में अभी तक कोई दो करोड मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका है और हर दिन आठ हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा हो रहा है जिसमें से एक हजार टन प्लास्टिक का लाइलाज कचरा होता है। इसके निस्तारण के लिए कहीं जमीन भी नहीं बची है। मौजूदा लेंडफिल साईट डेढ सौ फुट से ऊंची हो गई हैं और उन पर अब अधिक कचरा नहीं डाला जा सकता। षायद यही हाल देष के हर छोटे बडे षहर-कस्बों के हैं। कई जगह लापरवाही व चालाकी से जल संसाधनों, जैसे समुद्र, तालाब, नहर, नदी, जोहड़ में कुड़ा डाल कर लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहे हैं, यह जाने बगैर कि वह कितबने बड़े खतरे को न्यौता दे रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देष में हर रोज 45 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है, इसमें से केवल 2500 लाख टन के निस्तारण की ही व्यवसथा है, यानि हर रोज दो हजार लाख टन कचरा हमारे आसपास जुड़ रहा है। हमारे देष में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलात है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी कूड़ा-कबाड़ा, घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देष के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली की नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाष रही है। जरा सोचें कि इतने कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढो कर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है। यह सरकार भी मानती है कि देष के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिषत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाईकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं। देष की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दषक पहले एक व्यक्ति साल भर में बामुष्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह षेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देष में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई और खुषबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सरकारी कार्यालयों में एक-एक कागज की कई-कई प्रतियां बनाना, एक ही प्रस्ताव को कई-कई टेबल से गुजारना, जैसे कई कार्य हैं जिससे कागज, कंप्ूयटर के प्रिंिटग कार्टेज् आदि का वययव बढता है। इसको कम करने की योजना बनाना जरूरी है।
सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाईल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। षेश हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांष सामग्री गलती-’सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। भारत में यह समस्या लगभग 25 साल पुरानी है, लेकिन सूचना प्रोद्योगिकी के चढते सूरज के सामने इसे पहले गौण समझा गया, जब इस पर कानून आए तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी। आज अनुमान है कि हर साल 10 लाख टन ई कचरा हमारा देश उगल रहा है, जिसमें से बामुश्किल दो फीसदी का ही सही तरह से निस्तारण हो पाता हे। शेष कचरे से अवैज्ञानिक तरीके से जला कर या तोड़ कर कीमती धतु निकाली जाती है व शेष को यूं हीक हीं फैंक दिया जाता है। इससे रिसने वाले रसायनांे का एक अद्श्य लेकिन भयानक तथ्य यह है कि इस कचरे कि वजह से पूरी खाद्य श्रंखला बिगड़ रही है । ई - कचरे के आधे - अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्त्व मिल जाते हैं जो पेड़ - पौधों के अस्तित्व पर खतरा बन रहा है। इसके चलते पौधों में प्रकाश संशलेषण की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती है और जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा पर होता है। इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम , कैडमियम , सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं. जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षत निबटान दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से ले कर छोटे कस्बों तक संदिग्ध व लापरवाहीपूर्ण रहा है।
राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है। अभी हर रोज आठ हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएगा। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पोलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जमीन और जल को जहर बना रहा है।
कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है, सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य पयास भी कर रही है। लेकिन असल में कोषिष तो कचरे को कम करने की होना चाहिए। प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर व मोबाईल के आयात पर रोक तथा बेकार उपकरणों को निबटाने के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करना, होगा। सामानों की मरम्मत करने वाले हाथों को तकनीकी रूप से सषक्त बनाने व उन्हें मदद करने से उपकरणों को कंडम कर फैंकने की प्रवृति पर रोक लग सकती है। बिजली के घरेलू उपकरणो से ले कर वाहनों के नकली व घटिया पाटर््स की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी। स्तरीय उपकरण ज्यादा चलते हैं व उसके कबाड हाने के गति कम होती है । सबसे बड़ी बात उच्च होती जीवन-षैली में कचरा-नियंत्रण और उसका निबटान की षिक्षा स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाना जरूरी है। कचरे को कम करना, उसके निबटान का प्रबंधन आदि के लिए दीर्घकालीन योजना और षिक्षा उतना ही जरूरी है, जितना बिजली, पानी और स्वास्थ्य के बारे में सोचना।
पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
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संपर्क- 9891928376
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