आई बी एन -७ के ब्लॉग पेज पर मेरा विशेष आलेख विश्व पर्यावरण दिवस पर "जल हें तो कल हें " विशेषकर तालाब पर केंद्रितhttp://khabar.ibnlive.com/blogs/author/71.html
तालाबों की सुध समाज को ही लेनी होगी
कलम और तलवार दोनों के समान रूप से धनी महाराज छत्रसाल ने 1707 में जब छतरपुर शहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाड़ियों और बारिश के दिनों में वहां से बहकर आने वाले पानी की हर बूंद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच सड़क व उसके किनारे बस्तियां। 1908 में ही इस शहर को नगर पालिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले जो बेहद पिछड़े थे, वहां से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास आदि के लिए लोग यहां आकर बसने लगे। आजादी मिलने के बाद तो यहां का बाशिंदा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस शहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहां की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी। अभी 80 के दशक तक शहर में कभी पानी का टोटा नहीं था और आज नल तो रीते हैं ही, कुएं व अन्य संसाधन भी साथ छोड़ गए हैं। हालांकि अब वहां की जनता जागी है तालाबों को बचाने के लिए।
पिछले दिनों शहर के सबसे बड़े ग्वाल मगरा तालाब की जलकुंभी की सफाई का जिम्मा शहर के लोगों ने ही उठाया। इन दिनों प्रताप सागर पर भी काम हो रहा है। लेकिन खतरा वही है- लोग तालाब संरक्षण, सौंदर्यीकरण व उसके मूल स्वरूप को अक्षुण रखने में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। जैसा कि नदियों के साथ हो रहा है। उसके तटों को सुंदर बनाने पर अरबों फूंके जाते हैं लेकिन उसकी जल धारा को सहेजने पर चुप्पी रहती है। छतरपुर के तालाबों से लोग जल कुंभी साफ कर रहे हैं, कुछ गाद भी हटा रहे हैं, लेकिन उसमें पानी आने व उसके अतिरिक्त जल को दूसरे तालाब तक जाने के पारंपरिक मार्गों को अतिक्रमण से मुक्त करने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। तालाबों में शहरी गंदगी का निस्तार, पॉलीथीन के जमा होने पर कोई नीति नहीं है। होता यह है कि सौंदर्यीकरण के नाम पर तालाबों को कुछ सिकोड़ दिया जाता है व उससे निकली जमीन पर अट्टालिकाएं रोप दी जाती हैं। इस तरह तालाब के नाम पर एक रुके हुए पानी का गड्ढा बन जाता है जो बदबू मारता है।
छतरपुर में ही जिस तालाब की लहरें कभी आज के छत्रसाल चौराहे से महल के पीछे तक और बसोरयाना से आकाशवाणी तक उछाल मारती थीं, वहां अब गंदगी, कंकरीट के जंगल और बदबू रह गई है। भले ही मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने है, लेकिन यह तय है कि पूरे साल पानी के लिए कराहते छतरपुर शहर को अपने सबसे बड़े व नए ‘किशोर सागर’ की दुर्गति करने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।
बुंदेलखंड का मिजाज है कि हर पांच साल में दो बार यहां कम बारिश होगी, इसके बावजूद अस्सी के दशक तक छतरपुर में पानी का संकट नहीं था। इस बीच यहां बाहर से आने वाले लोगों की बाढ़ आ गई। उनकी बसाहट और व्यापार के लिए जमीन की कमी आई तो शहर के दर्जनभर तालाबों के किनारों पर लोगों ने कब्जा शुरू कर दिया। उन दिनों तो लोगों को लगा था कि पानी की आपूर्ति नल या हैंडपंप से होती है। जब तक लोगों को समझ आया कि नल या भूजल का अस्तित्व तो उन्हीं तालाबों पर निर्भर है जिन्हें वे हड़प गए हैं, बहुत देर हो चुकी थी। किशोर सागर कानपुर से सागर जाने वाले राजमार्ग पर है, उसके आसपास नया छतरपुर बसना शुरू हुआ था , सो किशोर सागर पर मकान, दुकान, बाजार, मॉल, बैक्वेट सभी कुछ बना दिए गए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से कब्जे करने वालों में अधिकांश रसूखदार ही हैं। अभी कुछ सालों में बारिश के दौरान वहां बनी कॉलोनी के घरों में पानी भरने की दिक्कतें आनी शुरू हुईं। कुछ लोगों ने प्रशासन को कोसना भी शुरू किया, उन्हें पता नहीं था कि तालाब उनके घर में नहीं, बल्कि वे तालाब में घुसे बैठे हैं। बीच-बीच में कुछ शिकायतें होती रहीं, कई बार जांच भी हुईं लेकिन हर बार भूमाफिया, राजस्व अफसर साठगांठ कर ऐसे दस्तावेज सामने रखते कि छतरपुर के सरकारी स्कूल से लेकर अस्पताल तक तो तालाब पर अवैध कब्जे दिखते, लेकिन वहां जल निधि के बीच बने घर और दुकानें निरापद रहते।
किशोर सागर के बंदोबस्त रिकॉर्ड के मुताबिक 1939-40 से लेकर 1951-52 तक खसरा नंबर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया। आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकॉर्ड में गड़बड़ कर तालाब को किसी की संपत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहां की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहां का कई साल का बंदोबस्त बाबत पटवारी का रिकॉर्ड उपलब्ध ही नहीं है।
यह बात हमारे संविधान के मूल कर्तव्यों में दर्ज है। सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में समय-समय पर कहता रहा है, पर्यावरण मंत्रालय के दिशा निर्देश भी हैं और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश भी कि किसी भी नाले, नदी या तालाब, नहर, वन क्षेत्र जो कि पर्यावरण को संतुलित करने का काम करते हैं, वहां किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं किया जा सकता। यही नहीं ऐसी जल-निधियों के जल ग्रहण क्षेत्र या केचमंट एरिया के चारों और चालीस फुट दायरे में भी कोई निर्माण नहीं हो सकता। किशोर सागर में तो निर्माण कर उसे डेढ़ एकड़ में समेट दिया गया। मामला ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल शाखा में गया। चूंकि इसमें घपलों, गड़बड़ियों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, सो सही स्थिति जानने में कई बाधाएं आईं। यही नहीं ट्रिब्यूनल जिला कलेक्टर के खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी कर चुका है। भू अभिलेख कार्यालय, ग्वालियर ने सेटेलाइट व अत्याधुनिक तकनीक वाली टीएसएम से तालाब के असली रकबे की जांच हुई। उसके बाद 7 अगस्त 2014 को एनजीटी की भोपाल पीठ के न्यायमूर्ति दलीप सिंह ने विस्तृत ऑर्डर जारी कर 1978 के बाद निर्मित तथा तालाब के मूल स्वरूप के जलग्रहण क्षेत्र से नौ मीटर भीतर के सभी निर्माण गिराने, , तालाब के आसपास हरियाली विकसित करने के आदेश दिए। जब जमीन की लूट में सब शामिल हों तो तालाब की नपाई, गिराए जाने वाले मकानों को तय करने में रोड़े तो अटकाए जाने ही हैं। 11 बार नाप जोख होने के बावजूद अभी तक धरातल पर तालाब नहीं उभर पाया है। चूंकि अब तालाब पर सैकड़ों मकान बन गए हैं सो यह मानवीय, सियासती मुद्दा भी बन गया है। तालाब बचाने की मुहिम वाले किशोर सागर के पुरातन स्वरूप को लौटाने के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं लेते। जाहिर है कि अभी समाज को यह भी सीखना है कि तालाब को बचाना है तो करना क्या है।
किशोर सागर तो एक बानगी मात्र है। छतरपुर शहर के दो दर्जन, जिले के हजार, बुंदेलखंड के बीस हजार और देशभर के कई लाख तालाबों की त्रासदी लगभग इसी तरह की है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे। तालाब लोगों के जीवकोपार्जन का जरिया भी थे और तपती धरती को ठंडा करने का माध्यम भी। तालाब खेत के लिए भी उपजाते थे व झोपड़ी के लिए पोतना भी, तालाब पालतू मवेशियों के लिए जीवनदायी होते थे और पर्यावरण संतुलन का मूल मंत्र भी। आज भी जिस समाज ने अपनी पारंपरिक जल निधियों को संरक्षित रखा है, वहां मौसम की मार का वार बेअसर होता है। जबकि जहां जलाशयों को उजाड़ा गया, वहां सारे साल मनहूसियत व पानी के लिए रिरियाना बना रहता है।
एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। तब पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। 10वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोंद्धार (आरआरआर) के लिए योजना बनाई। 11वीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमलीजामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाबविहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सच्चाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
जरा अपने आसपास देखें, ना जाने कितने किशोर सागर समय से पहले मरते दिख रहे होंगे, ना जाने कितने ग्वाल मगरा में जलकुंभी की सफाई हो रही होगी। असल में ये तालाब नहीं मर रहे हैं, हम अपने आने वाले दिनों की प्यास को बढ़ा रहे हैं, जलसंकट को बढ़ा रहे हैं, धरती के तापमान को बढ़ा रहे हैं।
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