पेड़-पौधें भी हैं तस्करों के निशाने पर !
पंकज चतुर्वेदी
तस्करी के अपराध का नाम आते ही हथियार, मादक दवाओं की तिजारत का विचार दिमाग में घूम जाता है । लेकिन भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था , लेकिन पाश्चात्य देश उनका महत्व समझ रहे हैं । मुक्त व्यापार की दुनिया में जब हर देश के दरवाजे खुले पड़े हैं, अवैध रूप से पेड़-पौधों व जानवरों की तस्करी आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ी है । गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देष की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातयों के पौधों की जानकारी है , जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं ।
नई दवाओं के परीक्षण के लिए बंदरों ,चूहों व अन्य की अंतरराश्ट्रीय मांग का बड़ा हिस्सा भारत से हो रहा है । दुर्लभ कछुओं, कैंकडों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुके हैं । पाकिस्तान व बांग्लादेश
प्राकृतिक संपदा से भरपूर यहां के जंगलों पर माफिया की समानांतर सरकार चल रही है । सितंबर से मार्च महीने तक उत्तराखंड के हिमालय से सटे इलाकों में हिमपात होता है । ऐसे में वहां के जानवर निचली घाटियों की ओर आते हैं व घात लगाए बैठे शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं । इनकी चमड़ी, व अन्य उपांग टनकपुर व अन्य रास्तों से नेपाल व वहां से दुनिया के अन्य देशों में चले जाते हैं । सीमांत जिलों अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तर काशी आदि में जंगलों में आग लगाने वाले गिरोह संगठित रूप से संचालित हैं ।
वैसे तो भारत सरकार ने इलाके की 41 जड़ी बूटियों के दोहन पर रोक लगा रखी है । इसके बावजूद अतीश, दंदासा, तालीस, कुटकी, डोलू, गंद्रायण, सालम मिस्री, जटामोसी, महामेदा, सोम आदि स्थानीय बाजार में सस्ते दामों में बिकती मिल जाती है । यहां हालात इतने गंभीर हैं कि गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां विलुप्त हो गईं, 60 प्रजातियों का जीवन-चक्र सिर्फ 3-4 साल का रह गया है । अनुमान है कि कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौघे आगामी पांच सालों में नदारत हो जाएंगे ।
लक्षमण की मूर्छा का इलाज करने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी के लिए पूरा विंध्यांचल पहाड़ उखाड़ कर ले आए थे । वैसे ही कई आधुनिक हनुमान नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज, हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में लेपटाप, फैक्स, मोबाईल से लैसे सारे साल डटे रहते हैं । ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेकिा व यूरोप में है, लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को र्यान-शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी-बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं ।
नेशनलज क्ेंसे इंस्टीट्यूट , अमेरिका(एनसीआई) ने कोई दस साल पहले एक शोध किया कि भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘ टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है । फिर क्या था , देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालय इलाके के ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो । यही तालीस पत्र टेक्सोल है और अब कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुलर्भ हो गए हैं । डाबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती व उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं ।
अरूणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘‘ मिशामी टोटा’’ का टोटा होना अभी की ही बात हैं । डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई । स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे । डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रूपए किलो हुए तो कोलकाता के बिचैलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा । वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्वीट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रूपए किलो की दर से भुगतान कर दिया ।
ठी यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ । इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है । यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रूपए तक मिलते हैं । इस तेल की जांच बड़े विचित्र तरीके से होती है । इसका छोटा सा इंजेक्शन चूहे को दिया जाता है, यदि तेल शुद्ध होता है तो चूहे की पूंछ तन कर खड़ी हो जाती है व वह कई घंटों तक उछलता है । अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं । इन सभी जड़ी-बूुटियों को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम पर वहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है ।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेषी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर हैं, । यहां जानना जरूरी है कि बासमती चावल और नीम जैसे भारतीय उत्पादों पर कतिपय विदेषियों द्वारा पैटेंट पहले ही प्राप्त किया जा चुका है । अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्शों से पर्यटक बन कर भारत आ रहे हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त कर रहे हैं । विदित हो सन 1998 में मध्यप्रदेष के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे ।
राजस्थान के रणथंभौर अभ्यारण इलाके में विदेषी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विष्वविद्यालय के एक षोध में भी उल्लेखित की गई है । 1994 में दिल्ली के अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जर्मनी पर्यटक के पास हजारें की ंसख्या में मरे कीड़े-मकोड़े जब्त किए गए थे । तब तो उसे अजीबो गरीब हरकत करने वाला मान कर छोड़ दिया गया था, लेकिन अब स्पश्ट होने लगा है कि भारत की जैव विविधता पर विदेषी निगाहें कई सालों से गड़ी हुई हैं ।
देष के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल(कांपीफोरा वाईट्री) की एक विषेश प्रजाति में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो कि द्ददय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता रखता है । अष्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाष्त, मानसिक रोगों, षारीरीक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है । इस बूटी में कैंसर -रोधी गुण भी हैं और इसी कारण इसकी बड़ी मात्रा में तस्करी हो रही है । सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुष्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाशा में ‘‘ इफेड्रा फोलियाटा’’ कहा जाता है । अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं । यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेषी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पैटंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी ।
राजधानी दिल्ली का खारी बावली इलाका कई दुलर्भ व प्रतिबंधित औषधियों की खरीद-फरोक्ष्त का अड्डा है । यहां ‘सालम पंजा’, मुगली , जटामासी आदि अफरात मिल जाती हैं । यही नहीं नगद भुगतान करने पर नेपाल की सीमा के पास तक पहुचाने का जिम्मा भी ये ही व्यापारी लेते हैं । कटरा तंबाकू, गली बताशा जैसी संकरी गलियों के आलीशान आफिसों में हांगकांग, जर्मनी, लंदन के जड़ी-बूटी प्रेमियों की भीड़ देखी जा सकती है । सुगंध कोकिला, चिरायता के कई ट्रक हर सप्ताह दिल्ली से विदेश जाते हैं ।
कैंसर के इलाज के लिए प्रयुक्त दवा ‘ आईसो हैक्सनीलन्पथाइजरिंस’’ भले ही आज विदेषी औशधि है, लेकिन इसका निर्माण मध्य भारत में लावारिस से मिलने वाले पौधे ‘अर्नेबिया हिस्पीडिसीमा’’ से हुआ है । अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भ निरेधक तैयार किया गया है , जिसके कोई साईड-इफैक्ट नहीं हैं । हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘ बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन दवा तैयार की गई है । यहीं मिलने वाले टेक्सस बकाठा से कैंसर निदान में महत्वपूर्ण दवा मिली है । हैपीटाइटस जैसे घातक रोग का इलाज भी भारत में मिलने वाली बूटी फाइलान्थर निसरी में खोजा गया है ।
नीम हमारे लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा है । कई बीमारियों व खेती-किसानी में इसका उपयोग होता है । परंपरागत रूप् से नीम भारतीय पेड़ है, इसके बावजूद सन 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग व अमेरिका की रसायन कंपनी डब्लू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट जारी कर दिया । समय रहते इस निर्णय को चुनौती दी गई, तब डब्लू. जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं । हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन उस घटला से पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं । ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है । दक्षिण एशिया के किसानों के बासमती के पेटेेट पर भी अमेरिकी दावे हो चुके हैं ।
यहां जानना जरूरी है कि हमारे देष की पारंपरिक जड़ी-बूटियों की थोड़ी सी मात्रा ही विदेषी वैज्ञानिकों के लिए काफी होती है । ये लोग इन औशधियों के गुणों व उसके मुख्य तत्वों का विष्लेशण करते हैं और फिर उन्हीं तत्वों के आधार पर दवाएं बना कर पैटेंट करवा लेते हैं । हमारे पारंपरिक ज्ञान की रासायनिक बनावट को विदेषों में भेजने वाले कई गिरोह बाकायदा काम कर रहे हैं । यह बड़ा सुरक्षित धंधा है , ना तो कोई बड़ा सा कंसाईमेंट बनाना है और ना ही ढृलाई का झंझट है । इस काम में कई पर्यटक तो कुछ योग के विषेशज्ञ और कुछ तो दोहरी नागरिकता वाले अप्रवासी लगे हैं । ये लेाग अपने हर आगमन पर कुछ ग्राम वनस्पितियां ले जाते हैं । इस पर कस्टम वालों को भी षक नहीं होता है और ये लोग इसके एवज में लाखों-लाख कमाते हैं । यदि कानूनी रूप से कोई इन वनस्पितियों को देष से ले जाएगा तो उसे सरकार से अनुमति लेनी होगी व रायल्टी का भ्ुागतान भी करना होगा । सबसे बड़ी बात उक्त पौघे के गुणों पर आधारित किसी दवा का विदेष में पैटेंट संभव नहीं होगा ।
आस्ट्रेलिया की मिट्टी, फूल, पत्ती या कोई भी जैव पदार्थ को छुपा कर ले जाते हुए पकड़े जाने पर 50 हजार डालर के जुर्माने का कड़ा कानून हैं । भारत जैसे जैव-संपन्न देष में इस बाबत सषक्त कानून ना होना विडंबना ही है । संसद ने सन 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी । एक राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी । गोया यह सरकार में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं कि जैव तस्करी पर कारगर रूप से अंकुश लगाने की दृष्टि से यह कानून बेहद कमजोर है । ªहमारे बौद्धिक व पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लेाग एक तरह से देष की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं । इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
पेड़-पौधें भी हैं तस्करों के निषाने पर !
पंकज चतुर्वेदी
तस्करी के अपराध का नाम आते ही हथियार, मादक दवाओं की तिजारत का विचार दिमाग में घूम जाता है । लेकिन भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था , लेकिन पाष्चात्य देष उनका महत्व समझ रहे हैं । मुक्त व्यापार की दुनिया में जब हर देष के दरवाजे खुले पड़े हैं, अवैध रूप से पेड़-पौधों व जानवरों की तस्करी आष्चर्यजनक तरीके से बढ़ी है । गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देष की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविश्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातयों के पौधों की जानकारी है , जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं ।
नई दवाओं के परीक्षण के लिए बंदरों ,चूहों व अन्य की अंतरराश्ट्रीय मांग का बड़ा हिस्सा भारत से हो रहा है । दुर्लभ कछुओं, कैंकडों और तितलियों को अवैध तरीके से देष से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुके हैं । पाकिस्तान व बांग्लादेष से सटी सीमाओं पर गाय, गधों व ऊंटों की नाजायज तिजारत सरेआम चल रही है । इसके साथ ही चीनी, पेट्रोल, साईकिलों जैसे उत्पाद भी इधर से उधर होते हैं । भारत जैव विविधता के मामले में विष्व के समृद्धतम देषों में से है । हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है । खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी । सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं । लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने केा व्याकुल वैज्ञानिकों के प्रयोगों के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करेंा की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं । भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वर्शों के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पंक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं और इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है ।
प्राकृतिक संपदा से भरपूर यहां के जंगलों पर माफिया की समानांतर सरकार चल रही है । सितंबर से मार्च महीने तक उत्तराखंड के हिमालय से सटे इलाकों में हिमपात होता है । ऐसे में वहां के जानवर निचली घाटियों की ओर आते हैं व घात लगाए बैठे शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं । इनकी चमड़ी, व अन्य उपांग टनकपुर व अन्य रास्तों से नेपाल व वहां से दुनिया के अन्य देशों में चले जाते हैं । सीमांत जिलों अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तर काशी आदि में जंगलों में आग लगाने वाले गिरोह संगठित रूप से संचालित हैं ।
वैसे तो भारत सरकार ने इलाके की 41 जड़ी बूटियों के दोहन पर रोक लगा रखी है । इसके बावजूद अतीश, दंदासा, तालीस, कुटकी, डोलू, गंद्रायण, सालम मिस्री, जटामोसी, महामेदा, सोम आदि स्थानीय बाजार में सस्ते दामों में बिकती मिल जाती है । यहां हालात इतने गंभीर हैं कि गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां विलुप्त हो गईं, 60 प्रजातियों का जीवन-चक्र सिर्फ 3-4 साल का रह गया है । अनुमान है कि कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौघे आगामी पांच सालों में नदारत हो जाएंगे ।
लक्षमण की मूर्छा का इलाज करने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी के लिए पूरा विंध्यांचल पहाड़ उखाड़ कर ले आए थे । वैसे ही कई आधुनिक हनुमान नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज, हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में लेपटाप, फैक्स, मोबाईल से लैसे सारे साल डटे रहते हैं । ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेकिा व यूरोप में है, लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को र्यान-शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी-बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं ।
नेशनलज क्ेंसे इंस्टीट्यूट , अमेरिका(एनसीआई) ने कोई दस साल पहले एक शोध किया कि भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘ टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है । फिर क्या था , देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालय इलाके के ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो । यही तालीस पत्र टेक्सोल है और अब कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुलर्भ हो गए हैं । डाबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती व उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं ।
अरूणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘‘ मिशामी टोटा’’ का टोटा होना अभी की ही बात हैं । डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई । स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे । डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रूपए किलो हुए तो कोलकाता के बिचैलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा । वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्वीट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रूपए किलो की दर से भुगतान कर दिया ।
ठी यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ । इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है । यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रूपए तक मिलते हैं । इस तेल की जांच बड़े विचित्र तरीके से होती है । इसका छोटा सा इंजेक्शन चूहे को दिया जाता है, यदि तेल शुद्ध होता है तो चूहे की पूंछ तन कर खड़ी हो जाती है व वह कई घंटों तक उछलता है । अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं । इन सभी जड़ी-बूुटियों को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम पर वहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है ।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेषी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर हैं, । यहां जानना जरूरी है कि बासमती चावल और नीम जैसे भारतीय उत्पादों पर कतिपय विदेषियों द्वारा पैटेंट पहले ही प्राप्त किया जा चुका है । अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्शों से पर्यटक बन कर भारत आ रहे हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त कर रहे हैं । विदित हो सन 1998 में मध्यप्रदेष के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे ।
राजस्थान के रणथंभौर अभ्यारण इलाके में विदेषी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विष्वविद्यालय के एक षोध में भी उल्लेखित की गई है । 1994 में दिल्ली के अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जर्मनी पर्यटक के पास हजारें की ंसख्या में मरे कीड़े-मकोड़े जब्त किए गए थे । तब तो उसे अजीबो गरीब हरकत करने वाला मान कर छोड़ दिया गया था, लेकिन अब स्पश्ट होने लगा है कि भारत की जैव विविधता पर विदेषी निगाहें कई सालों से गड़ी हुई हैं ।
देष के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल(कांपीफोरा वाईट्री) की एक विषेश प्रजाति में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो कि द्ददय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता रखता है । अष्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाष्त, मानसिक रोगों, षारीरीक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है । इस बूटी में कैंसर -रोधी गुण भी हैं और इसी कारण इसकी बड़ी मात्रा में तस्करी हो रही है । सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुष्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाशा में ‘‘ इफेड्रा फोलियाटा’’ कहा जाता है । अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं । यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेषी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पैटंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी ।
राजधानी दिल्ली का खारी बावली इलाका कई दुलर्भ व प्रतिबंधित औषधियों की खरीद-फरोक्ष्त का अड्डा है । यहां ‘सालम पंजा’, मुगली , जटामासी आदि अफरात मिल जाती हैं । यही नहीं नगद भुगतान करने पर नेपाल की सीमा के पास तक पहुचाने का जिम्मा भी ये ही व्यापारी लेते हैं । कटरा तंबाकू, गली बताशा जैसी संकरी गलियों के आलीशान आफिसों में हांगकांग, जर्मनी, लंदन के जड़ी-बूटी प्रेमियों की भीड़ देखी जा सकती है । सुगंध कोकिला, चिरायता के कई ट्रक हर सप्ताह दिल्ली से विदेश जाते हैं ।
कैंसर के इलाज के लिए प्रयुक्त दवा ‘ आईसो हैक्सनीलन्पथाइजरिंस’’ भले ही आज विदेषी औशधि है, लेकिन इसका निर्माण मध्य भारत में लावारिस से मिलने वाले पौधे ‘अर्नेबिया हिस्पीडिसीमा’’ से हुआ है । अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भ निरेधक तैयार किया गया है , जिसके कोई साईड-इफैक्ट नहीं हैं । हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘ बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन दवा तैयार की गई है । यहीं मिलने वाले टेक्सस बकाठा से कैंसर निदान में महत्वपूर्ण दवा मिली है । हैपीटाइटस जैसे घातक रोग का इलाज भी भारत में मिलने वाली बूटी फाइलान्थर निसरी में खोजा गया है ।
नीम हमारे लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा है । कई बीमारियों व खेती-किसानी में इसका उपयोग होता है । परंपरागत रूप् से नीम भारतीय पेड़ है, इसके बावजूद सन 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग व अमेरिका की रसायन कंपनी डब्लू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट जारी कर दिया । समय रहते इस निर्णय को चुनौती दी गई, तब डब्लू. जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं । हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन उस घटला से पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं । ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है । दक्षिण एशिया के किसानों के बासमती के पेटेेट पर भी अमेरिकी दावे हो चुके हैं ।
यहां जानना जरूरी है कि हमारे देष की पारंपरिक जड़ी-बूटियों की थोड़ी सी मात्रा ही विदेषी वैज्ञानिकों के लिए काफी होती है । ये लोग इन औशधियों के गुणों व उसके मुख्य तत्वों का विष्लेशण करते हैं और फिर उन्हीं तत्वों के आधार पर दवाएं बना कर पैटेंट करवा लेते हैं । हमारे पारंपरिक ज्ञान की रासायनिक बनावट को विदेषों में भेजने वाले कई गिरोह बाकायदा काम कर रहे हैं । यह बड़ा सुरक्षित धंधा है , ना तो कोई बड़ा सा कंसाईमेंट बनाना है और ना ही ढृलाई का झंझट है । इस काम में कई पर्यटक तो कुछ योग के विषेशज्ञ और कुछ तो दोहरी नागरिकता वाले अप्रवासी लगे हैं । ये लेाग अपने हर आगमन पर कुछ ग्राम वनस्पितियां ले जाते हैं । इस पर कस्टम वालों को भी षक नहीं होता है और ये लोग इसके एवज में लाखों-लाख कमाते हैं । यदि कानूनी रूप से कोई इन वनस्पितियों को देष से ले जाएगा तो उसे सरकार से अनुमति लेनी होगी व रायल्टी का भ्ुागतान भी करना होगा । सबसे बड़ी बात उक्त पौघे के गुणों पर आधारित किसी दवा का विदेष में पैटेंट संभव नहीं होगा ।
आस्ट्रेलिया की मिट्टी, फूल, पत्ती या कोई भी जैव पदार्थ को छुपा कर ले जाते हुए पकड़े जाने पर 50 हजार डालर के जुर्माने का कड़ा कानून हैं । भारत जैसे जैव-संपन्न देष में इस बाबत सषक्त कानून ना होना विडंबना ही है । संसद ने सन 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी । एक राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी । गोया यह सरकार में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं कि जैव तस्करी पर कारगर रूप से अंकुश लगाने की दृष्टि से यह कानून बेहद कमजोर है । ªहमारे बौद्धिक व पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लेाग एक तरह से देष की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं । इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
तस्करी के अपराध का नाम आते ही हथियार, मादक दवाओं की तिजारत का विचार दिमाग में घूम जाता है । लेकिन भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था , लेकिन पाश्चात्य देश उनका महत्व समझ रहे हैं । मुक्त व्यापार की दुनिया में जब हर देश के दरवाजे खुले पड़े हैं, अवैध रूप से पेड़-पौधों व जानवरों की तस्करी आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ी है । गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देष की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातयों के पौधों की जानकारी है , जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं ।
नई दवाओं के परीक्षण के लिए बंदरों ,चूहों व अन्य की अंतरराश्ट्रीय मांग का बड़ा हिस्सा भारत से हो रहा है । दुर्लभ कछुओं, कैंकडों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुके हैं । पाकिस्तान व बांग्लादेश
प्राकृतिक संपदा से भरपूर यहां के जंगलों पर माफिया की समानांतर सरकार चल रही है । सितंबर से मार्च महीने तक उत्तराखंड के हिमालय से सटे इलाकों में हिमपात होता है । ऐसे में वहां के जानवर निचली घाटियों की ओर आते हैं व घात लगाए बैठे शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं । इनकी चमड़ी, व अन्य उपांग टनकपुर व अन्य रास्तों से नेपाल व वहां से दुनिया के अन्य देशों में चले जाते हैं । सीमांत जिलों अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तर काशी आदि में जंगलों में आग लगाने वाले गिरोह संगठित रूप से संचालित हैं ।
न्यू ब्राईट स्टार, हरियाणा 8 जून 15 |
लक्षमण की मूर्छा का इलाज करने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी के लिए पूरा विंध्यांचल पहाड़ उखाड़ कर ले आए थे । वैसे ही कई आधुनिक हनुमान नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज, हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में लेपटाप, फैक्स, मोबाईल से लैसे सारे साल डटे रहते हैं । ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेकिा व यूरोप में है, लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को र्यान-शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी-बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं ।
नेशनलज क्ेंसे इंस्टीट्यूट , अमेरिका(एनसीआई) ने कोई दस साल पहले एक शोध किया कि भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘ टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है । फिर क्या था , देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालय इलाके के ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो । यही तालीस पत्र टेक्सोल है और अब कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुलर्भ हो गए हैं । डाबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती व उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं ।
अरूणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘‘ मिशामी टोटा’’ का टोटा होना अभी की ही बात हैं । डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई । स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे । डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रूपए किलो हुए तो कोलकाता के बिचैलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा । वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्वीट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रूपए किलो की दर से भुगतान कर दिया ।
ठी यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ । इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है । यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रूपए तक मिलते हैं । इस तेल की जांच बड़े विचित्र तरीके से होती है । इसका छोटा सा इंजेक्शन चूहे को दिया जाता है, यदि तेल शुद्ध होता है तो चूहे की पूंछ तन कर खड़ी हो जाती है व वह कई घंटों तक उछलता है । अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं । इन सभी जड़ी-बूुटियों को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम पर वहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है ।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेषी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर हैं, । यहां जानना जरूरी है कि बासमती चावल और नीम जैसे भारतीय उत्पादों पर कतिपय विदेषियों द्वारा पैटेंट पहले ही प्राप्त किया जा चुका है । अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्शों से पर्यटक बन कर भारत आ रहे हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त कर रहे हैं । विदित हो सन 1998 में मध्यप्रदेष के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे ।
राजस्थान के रणथंभौर अभ्यारण इलाके में विदेषी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विष्वविद्यालय के एक षोध में भी उल्लेखित की गई है । 1994 में दिल्ली के अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जर्मनी पर्यटक के पास हजारें की ंसख्या में मरे कीड़े-मकोड़े जब्त किए गए थे । तब तो उसे अजीबो गरीब हरकत करने वाला मान कर छोड़ दिया गया था, लेकिन अब स्पश्ट होने लगा है कि भारत की जैव विविधता पर विदेषी निगाहें कई सालों से गड़ी हुई हैं ।
देष के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल(कांपीफोरा वाईट्री) की एक विषेश प्रजाति में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो कि द्ददय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता रखता है । अष्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाष्त, मानसिक रोगों, षारीरीक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है । इस बूटी में कैंसर -रोधी गुण भी हैं और इसी कारण इसकी बड़ी मात्रा में तस्करी हो रही है । सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुष्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाशा में ‘‘ इफेड्रा फोलियाटा’’ कहा जाता है । अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं । यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेषी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पैटंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी ।
राजधानी दिल्ली का खारी बावली इलाका कई दुलर्भ व प्रतिबंधित औषधियों की खरीद-फरोक्ष्त का अड्डा है । यहां ‘सालम पंजा’, मुगली , जटामासी आदि अफरात मिल जाती हैं । यही नहीं नगद भुगतान करने पर नेपाल की सीमा के पास तक पहुचाने का जिम्मा भी ये ही व्यापारी लेते हैं । कटरा तंबाकू, गली बताशा जैसी संकरी गलियों के आलीशान आफिसों में हांगकांग, जर्मनी, लंदन के जड़ी-बूटी प्रेमियों की भीड़ देखी जा सकती है । सुगंध कोकिला, चिरायता के कई ट्रक हर सप्ताह दिल्ली से विदेश जाते हैं ।
कैंसर के इलाज के लिए प्रयुक्त दवा ‘ आईसो हैक्सनीलन्पथाइजरिंस’’ भले ही आज विदेषी औशधि है, लेकिन इसका निर्माण मध्य भारत में लावारिस से मिलने वाले पौधे ‘अर्नेबिया हिस्पीडिसीमा’’ से हुआ है । अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भ निरेधक तैयार किया गया है , जिसके कोई साईड-इफैक्ट नहीं हैं । हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘ बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन दवा तैयार की गई है । यहीं मिलने वाले टेक्सस बकाठा से कैंसर निदान में महत्वपूर्ण दवा मिली है । हैपीटाइटस जैसे घातक रोग का इलाज भी भारत में मिलने वाली बूटी फाइलान्थर निसरी में खोजा गया है ।
नीम हमारे लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा है । कई बीमारियों व खेती-किसानी में इसका उपयोग होता है । परंपरागत रूप् से नीम भारतीय पेड़ है, इसके बावजूद सन 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग व अमेरिका की रसायन कंपनी डब्लू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट जारी कर दिया । समय रहते इस निर्णय को चुनौती दी गई, तब डब्लू. जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं । हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन उस घटला से पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं । ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है । दक्षिण एशिया के किसानों के बासमती के पेटेेट पर भी अमेरिकी दावे हो चुके हैं ।
यहां जानना जरूरी है कि हमारे देष की पारंपरिक जड़ी-बूटियों की थोड़ी सी मात्रा ही विदेषी वैज्ञानिकों के लिए काफी होती है । ये लोग इन औशधियों के गुणों व उसके मुख्य तत्वों का विष्लेशण करते हैं और फिर उन्हीं तत्वों के आधार पर दवाएं बना कर पैटेंट करवा लेते हैं । हमारे पारंपरिक ज्ञान की रासायनिक बनावट को विदेषों में भेजने वाले कई गिरोह बाकायदा काम कर रहे हैं । यह बड़ा सुरक्षित धंधा है , ना तो कोई बड़ा सा कंसाईमेंट बनाना है और ना ही ढृलाई का झंझट है । इस काम में कई पर्यटक तो कुछ योग के विषेशज्ञ और कुछ तो दोहरी नागरिकता वाले अप्रवासी लगे हैं । ये लेाग अपने हर आगमन पर कुछ ग्राम वनस्पितियां ले जाते हैं । इस पर कस्टम वालों को भी षक नहीं होता है और ये लोग इसके एवज में लाखों-लाख कमाते हैं । यदि कानूनी रूप से कोई इन वनस्पितियों को देष से ले जाएगा तो उसे सरकार से अनुमति लेनी होगी व रायल्टी का भ्ुागतान भी करना होगा । सबसे बड़ी बात उक्त पौघे के गुणों पर आधारित किसी दवा का विदेष में पैटेंट संभव नहीं होगा ।
आस्ट्रेलिया की मिट्टी, फूल, पत्ती या कोई भी जैव पदार्थ को छुपा कर ले जाते हुए पकड़े जाने पर 50 हजार डालर के जुर्माने का कड़ा कानून हैं । भारत जैसे जैव-संपन्न देष में इस बाबत सषक्त कानून ना होना विडंबना ही है । संसद ने सन 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी । एक राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी । गोया यह सरकार में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं कि जैव तस्करी पर कारगर रूप से अंकुश लगाने की दृष्टि से यह कानून बेहद कमजोर है । ªहमारे बौद्धिक व पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लेाग एक तरह से देष की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं । इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
पेड़-पौधें भी हैं तस्करों के निषाने पर !
पंकज चतुर्वेदी
तस्करी के अपराध का नाम आते ही हथियार, मादक दवाओं की तिजारत का विचार दिमाग में घूम जाता है । लेकिन भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था , लेकिन पाष्चात्य देष उनका महत्व समझ रहे हैं । मुक्त व्यापार की दुनिया में जब हर देष के दरवाजे खुले पड़े हैं, अवैध रूप से पेड़-पौधों व जानवरों की तस्करी आष्चर्यजनक तरीके से बढ़ी है । गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देष की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविश्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातयों के पौधों की जानकारी है , जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं ।
नई दवाओं के परीक्षण के लिए बंदरों ,चूहों व अन्य की अंतरराश्ट्रीय मांग का बड़ा हिस्सा भारत से हो रहा है । दुर्लभ कछुओं, कैंकडों और तितलियों को अवैध तरीके से देष से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुके हैं । पाकिस्तान व बांग्लादेष से सटी सीमाओं पर गाय, गधों व ऊंटों की नाजायज तिजारत सरेआम चल रही है । इसके साथ ही चीनी, पेट्रोल, साईकिलों जैसे उत्पाद भी इधर से उधर होते हैं । भारत जैव विविधता के मामले में विष्व के समृद्धतम देषों में से है । हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है । खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी । सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं । लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने केा व्याकुल वैज्ञानिकों के प्रयोगों के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करेंा की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं । भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वर्शों के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पंक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं और इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है ।
प्राकृतिक संपदा से भरपूर यहां के जंगलों पर माफिया की समानांतर सरकार चल रही है । सितंबर से मार्च महीने तक उत्तराखंड के हिमालय से सटे इलाकों में हिमपात होता है । ऐसे में वहां के जानवर निचली घाटियों की ओर आते हैं व घात लगाए बैठे शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं । इनकी चमड़ी, व अन्य उपांग टनकपुर व अन्य रास्तों से नेपाल व वहां से दुनिया के अन्य देशों में चले जाते हैं । सीमांत जिलों अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तर काशी आदि में जंगलों में आग लगाने वाले गिरोह संगठित रूप से संचालित हैं ।
वैसे तो भारत सरकार ने इलाके की 41 जड़ी बूटियों के दोहन पर रोक लगा रखी है । इसके बावजूद अतीश, दंदासा, तालीस, कुटकी, डोलू, गंद्रायण, सालम मिस्री, जटामोसी, महामेदा, सोम आदि स्थानीय बाजार में सस्ते दामों में बिकती मिल जाती है । यहां हालात इतने गंभीर हैं कि गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां विलुप्त हो गईं, 60 प्रजातियों का जीवन-चक्र सिर्फ 3-4 साल का रह गया है । अनुमान है कि कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौघे आगामी पांच सालों में नदारत हो जाएंगे ।
लक्षमण की मूर्छा का इलाज करने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी के लिए पूरा विंध्यांचल पहाड़ उखाड़ कर ले आए थे । वैसे ही कई आधुनिक हनुमान नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज, हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में लेपटाप, फैक्स, मोबाईल से लैसे सारे साल डटे रहते हैं । ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेकिा व यूरोप में है, लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को र्यान-शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी-बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं ।
नेशनलज क्ेंसे इंस्टीट्यूट , अमेरिका(एनसीआई) ने कोई दस साल पहले एक शोध किया कि भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘ टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है । फिर क्या था , देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालय इलाके के ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो । यही तालीस पत्र टेक्सोल है और अब कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुलर्भ हो गए हैं । डाबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती व उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं ।
अरूणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘‘ मिशामी टोटा’’ का टोटा होना अभी की ही बात हैं । डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई । स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे । डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रूपए किलो हुए तो कोलकाता के बिचैलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा । वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्वीट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रूपए किलो की दर से भुगतान कर दिया ।
ठी यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ । इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है । यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रूपए तक मिलते हैं । इस तेल की जांच बड़े विचित्र तरीके से होती है । इसका छोटा सा इंजेक्शन चूहे को दिया जाता है, यदि तेल शुद्ध होता है तो चूहे की पूंछ तन कर खड़ी हो जाती है व वह कई घंटों तक उछलता है । अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं । इन सभी जड़ी-बूुटियों को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम पर वहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है ।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेषी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर हैं, । यहां जानना जरूरी है कि बासमती चावल और नीम जैसे भारतीय उत्पादों पर कतिपय विदेषियों द्वारा पैटेंट पहले ही प्राप्त किया जा चुका है । अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्शों से पर्यटक बन कर भारत आ रहे हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त कर रहे हैं । विदित हो सन 1998 में मध्यप्रदेष के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे ।
राजस्थान के रणथंभौर अभ्यारण इलाके में विदेषी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विष्वविद्यालय के एक षोध में भी उल्लेखित की गई है । 1994 में दिल्ली के अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जर्मनी पर्यटक के पास हजारें की ंसख्या में मरे कीड़े-मकोड़े जब्त किए गए थे । तब तो उसे अजीबो गरीब हरकत करने वाला मान कर छोड़ दिया गया था, लेकिन अब स्पश्ट होने लगा है कि भारत की जैव विविधता पर विदेषी निगाहें कई सालों से गड़ी हुई हैं ।
देष के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल(कांपीफोरा वाईट्री) की एक विषेश प्रजाति में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो कि द्ददय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता रखता है । अष्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाष्त, मानसिक रोगों, षारीरीक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है । इस बूटी में कैंसर -रोधी गुण भी हैं और इसी कारण इसकी बड़ी मात्रा में तस्करी हो रही है । सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुष्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाशा में ‘‘ इफेड्रा फोलियाटा’’ कहा जाता है । अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं । यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेषी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पैटंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी ।
राजधानी दिल्ली का खारी बावली इलाका कई दुलर्भ व प्रतिबंधित औषधियों की खरीद-फरोक्ष्त का अड्डा है । यहां ‘सालम पंजा’, मुगली , जटामासी आदि अफरात मिल जाती हैं । यही नहीं नगद भुगतान करने पर नेपाल की सीमा के पास तक पहुचाने का जिम्मा भी ये ही व्यापारी लेते हैं । कटरा तंबाकू, गली बताशा जैसी संकरी गलियों के आलीशान आफिसों में हांगकांग, जर्मनी, लंदन के जड़ी-बूटी प्रेमियों की भीड़ देखी जा सकती है । सुगंध कोकिला, चिरायता के कई ट्रक हर सप्ताह दिल्ली से विदेश जाते हैं ।
कैंसर के इलाज के लिए प्रयुक्त दवा ‘ आईसो हैक्सनीलन्पथाइजरिंस’’ भले ही आज विदेषी औशधि है, लेकिन इसका निर्माण मध्य भारत में लावारिस से मिलने वाले पौधे ‘अर्नेबिया हिस्पीडिसीमा’’ से हुआ है । अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भ निरेधक तैयार किया गया है , जिसके कोई साईड-इफैक्ट नहीं हैं । हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘ बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन दवा तैयार की गई है । यहीं मिलने वाले टेक्सस बकाठा से कैंसर निदान में महत्वपूर्ण दवा मिली है । हैपीटाइटस जैसे घातक रोग का इलाज भी भारत में मिलने वाली बूटी फाइलान्थर निसरी में खोजा गया है ।
नीम हमारे लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा है । कई बीमारियों व खेती-किसानी में इसका उपयोग होता है । परंपरागत रूप् से नीम भारतीय पेड़ है, इसके बावजूद सन 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग व अमेरिका की रसायन कंपनी डब्लू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट जारी कर दिया । समय रहते इस निर्णय को चुनौती दी गई, तब डब्लू. जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं । हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन उस घटला से पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं । ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है । दक्षिण एशिया के किसानों के बासमती के पेटेेट पर भी अमेरिकी दावे हो चुके हैं ।
यहां जानना जरूरी है कि हमारे देष की पारंपरिक जड़ी-बूटियों की थोड़ी सी मात्रा ही विदेषी वैज्ञानिकों के लिए काफी होती है । ये लोग इन औशधियों के गुणों व उसके मुख्य तत्वों का विष्लेशण करते हैं और फिर उन्हीं तत्वों के आधार पर दवाएं बना कर पैटेंट करवा लेते हैं । हमारे पारंपरिक ज्ञान की रासायनिक बनावट को विदेषों में भेजने वाले कई गिरोह बाकायदा काम कर रहे हैं । यह बड़ा सुरक्षित धंधा है , ना तो कोई बड़ा सा कंसाईमेंट बनाना है और ना ही ढृलाई का झंझट है । इस काम में कई पर्यटक तो कुछ योग के विषेशज्ञ और कुछ तो दोहरी नागरिकता वाले अप्रवासी लगे हैं । ये लेाग अपने हर आगमन पर कुछ ग्राम वनस्पितियां ले जाते हैं । इस पर कस्टम वालों को भी षक नहीं होता है और ये लोग इसके एवज में लाखों-लाख कमाते हैं । यदि कानूनी रूप से कोई इन वनस्पितियों को देष से ले जाएगा तो उसे सरकार से अनुमति लेनी होगी व रायल्टी का भ्ुागतान भी करना होगा । सबसे बड़ी बात उक्त पौघे के गुणों पर आधारित किसी दवा का विदेष में पैटेंट संभव नहीं होगा ।
आस्ट्रेलिया की मिट्टी, फूल, पत्ती या कोई भी जैव पदार्थ को छुपा कर ले जाते हुए पकड़े जाने पर 50 हजार डालर के जुर्माने का कड़ा कानून हैं । भारत जैसे जैव-संपन्न देष में इस बाबत सषक्त कानून ना होना विडंबना ही है । संसद ने सन 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी । एक राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी । गोया यह सरकार में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं कि जैव तस्करी पर कारगर रूप से अंकुश लगाने की दृष्टि से यह कानून बेहद कमजोर है । ªहमारे बौद्धिक व पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लेाग एक तरह से देष की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं । इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
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