जाति ना पूछो साधु की !
प्रभात, मेरठ 7 जून 15 |
पंकज चतुर्वेदी
बीतें दिनों दो घटनांए बड़ी विचित्र हुई - जो दिनकर देशभर में राष्ट्रकवि के तौर पर मान्य थे, अचानक ही पता चला कि वे जाति से भूमिहार हैं। दिल्ली के मावलंकर हाॅल में संपन्न वैश्य सम्मेलन में गांधीजी को इस लिए चित्र व माल्यार्पण में शामिल कर लिया गया, क्योंकि वे जाति से वैश्य थे। आज से छह सौ साल पहले जब कबीर को लगा कि सामाजिक समरसता व योग्यता पर जात-बिरादरी असर डाल रही है तो उन्होंने लिखा था कि ‘‘जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।'' दुख होता है कि 21वीं सदी की ज्ञानवान पीढी एक बार फिर तलवार की धार नहीं म्यान की चमक का सौदा करने में गर्व महस्ूास कर रही है।
‘‘वे उस दौर के सर्वमान्य नेता थे । सन 1900 के आसपास दिल्ली में होने वाला कोई भी जलसा उनके बगैर हो ही नहीं सकता था । वे जमायते इस्लामी के सम्मेलन की सदारत करते थे । कांग्रेस के शीर्ष नेता थे, 1927 तक गांधीजी के प्रमुख सलाहकार रहे । वे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के हिमायती थी, व डाक्टर के तौर पर उनकी षोहरत पूरे एषिया में थी । आज से 90 साल पहले वे मरीज देखने के लिए दिल्ली से बाहर जाने की फीस पूरे एक हजार रूपए लेते थे । दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया उनकी देन है । यहां तक कहा गया कि यदि हकीम साहब जिंदा होते तो देष का विभाजन ही नहीं होता ।’’ ऐसे प्रख्यात राष्ट्रवादी हकीम अजमल खां को यदि याद करना है तो यह जामिया या उर्दू की कोई संस्था ही करेगी और उस आयोजन की खबर भी उर्दू के कुछ अखबारों में ही छपेगी। इस बात पर चिंता करना जरूरी है कि हमारी महान हस्तियों को हिंदु और मुसलमान या फिर जाति , राज्य में बांट कर देखा जाता रहा है ।
देष में जैसे जैसे जातिवादी सियासत जड़ें जमा रही है, वैसे-वैसे हमारे निर्विवाद देश -सेवकों को किसी दायरे में बांधने की कुत्सित कवायद तेज हो रही है । रानी लक्ष्मीबाई के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाली झलकारी बाई कोरियों की और अवंती बाई लोधी समाज की हो गई। बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल को सभी जाति-धर्म के लेाग भगवान की तरह पूजते हैं, लेकिन छत्रसाल जयंती पर ठाकुर समुदाय उन्हें ‘‘केवल अपना’’ बताने के हरसंभव प्रयास करता है । ठीक यही महराणा प्रताप के साथ राजस्थान में होता है । सर छोटूराम के नाम पर हरियाणा में जाट-राजनीति की चैसर बिछ गई है । परषुराम जयंती पर ब्राहणों व वाल्मिकी जयंती पर सफाईकर्मचारियों के जुलुस इन महान व्यक्तित्वों के व्यक्तित्व और कृतित्व का अवमूल्यन ही करते हैं । कबीर जयंती हो या अग्रसेन जयंती एक जाति, समाज विषेश के लोग उन्हें पूजने का एकाधिकर जताते हैं। अंबेडकर जयंती पर अनुसूचित जातियों के लेाग अन्य को अपने आयोजन में घुसने नहीं देना चाहते।
देष की आजादी और नवनिर्माण में असंख्य ऐसे लेागों का योगदान रहा है, जोकि राश्ट्रीय परिदृष्य में कम चर्चित रहे । ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं हैं जिन्हांेने आजादी के बाद देष के लेाकतांत्रिक और सामाजिक मूल्यों को सुदृढ़ करने में असीम योगदान दिया । वे बाबू जयप्रकाष नारायण हैं, राजेन्द्रप्रसाद और लालबहादुर शास्त्री भी, उनमें मदर टेरेसा भी हैं और बाबा आम्टे भी । क्या हमें यह नजरिया बदलना नहीं होगा कि केआर नारायणन राष्ट्रपति बनें , क्योंकि वे दलित थे, या लगातार दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले मनमोहन सिंह केवल एक ‘‘सिख’’ प्रधानमंत्री थे या फिर एक मुसलमान को देष का राश्ट्रपति बनाया गया । श्री नारायणन, मनमोहन सिंह या श्री अबुलकलाम का सार्वजनिक जीवन में जो भी योगदान है, उससे उनकी जाति-समाज का कोई वास्ता नहीं है । उनका संघर्श या उपलिब्धयां देष के लिए मिसाल हैं, ना कि किसी वर्ग-विषेश के लिए ।
बड़े राजनेता भी यह कहते सुने जा सकते है। कि फलां मुसलमानों का नेता है और वह दलितों काम मसीहा । जबकि चुनावों के आंकड़े गवाह हें कि आज देष का मुसलमान या दलित वेाट देते समय व्यापक नजरिया अपनाने लगा है । ऐसे में जाति-धर्म की दुहाई देने वाले एक मरे हुए प्रेत को जबरदस्ती जिलाने की कोषिष तो कर ही रहे हैं, सामाजिक न्याय के रास्ते कें अडंगा भी खड़ा कर रहे हैं । आम लोगों को विकास से मतलब है और विकास समग्र समाज का होता है, नाकि किसी जाति या विषेश का और कतिपय जाति, समाज के लेाग जब सार्वजनिक जीवन में थे तो उन्होंनंे भी समग्र समाज के लिए काम किया था। राश्ट्रीय विभूतियों को वर्ग में बांट कर देखने की ही त्रासदी है कि आज का युवा फिल्मी सितारों या क्रिकेट खिलाडि़यों में अपना आदर्ष तलाषता है ना कि उन असली हीरों में जिन्होंने विशम हालातों में देष का सम्मान बनाए रखा।
किसी भी महान व्यक्ति का व्यतित्व और कृतित्व महज उसका जीवन संघर्श नहीं हेाता इसमें कई और जीवनियां भी साथ-साथ चलती हैं, वे उस काल की बानगी होती हैं। ऐसी विभूतियों को जाति व क्षेत्र के बाहर रख कर उनका मूल्यांकन इस पीढी को प्रस्तुत करना देष को नई दिषा देगा । इसके लिए लेखकों, संस्थाओं और समाज को अपने संकुचित नजरिए से उबरना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
बीतें दिनों दो घटनांए बड़ी विचित्र हुई - जो दिनकर देशभर में राष्ट्रकवि के तौर पर मान्य थे, अचानक ही पता चला कि वे जाति से भूमिहार हैं। दिल्ली के मावलंकर हाॅल में संपन्न वैश्य सम्मेलन में गांधीजी को इस लिए चित्र व माल्यार्पण में शामिल कर लिया गया, क्योंकि वे जाति से वैश्य थे। आज से छह सौ साल पहले जब कबीर को लगा कि सामाजिक समरसता व योग्यता पर जात-बिरादरी असर डाल रही है तो उन्होंने लिखा था कि ‘‘जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।'' दुख होता है कि 21वीं सदी की ज्ञानवान पीढी एक बार फिर तलवार की धार नहीं म्यान की चमक का सौदा करने में गर्व महस्ूास कर रही है।
‘‘वे उस दौर के सर्वमान्य नेता थे । सन 1900 के आसपास दिल्ली में होने वाला कोई भी जलसा उनके बगैर हो ही नहीं सकता था । वे जमायते इस्लामी के सम्मेलन की सदारत करते थे । कांग्रेस के शीर्ष नेता थे, 1927 तक गांधीजी के प्रमुख सलाहकार रहे । वे भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के हिमायती थी, व डाक्टर के तौर पर उनकी षोहरत पूरे एषिया में थी । आज से 90 साल पहले वे मरीज देखने के लिए दिल्ली से बाहर जाने की फीस पूरे एक हजार रूपए लेते थे । दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया उनकी देन है । यहां तक कहा गया कि यदि हकीम साहब जिंदा होते तो देष का विभाजन ही नहीं होता ।’’ ऐसे प्रख्यात राष्ट्रवादी हकीम अजमल खां को यदि याद करना है तो यह जामिया या उर्दू की कोई संस्था ही करेगी और उस आयोजन की खबर भी उर्दू के कुछ अखबारों में ही छपेगी। इस बात पर चिंता करना जरूरी है कि हमारी महान हस्तियों को हिंदु और मुसलमान या फिर जाति , राज्य में बांट कर देखा जाता रहा है ।
देष में जैसे जैसे जातिवादी सियासत जड़ें जमा रही है, वैसे-वैसे हमारे निर्विवाद देश -सेवकों को किसी दायरे में बांधने की कुत्सित कवायद तेज हो रही है । रानी लक्ष्मीबाई के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाली झलकारी बाई कोरियों की और अवंती बाई लोधी समाज की हो गई। बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल को सभी जाति-धर्म के लेाग भगवान की तरह पूजते हैं, लेकिन छत्रसाल जयंती पर ठाकुर समुदाय उन्हें ‘‘केवल अपना’’ बताने के हरसंभव प्रयास करता है । ठीक यही महराणा प्रताप के साथ राजस्थान में होता है । सर छोटूराम के नाम पर हरियाणा में जाट-राजनीति की चैसर बिछ गई है । परषुराम जयंती पर ब्राहणों व वाल्मिकी जयंती पर सफाईकर्मचारियों के जुलुस इन महान व्यक्तित्वों के व्यक्तित्व और कृतित्व का अवमूल्यन ही करते हैं । कबीर जयंती हो या अग्रसेन जयंती एक जाति, समाज विषेश के लोग उन्हें पूजने का एकाधिकर जताते हैं। अंबेडकर जयंती पर अनुसूचित जातियों के लेाग अन्य को अपने आयोजन में घुसने नहीं देना चाहते।
देष की आजादी और नवनिर्माण में असंख्य ऐसे लेागों का योगदान रहा है, जोकि राश्ट्रीय परिदृष्य में कम चर्चित रहे । ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं हैं जिन्हांेने आजादी के बाद देष के लेाकतांत्रिक और सामाजिक मूल्यों को सुदृढ़ करने में असीम योगदान दिया । वे बाबू जयप्रकाष नारायण हैं, राजेन्द्रप्रसाद और लालबहादुर शास्त्री भी, उनमें मदर टेरेसा भी हैं और बाबा आम्टे भी । क्या हमें यह नजरिया बदलना नहीं होगा कि केआर नारायणन राष्ट्रपति बनें , क्योंकि वे दलित थे, या लगातार दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले मनमोहन सिंह केवल एक ‘‘सिख’’ प्रधानमंत्री थे या फिर एक मुसलमान को देष का राश्ट्रपति बनाया गया । श्री नारायणन, मनमोहन सिंह या श्री अबुलकलाम का सार्वजनिक जीवन में जो भी योगदान है, उससे उनकी जाति-समाज का कोई वास्ता नहीं है । उनका संघर्श या उपलिब्धयां देष के लिए मिसाल हैं, ना कि किसी वर्ग-विषेश के लिए ।
बड़े राजनेता भी यह कहते सुने जा सकते है। कि फलां मुसलमानों का नेता है और वह दलितों काम मसीहा । जबकि चुनावों के आंकड़े गवाह हें कि आज देष का मुसलमान या दलित वेाट देते समय व्यापक नजरिया अपनाने लगा है । ऐसे में जाति-धर्म की दुहाई देने वाले एक मरे हुए प्रेत को जबरदस्ती जिलाने की कोषिष तो कर ही रहे हैं, सामाजिक न्याय के रास्ते कें अडंगा भी खड़ा कर रहे हैं । आम लोगों को विकास से मतलब है और विकास समग्र समाज का होता है, नाकि किसी जाति या विषेश का और कतिपय जाति, समाज के लेाग जब सार्वजनिक जीवन में थे तो उन्होंनंे भी समग्र समाज के लिए काम किया था। राश्ट्रीय विभूतियों को वर्ग में बांट कर देखने की ही त्रासदी है कि आज का युवा फिल्मी सितारों या क्रिकेट खिलाडि़यों में अपना आदर्ष तलाषता है ना कि उन असली हीरों में जिन्होंने विशम हालातों में देष का सम्मान बनाए रखा।
किसी भी महान व्यक्ति का व्यतित्व और कृतित्व महज उसका जीवन संघर्श नहीं हेाता इसमें कई और जीवनियां भी साथ-साथ चलती हैं, वे उस काल की बानगी होती हैं। ऐसी विभूतियों को जाति व क्षेत्र के बाहर रख कर उनका मूल्यांकन इस पीढी को प्रस्तुत करना देष को नई दिषा देगा । इसके लिए लेखकों, संस्थाओं और समाज को अपने संकुचित नजरिए से उबरना होगा ।
पंकज चतुर्वेदी
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