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गुरुवार, 29 सितंबर 2016

Urban planning must have be according climate change

शहरों को खुद संभलना होगा


अब तो बरसात वाले बादल धीरे-धीरे विदा हो रहे हैं, लेकिन सावन-भादो के बीते दो महीने प्रत्येक महानगर की चकाचौंध और विकास की पोल जम कर खोल गए। यह पहली बार नहीं हो रहा है, लगभग हर साल बरसात होती है, या बगैर बरसात के भी साल रह जाता है। शहर के वाहन थम जाते हैं। यह भी सच है कि जिस तरह जाम में फंसे आम लोग केवल अपने वाहन के निकलने का रास्ता बना कर इस समस्या से मुंह मोड़ लेते हैं, उसी तरह शहरों के लोग ऐसी कोई भी दिक्कत आने पर हल्ला करना भी मुनासिब नहीं समझते, मीडिया जरूर सक्रिय रहता है और उसके बाद फिर समाज ‘‘नोन-तेल-लकड़ी’ में जीवन व्यस्त कर लेता है। शहरीकरण आधुनिकता की हकीकत है और पलायन इसका मूल, लेकिन नियोजित शहरीकरण ही विकास का पैमाना है। गौर करें कि चमकते-दमकते दिल्ली शहर की डेढ़ करोड़ हो रही आबादी में से कोई चालीस फीसदी झोपड़-झुग्गियों में रहती है, यहां की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पूरी तरह जर्जर है। मुंबई या कोलकाता के हालात भी इससे कहीं बेहतर नहीं हैं। आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह खेती-किसानी से लेगों का मोह भ्ांग हुआ और जमीन को बेच कर शहरों में मजदूरी करने का प्रचलन बढ़ा है, उससे गांवों का कस्बा बनना, कस्बों का शहर और शहर का महानगर बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। विडंबना है कि हर स्तर पर शहरीकरण की एक ही गति-मति रही, पहले आबादी बढ़ी, फिर खेत में अनाधिकृत कालोनी काट कर या किसी सार्वजनिक पार्क या पहाड़ पर कब्जा कर अधकच्चे, उजड़े से मकान खड़े हुए। कई दशकों तक ना तो नालियां बनीं या सड़क और धीरे-धीरे इलाका ‘‘अरबन-स्लम’ में बदल गया। लोग रहें कहीं भी लेकिन उनके रोजगार, यातायात, शिक्षा व स्वास्य का दबाव तो उसी ‘‘चार दशक पुराने’ नियोजित शहर पर पड़ा, जिस पर अनुमान से दस गुना ज्यादा बोझ हो गया है। परिणाम सामने हैं कि दिल्ली, मुंबई, चैन्नई, कोलकाता जैसे महानगर ही नहीं देश के आधे से ज्यादा शहरी क्षेत्र अब बाढ़ की चपेट में हैं। गौर करने लायक बात यह भी है कि साल में ज्यादा से ज्यादा 25 दिन बरसात के कारण बेहाल हो जाने वाले ये शहरी क्षेत्र पूरे साल में आठ से दस महीने पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी-सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्कत अकेले बाढ़ की ही नहीं है, इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। चूंकि शहरों में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है, और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है। जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है, और लगातार कमजोर हो रही जमीन पर खड़े कंक्रीट के जंगल किसी छोटे से भूकंप से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कालोनियां के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं।शहरों में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण तो यहां के प्राकृतिक नालों पर अवैध कब्जे, भूमिगत सीवरों की ठीक से सफाई ना होना है। लेकिन इससे बड़ा कारण है हर शहर में हर दिन बढ़ते कूड़े के भंडार व उनके निबटान की माकूल व्यवस्था ना होना। अकेले दिल्ली में नौ लाख टन कचरा हर दिन बगैर उठाए या निबटान के सड़कों पर पड़ा रह जाता है। जाहिर है कि बरसात होने पर यही कूड़ा पानी को नाली तक जाने या फिर सीवर के मुंह को बंद करता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं, तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पॉलीथिन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं, जोगहरे सीवरों के दुश्मन हैं। यदि शहरों में कूड़ा कम करने और उसके निबटारे के सही उपाय नहीं हुए तो नालों या सीवर की सफाई के दावे या फिर आरोप बेमानी ही रहेंगे। अब यह तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं हैं, यह भी तय है कि आने वाले दिन शहरीकरण के विस्तार के हैं, तो फिर किया क्या जाए? आम लोग व सरकार कम से कम कचरा फैलाने पर काम करें। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शहरों में अधिक से अधिक खाली जगह यानि कच्ची जमीन हो, ढेर सारे पेड़ हों। शहरों में जिन स्थानों पर पानी भरता है, वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों। तीसरा प्राकृतिक जलाशयों, नदियों को उनके मूल स्वरूप में रखने तथा उनके जलग्रहण क्षेत्र को किसी भी किस्म के निर्माण सेेमुक्त रखने के प्रयास हों। पेड़ तो वातावरण की गर्मी को नियंत्रित करने और बरसात के पानी को जमीन पर गिर कर मिट्टी काटने से बचाते ही हैं।

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