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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

Hindon : begins from own death at origin

जब नदिया बैरन बनी

                                                                                                                                      पंकज चतुर्वेदी
कभी उनके पूर्वज इसी जल-धारा के किनारे-किनारे भटकते जीवन की आस में यहां बस गए थे। उन्होंने यहां खेत बनाए, मवेषी पाले, गांव बसाया, उसके साथ गीत-लोक- समाज आया। आज वही जीवन-बीज जल-धारा, जीवन-क्षय का कारक है और समाज हताष, असहाय सा बस गुहार लगा रहा है। नदी अब उनके  कंठ को तर करने या खेत को सींचने का नहीं, बल्कि मौत का माध्यम बन गई है। दूर-दूर तक भूजल भी  इतना बेगााना हो गया है कि पाताल में 200 फुट गहराई तक बस मृत्यु-बीज ही प्रस्फुटित हो रहे हैं। ंिहंडन नदी जिस जिले से निकलती है, यह हाल उसके हर गांव का है। हालांकि अब एक नया जुमला उछाला जा रहा है कि हिंडन कभी नदी थी ही नहीं, यह तो महज बरसाती नाला थी और इसमें जल-प्रवाह पहले से ही कारखानों से उत्सर्जित जल का ही परिणाम था। जिस नदी का पौराणिक कथाओं से ले कर इतिहास तक में उल्लेख है , यह हाल उसके उद्गम स्थल का है।
हिंडन उप्र के सहारनपुर जिले में षिवालिक पहाड़ियों से निकलती है। असल में इसके उद्गम व यमुना में मिलन तक ढ़ाल बहुत कम है। औसतन बामुष्किल प्रति किलोमीटर छह संेटीमीटर, सो इसका प्रवाह बेहद धीमा है, साथ ही रास्ते में मिलने वाले नदी-नालों का इसमें संम्मिलन बगैर किसी प्रतिरोध के होता है। यही कारण है कि पहाड़ से नीचे उतरते ही इसमें कारखानों, खेतों  और नगरीय अपषिश्ठ का बेरोकटोक मिलना जारी हो जाता है व उद्गम-जिले में ही यह लगभग मर जाती है। हिंडन व उसमें आ कर मिलने वाले नदी-नालों पर इसी जिले में दो दर्जन से ज्यादा छोटे-बड़े कारखाने हैं। इलाके में खेती बेहद समृद्व है और अधिक फसल के लोभ में अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल ने भी नदी व उससे सटी जमीन को जहरीला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। विडंबना है कि अपने षुरूआती मार्ग में ही इसमें आक्सीजन की मात्रा लगभग समाप्त हो जाती है व इसमें कोई जलीय-जीव नहीं मिलते, मिलता है तो बस जानलेवा ‘ काईरोनॉस लार्वा। दस किलोमीटर रास्ता पार करते ही नदी में जीवनदायी जल की जगह आर्सेनिक, सायनाइड, क्रोमियम, लोहा, सीसा, पारा जैसे जहर खतरनाक मात्रा को पार कर देते हैं। यह बात एनजीटी में हलफनामे में बताई गई है कि जिले के कुतबा माजरा, अंबहेटा, ढायकी, महेषपुर, षिमलाना आदि गांवों में गत पांच सालों में कैंसर से 200 से ज्यादा मौतें हुई हैं। सन 2011 में षिमलाना में बाबा मंगल गिरी ने हिंडन बचाने के लिए 11 दिन का अनषन किया था। पूरे इलाके के गांव वाले जुटे थे । तब सरकार ने कई वायदे कर अनषन तुडवाया था, छह साल बाद भी वायदों का एक भी षब्द क्रियान्वयन के स्तर पर नहीं आया।
पहा़ड़ से उतर कर हिंडन हर आम नदी की तरह निश्चल, स्वच्छ और जीवन ले कर उतरती है। इसवका सबसे पहला सामना स्टार पेपर मिल के नाले से होता है। यहां से कागजों पर चलने वाले जल-स्वच्छता संयत्र से निकले पानी के चलते नदी मे ंलेड की मात्रा 0.34 और क्रोमियम की मात्रा 1.84 मिलीग्राम प्रति लीटर के खतरनाक स्तर पर आ जाती है। गौर करने वाली बात है कि  कई सौ किलामीटर चल कर जब हिंडन ्रगेटर नाएडा के पास मोमनाथल में यमुना से मलती है तो वहां भी इन दो जहर की मात्रा लगभग इतनी ही होती है। अकेले सहारनपुर जिले में ही इतना जहर या तो सीधे या फिर सहाक नदी-नालों के जरिये हिंडन में मिल जाता है कि यह ‘रीवर’ की जगह ‘सीवर’ बन जाती है। सरसावा किसान सहकारी चीनी मिल और पिलखनी केमिकल्स और डिस्टलरी का गैरषोहिधत पानी सेंधली नदी में आता है और उससे हिंडन में।  ननोता की चीनी मिल , गंगेष्वरी लिमिटेड, देवबंद का पीले रंग का पानी और एसएमसी फूड लिमिटेड का बदबूदार पानी सीधे कृश्णा नदी में जाता है जो कि कुछ ही दूर पर हिंडन में मिल जाती है। युसुफपुर टपरी के षराब कारखाना तो बगैर किसी मध्यस्थ माध्यम के हिंडन में अपना जहर घोलता है। षाकुंभरी षुगर मिल की जहरीला पानी बूढी यमुना के जरिये इसमें आता है।  इसी तरह काली नदी के जरिये भी चार कारखाने अपना गंदगी का योगदान इसमें करते हैं। अदालतें, सरकारी रिपोर्ट सबकुछ कहानी बयां करते हें लेकिन विकास और र्प्यावरण के बीच प्राथमिकता और सामंजरूस के अभाव में एक नदी लगभग मर जाती है वह भी अपने प्रारंभिक चरण में ही। अक्तूबर 2016 में ही एनजीटी ने नदी के किनारे के हजारों हैंडपंप बंद कर गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था का आदेष दिया था। हैंडपंप तो कुछ बंद भी हुए लेकिन विकल्प ना मिलने से मजबूर ग्रामीण वही जहर पी रहे हैं। एनजीटी ने यह भ्ीक हा था कि पानी को प्रदूशण से बचाने के लिए धरातल पर कुछ काम हुआ ही नहीं।
तासीपुर गांव में हिंडन का पानी सीवर की तरह बदबू मारता है। यहां पांच बार सरपंच रहे षरीफ अली बताते हैं कि दो दषक पहले तक उनकी पांच हजार आबादी के गांव के पानी का पूरा समाधान नदी के पास था और आज यदि रात में एक बाल्टी में गांव के हैंडपंप का पानी रख दो तो सुबह तक उस पर कई इंच की चमकीली परत जम जाती है।  यहं नदी के किनारे बसे बहादरपुर, सरेली हरिया, सकतपुर, जक्नपुर, नसरतपुर की पचास हजार से ज्यादा आबादी के पास पानी का केाई साधन नहीं बचा है। नदी के कारण उनके यहां 200 फुट तक का पाताल पानी जहर हो चुका है।
सहारनपुर के गावंा ेमं अच्छी खेती होती है व उससे संपन्नता भी है, लेकिन जागरूकता का अभाव भी हे। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि यहां नदी के जहर होने का पूरा ठीकरा केवल कारखानेां पर नहीं फोडा जा सकता, क्योंकि पानी में डीडीटी, मेलाथियान जैसे कई ऐसे तत्व जानलेवा स्तर पर मिले हैं जो किसी कारखाने से नहीं निकलते। इन दिनों यहां खेत में दवा व फसल बढ़ाने के केमिकल के नाम पर कई ऐसे रसायन बिक रहे हैं जो असल में चीन से आए है व यहां षक्तिमान या ऐसे ही नाम से सहजता से उपलब्ध हैं। इनमें कौन से रसायन हैं, इनका क्या असर फसल, जमीन या खेती पर है, इसका कोई अता -पता है। नहीं। यहां कुछ दषकों के दौरान धान की खेती होने लगी जबकि यह गेंहू व चने या गन्ने का इलाका था, इससे खेतों में जमकर रसायन डाले गए और पानी भी भरा गया, बरसात के दिनों मे ंयहीं का जल बह कर हिंडन में जुड़ा व अपने साथ रसायनों का जहर भी ले गया।
सहारनपुर में ही हिंडन की इतनी दुर्गति हो जाती है कि आगे मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद में इसे एक गंदगी ढोने वाला नाला ही मान लिया जाता है। कभी सड़क, पुल मेट्रोे के नाम पर इसकी धारा को संकरा या काट दिया जाता है तो कहीं सीवर को इसमें जोड़ा जाता है, कहीं कारखाने का ठोस कचरा इसके कािरे डाला जाता है तो कहीं पषु-वध केंद्रो का खून व मज्जा इसमें डालने में किसी को संकोच नहीं होता। जान लें इंसान सड़क, पुल, कारखाने सबकुछ बना सकता है, उसके उत्पादों के बगैर जी भी सकता है लेकिन ना तो उसके बस में नदी बनाना है और ना ही पानी के बगैर जीना। गांवों में जहां हिंडन बदबू और बीमारी बांट रही है वहां के लेाग तो इसे अब अपने लिए श्राप मान रहे हैं। यह तय है कि यदि आने वाले पांच सालों में हालात नहीं संभले तो एक नदी को यह समाज पूरी तरह विलुप्त और मरते हुए देखेगा।

















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